- नीरज कुमार मिश्र
भीष्म साहनी प्रेमचंद के बाद ऐसे कहानीकार हैं,जिनकी कहानियों में समाज का यथार्थरूप सामने आता है। इस बात को नामवर सिंह, के शब्दों में कहें तो,'मेरी कुछ ऐसी धारणा है कि अपने उपन्यासों की अपेक्षा भीष्मजी अपनी कहानियों के लिए ज्यादा याद किए जायेंगे। प्रेमचंद की तरह उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा कहानी विधा के लयात्मकता के साथ व्यक्त हुई है।'भीष्म साहनी अपने पात्रों के चरित्र के विकास की जद्दोजहद में नहीं लगते,क्योंकि उनके पात्र अपने चरित्र का विकास स्वयं ही करते हैं।
इसी बात की ओर विष्णु प्रभाकर संकेत करते हैं कि 'भीष्म साहनी कहीं भी चरित्र के विकास के लिए प्रयास नहीं करते,वस्तुत: महान चरित्र वही होता है,जो अपने आप आगे बढ़ जाता है'।कहानी की रचना-प्रक्रिया के माध्यम से उन्होंने अपनी कहानियों के प्रारूप और तत्त्वों पर गहन पड़ताल की है।एक साक्षात्कार में भीष्म साहनी ने कहानी की रचना-प्रक्रिया को स्पष्ट किया है,'कहानी लिखते समय हम स्थितियों-घटनाओं को तो वास्तविक जीवन से अक्सर उठाते हैं,साथ ही साथ पात्रों को भी उठाते हैं।जहाँ कोई स्थिति कहानी में पनपने,अपना स्वरूप और आकार ग्रहण करने लगती है,कल्पना के द्वारा की जाने वाली जोड़-तोड़ के साथ पात्रों वहाँ पात्र भी अपना स्वरूप,चरित्र और व्यक्त्तित्व ग्रहण करने लगता है।यों तो यह कहना सरलीकरण होगा कि हम किसी स्थिति और घटना को जीवन से उठाते हैं,घटना उस सक्रिय पात्र के साथ जुड़कर ही हमारा ध्यान आकृष्ट करती है।पात्र काल्पनिक अथवा अमूर्त नहीं होता।जो विसंगति किसी स्थिति विशेष में पाई जाती है।इस तरह पात्र की ओर ध्यान अधिक जाता है'। इसीलिए भीष्म साहनी के पात्र पाठक को इतने आत्मीय प्रतीत होने लगते हैं कि पाठक स्वयं उसमें जीवंत हो उठता है।
'चीफ की दावत' भीष्म साहनी की सबसे चर्चित कहानियों में से एक है,जिसमें मध्यवर्ग के अंतर्विरोध का बहुत बारीकी से अंकन किया गया है।आजादी के बाद मध्यवर्गीय जीवन ने विकास के जिन सोपानों को पार करते हुए अपनी मानसिकता विकसित की है।मध्यवर्ग की उसी विकसित मानसिकता की विड़म्बना को 'चीफ की दावत' में उद्घाटित किया गया है। यह कहानी प्रारम्भ से अंत तक अंतर्विरोधों से जूझती नज़र आती है, इस कहानी में नए रिश्तों के बनने के एवज में पुराने रिश्ते तेजी से बिखरते दिखाई देते हैं। खुद लेखक के अनुसार यह कहानी बदलते हुए समय में माँ की स्थिति को उजागर करने वाली कहानी है,'यूं तो वृद्धावस्था की असहायता और पीडा के केंद्र में प्रेमचंद बहुत पहले 'बूढी काकी' रच चुके थे।बाद में ऊषा प्रियंवदा ने वृद्धावस्था की संवेदना के तार से 'वापसी' गढ़ी।लेकिन 'चीफ की दावत' से हिंदी कहानी के अंतर्गत समाज के करियरिज्म के प्रभाव की शुरूआत मानी जा सकती है'।
आधुनिकता के दौर में पैसे और पद की लोलुपता के दबाव में मनुष्य परम्परागत मूल्यों और संबंधों को दरकिनार करता जाता है।पूँजीवाद ने मनुष्य की मानसिकता को किस कदर कुंद कर दिया है कि वह अपने तरक्की के लिए अपनी बूढी माँ की परवाह नहीं करता।
