- शुभदा मिश्र
कैसी रही मेरी यात्रा। क्या बताउं सर आपको। नहीं, आने जाने में, ट्रेन में ऐसी कोई दिक्कत नहीं हुई। जो दिक्कत हुई रमेन्द्र के कारण। इतना बिगड़ैल रहा उसका दिमाग कि क्या बताउं। मैं जानता था कि उसका दिमाग ठीक नहीं रहता है। मगर मुझे उसे साथ ले जाना जरूरी लगा। दरअसल रमेन्द्र और मै,ं दोनों ही प्रभात के बचपन के दोस्त हैं। इसीसे जब मुझे पता चला कि प्रभात बहुत बीमार हेै तो मैंने रमेन्द्र को बताया। हम दोनों प्रभात के घर गए। वहाँ पता चला कि प्रभात को तो नागपुर ले गए हैं।
इमरजेंसी वार्ड में भरती हेै वह। क्यों अचानक ले गए । क्या हो गया था उसे, किस अस्पताल में भरती है, घर में कोई ठीक से बता न पाए। प्रभात के प्रति घर वालों का रवैया ठीक नहीं रहता , यह तो मैं जानता था पर इतना ठंडापन। खैर इतना तो पता चला कि अस्पताल में उसकी पत्नी औेर साला उसके साथ हैं। मैं तो जानता था कि पत्नी से भी उसकी खास नहीं जमती। ऐसी स्थिति में मैं प्रभात से मिलने के लिए बेचैन हो उठा।
बैचैन तो खैर रमेन्द्र भी हो उठा। मगर नागपुर में प्रभात किस अस्पताल में भरती है, पता कैसे चले। प्रभात का फोन नंबर है मेरे पास। पर वह बेचारा तो इमरजेंसी वार्ड मैं है। उसकी पत्नी का फोन नंबर मालूम नहीं। कैसे करें। पता चला उसकी पत्नी की एक सहेली हैं सरला जी। उनसे मिले हम। फोन नंबर लिया। बात की। अस्पताल का नाम तो उन्होंने बताया पर बोली...क्या हुआ है डाँक्टर ठीक से नहीं बता रहे हैं। किसी से मिलने जुलने भी नहीं दे रहे हैं। उनको अभी चेत भी नहीं है। खिड़की से उसे अचेत पड़े देख लेते हैं। बस।
रमेन्द्र कहने लगा...बेकार है अभी जाना, जब मिलने जुलने ही नहीं दे रहे हैं। जब मिलने जुलने की इजाजत मिल जायेगी, तब जायेंगे। मैंने रमेन्द्र को मनाया...देख रमेन्द्र भाई। भले हम उससे मिल नहीं पायेंगे पर जब उसे पता चलेगा कि उससे मिलने उसके प्यारे दोस्त गजेन्द्र और रमेन्द्र उससे मिलने आये थे तो उसे बहुत अच्छा लगेगा। यह उसके लिए टॉनिक का काम करेगा। हमारे सिवाय उसका अंतरंग है कौन। फिर हम उसे खिड़की के शीशे से तो देख सकेंगे। अगर उसे होश आ गया हो तो नमस्कार कर सकते हैं। हाथ हिला सकते हैं। अपना प्यार अभिव्यक्त कर सकते हैं। देखकर उसे कितना अच्छा लगेगा।
रमेन्द्र राजी हो गया।
मैं रात वाली शिवनाथ एक्सप्रेस से जाना चाहता था। रमेन्द्र सुबह वाली पैसेंजर से। मैं समझ रहा था, रमेन्द्र इन दिनों ट्यूशन करके गुजारा करता है। बेहद कड़की में है। एक्सप्रेस का किराया भारी पड़ेगा, इसलिए पसंद नहीं कर रहा है। सो मैंने उसे बहुत समझाया... देख रमेन्द्र भाई, शिवनाथ यहाँ से रात बारह बजे चलती है। सुबह तड़के हम नागपुर पहुँच जायेंगे। सीधे प्रभात के अस्पताल चले जायेंगे। प्रभात से मिलकर शाम की गाड़ी से लौट आयेंगे। वह पैसेंजर पर जोर देता रहा। बहुत समझाने के बाद राजी हुआ...तू तो बस अपनी ही चलाता हेै।
शिवनाथ रात बारह बजे यहाँ से छूटती है। मैं ठीक ग्यारह बजे अपनी बाईक पर रमेन्द्र के घर पहुँच गया। कुछ झुंझलाते हुए सा रमेन्द्र तैेयार हुआ। स्टेशन पहुँचते ही मैंने बाईक पार्क की और टिकट खिड़की की ओर दौड़ा। टिकट लेकर आया तो रमेन्द्र का मुँह फूला था। बोला...तू तो अपना बड़प्पन दिखाने का मौका नहीं छोड़ता। उसकी बात को क्या ध्यान देता। मगर रमेन्द्र तो मुझे छोलने पर तुला रहता है। ट्रेन आई। भीतर घुसे। हमें अलग अलग सीट मिली। रमेन्द्र हाथ बांधे मुँह फुलाए सा चुपचाप बैठा रहा। मैं अपने सहयात्री से बतियाता रहा। सुबह उतरे तो रमेन्द्र बोला... इतना जमा रहा था उस यात्री पर। अजनबी पर इतना जमाने से क्या फायदा हुआ तुझे।
