• क्यों रूठ गई हमसे गौरैया

    गाँव के कच्चे या आधे कच्चे-आधे पक्के मकान। मकान में बड़ा-सा आंगन, कच्चे आंगन, कच्ची दीवारों को, चुल्हे को मां पीली मिट्टी में गोबर मिलाकर बड़े चाव से लीपती थी

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    - डॉ. ओमप्रकाश कादयान

    गाँव के कच्चे या आधे कच्चे-आधे पक्के मकान। मकान में बड़ा-सा आंगन, कच्चे आंगन, कच्ची दीवारों को, चुल्हे को मां पीली मिट्टी में गोबर मिलाकर बड़े चाव से लीपती थी। कहीं-कहीं तिनके पर रुई या कपड़ा लपेटकर गेरू, हल्दी से डिज़ाइन बना देती तो कच्ची मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ सुंदरता भी बढ़ जाती। आंगन साफ-सुथरा व ठंडा रहता। आंगन में एक नीम का पेड़। दीवारों में छोटे-छोटे आले। इन्हीं आलो में या फिर छप्पर में ढेर सारी चिड़ियां (गौरैया) रहती। हमारा-घर-आंगन, दीवार मांडणों से सजी रहती तथा आंगन में बैठी-बैठी मां-दादी, चाची-ताई चरखा कातती, कलात्मक वस्तुएं बनाती तो कभी घर-बार की बातें करती, तीज-त्योहार पर लोक गीत गाती। ये हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है। उधर से छोटी-सी चिड़िया जिसे गौरैया भी कहते हैं इसी संस्कृति का हिस्सा थी। आंगन का पेड़ व उस पर बैठी, आलो में दुबकी, आराम करती, मुंडेर पर चीं-चीं करती या आंगन में ढेर सारी गौरैयां दाना-रोटी चुगती हमारी संस्कृति का ही हिस्सा थी। प्रकृति की अनुपम भेंट गौरैया पालतू तो नहीं थी, किंतु पालतू जैसी ही थी। उस गौरैया में अपनापन-सा था। मुंडेर पर बैठकर या आंगन में उड़ती हुई चीं-चीं करके दादी, नानी, मां से जैसे अपना हक मांगती थी, वो भी रोटी के टुकड़े या मुठ्ठी भर अनाज। बदले में गौरैया हमारा मनोरंजन करती, गीत सुनाती, नृत्य करती, परिवार का हिस्सा होने का एहसास दिलाती।

    जब हम उन चिड़ियों को फुदकते-नाचते-गाते देखते हमें लगता कि माँ या दादी के साथ अवश्य ही कोई गहरा रिश्ता इनका है। मां जब अनाज लेकर पीसने से पहले आंगन में साफ करती तो बहुत सी गौरैया उनके आसपास आ जाती थी, चीं-चीं-चीं करती हुई। मां उन्हें गेहूं, बाजरा या ज्वार गेर देती। आंगन में बैठकर जब मैं खाना खाता या घर का कोई सदस्य आंगन में बैठकर रोटी खाता तो ढेर सारी नन्हीं गौरैया मंडराने लगती। हम रोटी के छोटे-छोटे टुकड़े करके डाल देते। मुझे अब भी याद है कि गौरैया कई बार मां के कंधों पर या सिर पर भी बैठ जाती थी लेकिन हाथ नहीं आती थी। कई बार तो हमारी थाली से रोटी के टुकड़े तोड़ ले जाती थी। दीवारों में बने आलों, छप्परों या कड़ियों में बनी खाली जगह में वो अपने अंडे देती। नर व मादा दोनों अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए चूज़ों को चुग्गा देते, उनकी रक्षा करते। एक छोटी सी मासूम गौरैया घर में रौनक लगा देती थी। उसकी गतिविधियां, उसके गीत, उसकी चहचाहट दिन भर चलती रहती थी। छोटे बच्चे उन्हें देख उसे पकड़ने को दौड़ते, मां उनसे दिन भर बतियाती रहती थी। हम उन्हें देख मुस्कुराते रहते थे। दादा-दादी उनके ढेर सारे किस्से सुनाते। कुछ हकीकत तो कुछ उनसे जुड़ी दंत कथाएं।

    मुझे बचपन के वो दिन याद हैं जब मैं छोटा था। बाजरे के खेतों में चिड़िया उड़ाने के लिए डामचा (गोपियां, मचान) बना होता था। जब बाजरे की सर्टियां पकने को होती तो एक साथ सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों चिड़ियों की टोली बाजरे की फसल पर टूट पड़ती। किसान अपने डामचा पर खड़ा होकर चिड़ियों को उड़ाता था। चिड़ियों की टोली फिर आ जाती थी फिर उड़ाई जाती, किंतु अब गौरैया की टोलियां कहां गायब हो गई ? अब किसान को बाजरे के खेत में न डामचा बनाने की जरूरत पड़ती है तथा ना ही पक्षियों को उड़ाने की। फिर भी किसान खुश नहीं है, क्योंकि इन चिड़ियों से उसे लगाव भी तो बहुत रहा है। चिड़िया को खोकर वह भी तो उदास हो गया है, क्योंकि चिड़िया फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़ों, कीटों को भी खा जाती थी।