'चीफ की दावत' में शामनाथ के घर उसके चीफ के साथ कुछ मेहमान दावत पर आ रहे हैं।यह उसके लिए बडे सौभाग्य की बात है।वह जानता है कि यदि साहब प्रसन्न रहेंगे,तभी उसको पद और पैसों में उन्नति होगी।इसीलिए पति-पत्नी घर को इस तरह संवारने में लगे हैं,जैसे कोई उत्सव मनाया जाना हो।फालतू का सामान को हटाकर पूरे घर को सलीके से सजाने के बाद शामनाथ का ध्यान अपनी बूढी माँ पर गया।वह पत्नी से कहता है, 'माँ का क्या होगा?' शहर के मध्यवर्गीय जीवन में पूँजीवाद व्यवस्था और उससे उत्पन्न आधुनिकता बोध के कारण जो विकृतियाँ और विसंगतियाँ आ रही हैं,उक्त कथन उसी का जीता जागता उदाहरण है।अपनी पदोन्नति की आस में अंधा शामनाथ पूरी कोशिश में रहता है कि उसकी माँ चीफ के सामने न आये,तभी तो माँ को हिदायत देते हुए कहता है,'माँ,हम लोग पहली बैठक में बैठेंगे।उतनी देर तुम यहाँ बरामदे में बैठना।फिर जब हम यहाँ आ जाए,तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना'। बेटे की तरक्की की राह में कोई भी माँ रोडा नहीं बनना चाहती,इसीलिए उसकी हर बात में हाँ करती जाती है।
जो माँ अपना सब कुछ बच्चों के भविष्य के लिए बलिदान कर देती है।समय बदलने के साथ उन्हीं बच्चों के लिए फालतू की वस्तु बनकर रह जाती है।शामनाथ अपनी माँ से सफेद कमीज और सलवार के साथ गहने पहनने की बात करता है।माँ ने उसे याद दिलाया कि गहने तो उसकी पढ़ाई में बिक गए।कोई भी स्वार्थी बेटा,जिसे अपनी माँ के त्याग और संघर्ष का भान न हो,वह शामनाथ की तरह ही तिलमिला उठेगा,'यह कौन सा राग छेड़ दिया,माँ!सीधा कह दो,नहीं हैं जेवर बस ! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या ताल्लुक? जो जेवर बिका,तो कुछ बनकर ही आया हूँ,निरा लँडूरा तो नहीं लौटा।जितना दिया था उससे दुगुना ले लेना'। लेकिन सवाल ये है कि शामनाथ ने अपनी माँ को उसके त्याग एवं संघर्ष के एवज़ में दुगुना क्या दिया? सिवाय तिरस्कार अपमान और अवहेलना के।मेहमान के सामने उसकी माँ केवल उपहास की पात्र बनकर रह जाती है।जब चीफ ने माँ से पूछा, 'हाऊ डू यू डू?' शामनाथ ने उन्हीं अंग्रेजी शब्दों को दोहराने का आदेश दिया।माँ को तो बेटे की हर बात माननी थी,वह बोली, 'हौ डू डू'। यह सुनकर सब हँसने लगे।उसे अंदर तक गहरी चोट लगी थी।अंदर कुछ बिखर सा गया था,जिसे वह चाहकर भी संभाल नहीं पा रही थी।चीफ की दिलचस्पी माँ की तरफ देख,शामनाथ माँ की तारीफ करने लगा,क्योंकि माँ उसकी तरक्की का माध्यम जो बन रही थी।माँ के हाथ की बनी फुलकारी बेटे की तरक्की की सीढ़ी चढ़ने का माध्यम बनती है।
यह कहानी पदोन्नति की होड़ में अंधे हो चुके मध्यवर्गीय व्यक्ति की प्रदर्शनप्रियता,महत्त्वाकांक्षा,अपनी माँ की ममता को तार-तार करने वाले और पश्चिमी सभ्यता की चकाचौध में चौंधियाए व्यक्ति की मानसिकता का पर्दाफाश करती है।इस कहानी में आधुनिकता और सुसंस्कृति का पाखण्ड़ के साथ-साथ पारिवारिक जीवन मूल्यों का विघटन,बूढ़ों की दुर्दशा आदि अनेक समस्याओं को अत्यंत संवेदनशीलता के साथ चित्रित भी किया गया है।यह कहानी आज के समय की सबसे बड़ी सच्चाई से हमें रूबरू करवाती है कि आज बाज़ारवाद के दौर में सब बाज़ारमय हो गया है।माँ-बेटे का निश्चल संबंध भी इस पूँजीवादी मानसिकता के चपेट में आ गया है।