पुनर्वापसी 

दुनिया जहान में कोरोना महाकाल प्रारंभ हो चुका था इसके साथ ही देश को महाबंदी के जंजीर में जकड़ दिया  गया। सब कुछ अनिश्चित काल तक के लिए बंद हो गया सरदार बलवंत सिंह की फैक्ट्री भी

देशबन्धु
Updated on : 2021-01-17 01:40:24

- अशोक कुमार प्रजापति

दुनिया जहान में कोरोना महाकाल प्रारंभ हो चुका था इसके साथ ही देश को महाबंदी के जंजीर में जकड़ दिया गया। सब कुछ अनिश्चित काल तक के लिए बंद हो गया सरदार बलवंत सिंह की फैक्ट्री भी।

होली बाद अभी पिछले हफ्ते ही तो बालेश्वर चंद्र उर्फ बलचनमा भेड़ बकरियों की तरह ट्रेन में ठूंस कर खाली हाथ जालंधर पहुंचा था। अभी बुशर्ट से होली का पकिया रंग तक नहीं छूटा था काम करते चार दिन हुए थे। पगार मिली नहीं थी सो अपने इलाके वाले हेड मिस्त्री से दो हजार सूद पर लेकर घर गृहस्थी शुरु की थी अचानक देश के प्रधान सेवक की घोषणा से चारों ओर हडबाग मच गई, एक सप्ताह किसी तरह गुजरा सरदार तो घोषणा के चंद मिनटों बाद ही अपनी मर्सिडीज से चंडीगढ़ को निकल गए।

मकान मालिक किराये के लिए तगादा करने लगा मजबूर मजदूर अपने अपने राज्यों की ओर पैदल पलायन करने लगे दिन पर दिन कोरोना का कहर बढ़ने लगा. स्थिति दिनों दिन बिगड़ती जा रही थी लोग महामारी से स्पेनिश फ्लू की तरह मरने लगे।

जेब में फकत पांच सौ के नोट बचे थे, सभी मजदूर अपने-अपने घरों को निकल चुके थे। शहरों में वीरानगी छाने लगी. रोज-रोज के समाचार से बलचनमा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। अब तो मकान मालिक कमरा खाली करने के लिए दबाव बनाने लगा था और उस पर रात-दिन निगाह रखने लगा कि कहीं रात में बिना किराया चुकाये वो भाग न जाए। बलचनमा गरीब जरुर था पर बेईमान नहीं उसने पत्नी की चेन औने पौने दाम पर बेची और मुहल्ले के मंदिर में कोरोना से थरथर कांपते पत्थर के टुकड़े (देवता) के सामने अपने दोनों कान पकड़कर अब कभी जालंधर न आने की कसम खाई और चैत की एक रात को बच्ची को कंधे पर बैठाए पत्नी को साथ लिए पैदल ही गांव की ओर चल पड़ा अहर्निश केवल चलता ही रहा।

दयालु लोगों के दिये रुखे सूखे भोजन के सहारे वह कभी सड़क तो कभी पगडंडी से चलकर यूपी के बार्डर तक पहुंचा। चलते-चलते पांव में छाले पड़ गये और चैत से बैसाख आ गया। लू अपनी चरम सीमा पर था। किसी तरह वह गांव पहुंचा लेकिन अपनी मासूम बेटी को बेरहम दुनिया की दुश्वारियों से बचा न सका। वह भीषण गर्मी की भेंट चढ़ गई। चौदह दिन तक गांव के कोरोना केंद्र में कोरोना निगेटिव की अग्नि परीक्षा देकर लूटा पाटी बलचनमा दंपती अपनी झोपड़ी में पहुंचे। घर में अनाज का एक दाना तक न था. खैराती अनाज और वोट पाने के लोभ में मिले पांच रुपये एक सप्ताह भी नहीं चले। सरकार सभी लौटे प्रवासियों के रोजगार की गारंटी की गाल बजाती पर हकीकत कुछ तो और ही थी। सब महज वोट बैंक का चक्कर साबित हुआ।

दो जून की रोटी के जुगाड़ और इलाज में पांच हजार का कर्ज चढ़ चुका था। गांव का पचकौड़ी मोदी अब और एक पैसा देने को तैयार नहीं हुआ। भूखों मरने की नौबत आ गई। अपना तो एक धूर बैरन जमीन तक न था रबी फसलों के कटनी के दिन भी बीत चुके थे सो खेत में मजदूरी की आशा नहीं थी।

उधार पैंचा से किसी तरह एक शाम माड़ भात खाकर दिन कट रहे थे. दस बारह दिन के लिए मनरेगा में काम का प्रस्ताव आया पर पैर के छालों ने यह भी न करने दिया। पत्नी सुभद्रा तो अभी भी दस कदम चलने लायक नहीं थी इधर लाक डाउन टूटने की शुरुआत हो गई थी आम और जामुन पकने लगे, एक बगीचा रखवाली पर लेकर वह आम अगोरने का काम करने लगा सड़ी हुई गरमी के दिन रात बगीचे के मचान पर कटते।

आम के खरीदार नहीं थे सो पक कर टपके आम उसके परिवार को खूब मिलते। आषाढ़ के शुरुआती दिन थे, बलचनमा अभी डंडे के सहारे चल फिर ले रहा था। सुभद्रा भी अब चार रोटियां सेंकने भर स्वस्थ हो गयी थी. वह मचान पर बैठा सरकारी अस्पताल से मिला मरहम छालों पर लगा ही रहा था कि महीनों बाद मोबाइल कूका। फैक्ट्री के मैनेजर खन्ना साहब थे - बागेश्वर चंद्र जी फैक्ट्री चालू हो गया है जी।

सरदार जी ने पगार दुगुनी कर दी है और रहने को टाइल्स लगे कमरे और तीन महीने का राशन पानी एकदम फ्री, एक महीने की पगार एडवांस में, ताकि आप लोगों के परिवार को कोई कष्ट न हो जी। कल रात पंजाब से आप लोगों को लेने एक एसी बस सुपौल गयी है आज रात लौटेगी आप सहमति दें तो मुंशी आप के खाते में एडवांस ट्रांसफर कर देगा और शाम तक उसके खाते में एडवांस एकमुश्त अठारह हजार पहुंच गये।

सुपौल जाने के लिए उसने करीम भाई की टेम्पो भाड़े पर ठीक की और अपनी जालंधर वाली कसम कोरोना माई के हवाले कर फिर उसी शहर में जाने की तैयारी करने लगा।

बिना जाब (मास्क) लगाये बाजार में मत निकलना साबुन से लगातार हाथ धोते रहना और अबकी होली में लौटते वक्त बैदेही के लिए तिपहिया जरुर लेते आना, मकई का भूंजा झोला में सहेजती सुभद्रा ने हिदायत दी। लेकिन अगले ही पल बैदेही के अब न होने की याद आते ही दोनों जोर जोर से रोने लगे।

बाढ़ आने के पहले अपने मायके समस्तीपुर चली जाना, बलचनमा अपनी पत्नी को ताकीद कर लंगराता हुआ टेम्पो में बैठ गया. सुभद्रा आषाढ़ की अंधेरी रात में जाती हुई टेम्पो की दो लाल आंखों को नव निर्मित कोरोना मंदिर की ओट में जाने तक देखती रही।