    मुझे याद है इस हमारे खेत में बने कोटडे के आगे एक बड़ा छप्पर होता था। उस छप्पर में कम से कम 10-15 चिड़ियों के घोंसले होते थे। उन घोसलों से चूज़ों की चहचाहने की आवाजें आती थी। चिड़ा और चिड़िया अपने-अपने बच्चों को पालने में व्यस्त रहते, चुगा देते। आते-जाते रहते। गांव की बनी में, खलिहानों में, मंदिरों में, जोहड़-सरोवरों पर लगे पेड़ों, बड़ी-बड़ी झाड़ियों में असंख्य चिड़ियां रहती थी। एक गौरैया हमारे लिए मात्र पक्षी नहीं थी। वो हमारे जीवन का हिस्सा रही है। घर के कीड़े-मकोड़े साफ कर देती थी। प्रकृति के संरक्षण के लिए, वनों, पेड़ों की वृद्धि के लिए, पेड़ों के बीज खाकर दूर तक फैलाने का कमाल का काम सदियों से करती आईं हैं। हम इतने पेड़ नहीं लगा पाते जितने ये पक्षी बीजों को फैलाने में अपना योगदान देते हैं। कुछ वर्ष पहले मैंने कहीं पढ़ा था अगर गौरैया की प्रजाति भी खत्म हो गई तो वनों को भी भारी नुकसान होगा। नए पौधे कम उगेंगे। किंतु आखिर गौरैया से हमारा रिश्ता टूटा क्यों ? वो हमसे क्यों रूठ गई है ? दरअसल इसके जिम्मेदार हम ही हैं। हम विकास की सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते रहे। दूसरे जानवरों की, पक्षियों की हमने कभी परवाह नहीं की। कच्चे मकानों की जगह, पक्के हो गए, आंगन भी हमने या तो खत्म कर दिए या फिर पथरीले बना दिए।

    आंगन के पेड़ गायब हो गए। घर में आले बनाने की परम्परा खत्म हो गई। लाखों में कोई एक-दो प्रकृति प्रेमी बनावटी घोंसले घर के अगले हिस्से में टांग देते हैं। उनमें से बहुत से घोंसले पक्षियों के अनुकूल नहीं होते या उनको पसंद नहीं आते या ऊंचाई पक्षियों की जरूरत के अनुसार नहीं होती। गौरैया को रहने, छुपने, अंडे देने या बच्चे पालने के अनुकूल जगह ना मिलने के कारण वो हमसे दूर हो गई है। बाहर के पेड़, झाड़ियां भी कम हो गई हैं। जंगल काट दिए गए। गर्मी अधिक बढ़ने लगी। फसलों पर अंधाधुंध जहरीला छिड़काव, मोबाइल टावरों की खतरनाक जानलेवा रेंज तथा पक्षियों के प्रति हमारी उदासीनता व लापरवाही ने गौरैया तथा अन्य बहुत से पक्षियों को खतरनाक स्थिति में पहुंचा दिया। दूसरी ओर उद्योगों, फैक्ट्रियों, अनियंत्रित वाहनों के प्रदूषण ने हवा को ज़हरीला बना कर उनके प्रजनन पर काफी असर डाला है।

    गौरैया की घटती हुई संख्या को देखते हुए इसके संरक्षण के उद्देश्य से पहली बार 2010 में गौरैया दिवस मनाया गया। इस समय करीब 60 फीसदी गौरैया की संख्या घट गई थी। उसके बाद से हर वर्ष 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाया जाता है। नेचर फॉरएवर सोसाइटी ऑफ इंडिया व फ्रांस की ईकोसेज एक्शन फाउंडेशन द्वारा की गई इस पहल में नासिक (महाराष्ट्र) में पर्यावरणविद मोहम्मद दिलावर का महत्वपूर्ण योगदान है। जिन्हें 2008 में हिरोज़ ऑफ एनवायरनमेंट पत्रिका में शामिल किया गया था। ब्रिटेन की रॉयल सोसाइटी ऑफ वाइस द्वारा विश्व के विभिन्न देशों में किए गए शोध के आधार पर भारत और कई बड़े देशों में गौरैया को रेड लिस्ट में डाल दिया था।