बेटे को माँ तभी तक अच्छी लगती है जब तक वो तरक्की की सीढ़ी होती है। बाहर से सभ्य,सुसंस्कृत दिखने वाला हमारा मध्यवर्गीय समाज अंदर से खोखला,पिलपिला और संवेदनहीन होने के बावजूद अपने परम्परागत मूल्यों और संबंधों को होने का नाटक करता है। कृष्णा सोबती इनकी कहानियों में आये मध्यवर्ग के इसी चरित्र को रेखांकित करती हैं।वह लिखती हैं कि 'भीष्म मध्यवर्ग की खरोंचें,जख्म,उसके दर्द और उसके ऊपरी खोल को छू-छूकर,अपने को उस भीड़ से अलग खड़ा कर लेते हैं और नए सिरे से अपनी पुरानी चिर-परिचित जमीन में उन्हें अंकित करने का निर्णय कर डालते हैं।हशमत इतना जरूर कहना चाहेंगे कि जिस मध्यवर्गीय खोखलेपन को भीष्म का लेखन उघाड़ता है,उसे देखने की आंख भी उसे उसी वर्ग से मिली है।'
नई कहानी समाज के जिन जटिल और ज्वलंत प्रश्नों से टकराती है,उसकी अभिव्यक्ति के शिल्प को कथ्य के अनुरूप होना चाहिए।कोई शिल्प तभी श्रेष्ठ माना जाता है,जब लेखक समाज के मनोभावों को उतनी ही तीव्रता से पाठकों के सामने लाये,जितनी तीव्रता से लेखक ने अनुभव किया हो।भीष्म साहनी की कहानियों में शिल्प उनके कथ्य पर हावी नहीं होता क्योंकि उनका कथन जितना सघन है,उतना ही शिल्प सशक्त।लेखक की संवेदना और जीवन-विवेक को पाठक के जोड़ने में इनकी कहानियाँ सफल रही हैं।ये कहानियाँ पाठक के ह्रदय तक पहुँचती ही नहीं बल्कि वह उसे अपनी कहानी लगने लगती हैं।कहानी के संवाद शब्दों की शिल्पकारी के साथ लेखक की मर्मस्पर्शी शैली को भी प्रकट करते हैं।उन्होंने भाषा को पात्रानुरूप ही रचा है।उनकी कहानियों में जैसे-जैसे कहानी का विकास होता जाता है,वैसे वैसे भाषा भी निरंतर विकसित होती जाती है।यही वजह है कि भीष्म साहनी की भाषा बहुत सादगी के साथ सधी हुई शैली में नए प्रतिमान गढ़ती प्रतीत होती है।
नामवरसिंह भीष्म साहनी की कहानी कला की इन विशेषताओं की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं कि 'सादगी और सहजता भीष्म साहनी की कहानी कला की ऐसी खूबियाँ हैं,जो प्रेमचंद के अलावा और कहीं नहीं दिखाई देती है।जीवन की विड़ंबनापूर्ण स्थितियों की पहचान भी भीष्म साहनी में अप्रतिम है। यह विड़ंबना उनकी अनेक अच्छी कहानियों की जान है।
वस्तुत: भीष्म साहनी उन कहानीकारों में हैं जिन्होंने कथा-साहित्य की जड़ता को तोड़ा नहीं बल्कि,उसे ठोस सामाजिक आधार देकर एक महत्त्वपूर्ण कार्य भी किया है।सामाजिक विसंगतियों, संकीर्णताओं आदि से निराशा और पलायनवादी रुख के स्थान पर,उन कारणों को सामने लाना जरूरी समझा,जो इन सबकी जड़ में है।स्वाधीनता आंदोलन,स्वतंत्रता की प्राप्ति,साम्प्रदायिक दंगे,विदेशी आक्रमण,पूँजीवादी शिकंजा,गड़बड़ाते जीवन-मूल्य, वर्ग-घृणा का फैलाव,अफसरशाही,दोगली राजनीति,सस्ती नेतागिरी हमारे इतिहास के हिस्से हैं।इन तमाम त्रासदियों के अंत:-सूत्र की पहचान सही लेखन के लिए जरूरी शर्त है और भीष्म साहनी का लेखन इस शर्त को पूरा करता है'।
अंत में बच्चन सिंह के शब्दों में कहें भीष्म साहनी की 'चीफ की दावत' स्वतंत्र भारत की औपनिवेशिक प्रवृत्ति का अवशिष्ट है,जो आज भी खत्म नहीं हो रहा है।
मो. 9968323683