पुरुष विश्रामालय में नहा धोकर फ्रेश हो लिये हम। स्टेशन से बाहर आए। एक ठेलेवाला गरम गरम इडली बना रहा था। वहीं बेंच पर बैठकर हमने इडली खायी। चाय पीं। मैंने पैसा पटाया। बस रमेन्द्र का मुँह फूल गया... तू हमेशा मुझे डाउन करने के चक्कर में रहता है।
मैं मनाता रहा....ठीक है रमेन्द्र भाई, अब आगे तू पटा देना। सामने सड़क पर आते जाते आटो को हम देखने लगे। मैंने एक आटो को रोका और अस्पताल का पता बता कर चलने कहा। बैठने लगा तो रमेन्द्र एकदम भड़कने लगा...पहले भाड़ा तय करना था। दो चार और आटो वालों से पूछ लेना था। मगर तेरे सिर में तो नवाबी सवार रहती है। अपनी नवाबी मुझे मत दिखाये कर। आटो में बैठे बैठे भी बड़बड़ाता रहा... बार बार उतर कर क्या पता पूछता रहता है। यह काम आटो वाले का है। जब पहुँचाने का जिम्मा लिया है तो करे पता।
अस्पताल पहुँच कर मैं उतर कर एक ओर खड़ा हो गया। ठीक है, इस बार रमेन्द्र ही पटाये भाड़ा। मगर यह क्या। भाड़ा हुआ था अढ़ाई सौ रुपये। रमेद्र अपने पर्स से निकाल पा रहा था.सौ का एक नोट और दस दस के कुछ नोट। वह बार बार अपनी दूसरी जेबें टटोलने लगा। मुझसे देख न गया। मैंने उसके हाथ से नोट लिए और बाकी पैसे मिलाकर आटोवाले को दे दिए। रमेन्द्र इस बार कुछ बोला नहीं मगर उसका चेहरा इतना आहत था कि मेरा मुँह नोच लेता। मुझे स्वयं अपने पर ग्लानि हुई... इडली वाले का पैसा काफी कम था। मुझे रमेन्द्र को वही पटाने देना था।
हम अस्पताल के भीतर गए। आपातकालीन विभाग में पहुँचकर हम प्रभात के बारे में पता करने लगे। पता चला, प्रभात को भीतर किसी अलग कक्ष में रखा गया है जहाँ हम बिल्कुल भी नहीं जा सकते। बाहर से देख भी नहीं सकते। उसकी सेवा में उसके कोई रिश्तेदार हैं जो थोड़ी देर पहले कहीं गए हैं। मैं समझ गया, प्रभात का साला ही होगा। इधर उधर घूम कर मैं उसे खोजने लगा। रमेन्द्र एकदम चिढ़ गया... इतने बड़े अस्पताल में कहाँ ढूंढता फिरेगा। यहीं बैठकर इंतजार करते हैं। कहीं भी गया हो, आयेगा तो यहीं।
रमेन्द्र आपातकालीन विभाग के सामने पड़ी बेंच पर बैठ बड़बड़ाता रहा....मरीज को अकेले छोड़कर गायब है। यही सेवा है। मैं टहलता थोड़ी थोड़ी दूर जाकर देख आता। आखिर प्रभात का साला आता दिखा। मैं उसकी तरफ लपका। रमेन्द्र भी आ गया। साला बताने लगा...डॉक्टर अभी भी कुछ ठीक से बता नहीं रहे हैं। कब तक रुकना पड़ेगा ,कुछ पता नहीं। प्रभात अभी तक केामा में ही है। बाहर से भी नहीं देख सकते। सारी सेवा डॉक्टर, नर्स और यहाँ के कर्मचारी ही कर रहे हैं। हमें तो इजाजत ही नहीं है।
बस मैं और दीदी आते जाते रहते हैं। डॉक्टर, नर्से जो लाने कहें, ला देते हैं। बात करते करते कंधे पर हाथ रखकर वह मुझे एक तरफ ले गया और कहने लगा...कैसे इनके घर के लोग हैं। न बाप देखने आया, न भाई। रुपये पैसे से मदद नहीं कर सकते हो तो अटेंड तो कर सकते हो। वह भी नहीं।
प्रभात को देख तो सकते नहीं थे। डॉक्टरों से मिलकर कुछ पता भी नहीं कर सकते थे क्योंकि डॉक्टर अपने राउन्ड के समय ही आते थे। भरे दिल से हम लौटने लगे। रास्ते भर रमेन्द्र का मूड खराब रहा....इसलिये हम लोग यहाँ आये थे। प्रभात के साले से मिलने। वह साला भी ऐसा कि मुझसे ही परहेज कर रहा था। तुझे अलग ले जाकर बात कर रहा था। तू कह नहीं सकता था, ये भी प्रभात का अंतरंग मित्र हैं। मगर तुझे तो अपना महत्व दिखाना था।