    यानी इससे लुप्त प्राय होने के कगार पर मान लिया गया। अनाज, हानिकारक कीड़े, फल, फलों के बीज खाने वाली, 15-16 सेंटीमीटर लंबी गौरैया की 46 प्रजातियां वैज्ञानिकों ने खोजी थी। जिनमें से अब कई प्रजातियां लुप्त हो चुकी है। हल्का भूरा, सफेद, काले धब्बों वाली गौरैया एंटार्कटिका महाद्वीप को छोड़कर लगभग सभी देशों में पाई जाती है। मौसम, जगह, वातावरण के हिसाब से रंग, आकार में थोड़ा बहुत अंतर आ जाता है। नर व मादा में भी थोड़ा फर्क होता है। समूहों में रहना पसंद करने वाली गौरैया एक बार में दो से चार अंडे देती है तथा 5 से 7 वर्ष तक जीवित रहती है तथा घोंसला बनाकर रहती है। ये अपना घोंसला घरों के आलों, दरारों, खोखली कड़ियों, मकान, झोंपड़ियों के छप्परों, गहरी झाड़ियों में बनाती है तथा हमारे आसपास रहना पसंद करती है इसलिए इसे घरेलू न हो कर भी घरेलू चिड़िया कहा जाता है तथा भोजन की तलाश में 25-30 किलोमीटर प्रति घंटे के हिसाब से मीलों का सफर भी कर लेती है। जरूरत पड़ने पर पानी पर भी तैर लेती है। इसका वजन 30 से 40 ग्राम तक ही होता है।

    पक्षियों के प्रति हमारी संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। हम केवल अपना ध्यान रखते हैं, पक्षियों का नहीं। हमने मां से सीखा था पक्षी भी हमारे अपने हैं। इन्हें दाना-चुग्गा देना चाहिए। धर्म होता है। धर्म कितना होता है, ये तो पता नहीं, पर पक्षियों को दाना डाल कर, रोटी के टूक डाल कर मन को जो शांति मिलती है वह धर्म से भी शायद बड़ी है। पक्षियों से जुड़ना जरूरी है। खेतों से, गांव से, कस्बों से, खासकर शहरों से जैसे बसंत गायब हो रहा है उसी तरह हमारे बीच से पक्षी भी गायब हो रहे हैं। पक्षियों के प्रति हमारा लगाव कम हो रहा है। पहले फसल काटते समय अगर कहीं किसी पक्षी का घोंसला दिखाई दे जाता था तो वह जगह उस पक्षी के लिए सुरक्षित छोड़ दी जाती थी। हाली हल जोतते समय अगर जमीन में टिटहरी, मोर या अन्य पक्षी के अंडे दिखाई देते तो उस जगह को जोतने या बोने से छोड़ देता था। किसान हरे पेड़ों को काटने से हिचकता था। बुजुर्ग कहते थे, कि छोटे पेड़ औलाद जैसे तथा बड़े पेड़ पिता समान होते हैं। अब तो हम जिस तरह देसी पेड़ों के, लताओं के नाम भूलने लगे हैं, उसी तरह पक्षियों के नाम भी भूलने लगे हैं। उनकी पहचान भूल रहे हैं। यही कारण है पक्षी हमसे रूठ गए हैं। हमसे दूर भाग गए हैं। पक्षी कम हो रहे हैं।

    गौरैया तथा अन्य पक्षी अब भी आ सकते हैं, बच सकते हैं। अब भी अपने हो सकते हैं अगर हम थोड़ा-सा बेहतर प्रयास करें तो। हम अपने आसपास ढेर सारे छोटे बड़े पेड़ लगाएं, फूलों के पौधे उगाए, उनके लिए पानी की व्यवस्था करें। बगीचों की संख्या बढ़ाएं। पेड़ ऐसे हों जिन पर वो घोंसले बना सकें, उन्हें फूल व फल मिल सकें, सघन छाया मिल सके। कुछ पेड़ पौधे झाड़ीनुमा हों, लताएं हों। घरों के बाहर आले हों, कुछ हम कृत्रिम घोंसले बनाकर भी टांग सकते हैं। सकोरों में पानी रख सकते हैं। उन्हें ऐसा माहौल दें कि वे सुरक्षित रहें, निडर रहें। दाना-चुग्गा का थोड़ा प्रबंध हो। फिर देखिए हमारे आसपास ढेर सारे पक्षी होंगे। उन पक्षियों में अपनापन होगा। हमें खुद तो इतना अच्छा लगेगा कि हम तनाव मुक्त होंगे।

    पक्षियों की चहचहाहट होगी। रंग-बिरंगे पक्षी आपका स्वागत करेंगे। आप के आस पास एक नई दुनिया होगी। नई खुशियां होंगी। छोटे बच्चों को सबसे ज्यादा अच्छा लगेगा। वो पक्षी हमारे परिवार का ही हिस्सा होंगे। ये भी सत्य है कि अगर पक्षी खत्म हो गए तो हमारा अपना जीवन उज्ज्वल नहीं है। पक्षियों की एक प्रजाति जब लुप्त होती है तो उसके साथ बहुत कुछ खत्म होता है। इसलिए पक्षियों को अपनाइए, बचाइए और प्रकृति को अपने ढंग से खिलने दीजिए। गौरैया के साथ अन्य पक्षियों को भी बचाइए। इन्हें बचाकर हम अपने आप को बचाने का काम करेंगे। वैसे ये अच्छी बात है कि पिछले कुछ वर्षों में गौरैया की संख्या में कुछ बढ़ोतरी हुई है। ये बढ़ोतरी जारी रहनी चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियों का भविष्य भी सुरक्षित हो सके।

    - 180-बी, मारवल सिटी, बरवाला रोड़,
    हिसार, हरियाणा

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