ले रमेन्द्र भाई, माफ कर दे। मुझे ध्यान नहीं रहा..... मैं उसे हमेशा की तरह मनाने लगा...अभी तो अपनी गाड़ी में काफी समय है। अपना एक मित्र है यहाँ, रोहन। याद है न तुझे। कहाँ काम करता है सो तो मुझे ठीक से याद नहीं, मगर उसका फोन नंबर मेरे पास हेै। चलो उससे मिल लेते हैं। बहुत खुश होगा हम लोगों को देखकर। स्कूल में तेरी तो कुछ ज्यादा ही दोस्ती थी उससे।
एकदम उखड़ गया रमेन्द्र.....नहीं मिलना है मुझे किसी से। मैं तो प्रभात से मिलने भी न आता। मगर बहुत बीमार है, सोचकर आ गया। तुझे पता है मैं किसी से मिलना जुलना पसंद नहीं करता, तब भी तू मुझे जहाँ तहाँ ले जाने के लिए घसीटता रहता है।
अच्छा चल पिक्चर चलते हैं।
तू जानता है, मैं पिक्चर नहीं देखता।
एकदम देशभक्ति वाली फिल्म है रमेन्द्र भाई। मैं जानता हूँ तू देशभक्ति वाली फिल्म बहुत पसंद करता है।
पसंद करता था। अब नहीं। दिखाया जाता है, रग रग में देशभक्ति से ओतप्रोत नायक। घर बार प्रेमिका सब कुछ त्याग कर देश के लिए बलिदान होने निकल पड़ता है।
महिमामयी माता तिलक लगाकर आरती उतारकर विदा कर रही है। हम हैं ऐसे? ऐसा है हमारा घर? हमारा परिवार? हम घोंचू एक मामूली सी नौकरी के लिए दर दर भटकते, घिघियाते, अपना जमीर बेचते जीव। घर के लोग हमारी नौकरी, हमारी कमाई हो तो हमारी इज्जत करें। नहीं तो हम जैसे इन्सान ही नहीं । इसीलिए देशभक्ति की पिक्चर देखकर मैं अपने देशभक्त होने का भ्रम नहीं पालता। अपनी औकात में रहता हूँ।
उसकी बड़बड़ाहट झेलते, पैदल चलते हम उस मोड़ पर पहुँचे जहाँ कुछ आटो वाले सवारियों को सीधे स्टेशन ले जा रहे थे। ठसाठस भरा आटो, पर भाड़ा बहुत कम। हम उसी से स्टेशन पहुँचे। कई होटल दिखे। मैं डरते डरते बोला... रमेन्द्र भाई घर पहुँचते पहुँचते तो काफी रात हो जायेगी। चलो खाना खा लेते हैं। उसने एकदम खारिज कर दिया....मुझे होटल का खाना नहीं जमता। मैं घर पहुँच कर ही खाउंगा। तुझे भूख लगी है, तू खा ले।
प्लेटफॉर्म में बैठने के लिए उसे कोई जगह जंचे ही नहीं। आखिर एक बेंच पर बैठे हम। मेरे बैग में पानी की बोतल और बिस्कुट के एक दो पैकेट थे। मगर न वह बिस्कुट खाए न पानी पिये। झिड़क दिया...मैं बीच बीच में कुछ कुछ खाककर अपनी भूख नहीं जगाता। मैं स्टेशन के सार्वजनिक नल से पानी पीता हूँ। तू अपनी बोतल से पीता रह।
अपने शहर पहुँचते ही उसने तो हद कर दी। मैं ट्रेन से उतरकर अपनी बाईक निकालने पार्किंग स्थल की ओर गया। बाईक निकालकर आया और उसे खोजने लगा तो देखता क्या हूँ....अँधेरे में वह पैदल चला जा रहा है। सांय सांय। तेज और तेज। मैं बाईक दौड़ाता पहुँचा उसके पास...चल बैठ। पागलपन मत कर। इतनी दूर तेरा घर। रास्ते में खतरनाक कुत्ते। बौराये जानवर। बहादुर चला जा रहा है, जैसे लाम पर जा रहा हो।
मैं क्या बताउं , आधी रात में सड़क पर मुझसे इतना लड़ा। भर्राया गला। आहत आँखे...तू कृपा करके मुझे मेरे हाल पर छोड़ दे।
क्या बोले सर आप....छोड़ ही देना चाहिए ऐसे बद्दिमाग, बदजबान, बदतमीज आदमी को जिसे दूसरों की भावनाओं का जरा खयाल नहीं। कैसी बात कर रहे हैं सर आप। उसके सारे दोस्त तो उसे छोड़ ही चुके हैं। घर में उसकी स्थिति बेहद अपमानजनक। हमेशा सोचता रहता है, कोई छोटी मोटी नौकरी मिल जाये तो निकल भागूं। नौकरी के लिए कहाँ कहाँ नहीं भटक रहा है। पिछले दिनो रेल्वे में जूनियर इंजीनियर की नौकरी के लिए उतनी दूर सिलीगुड़ी गया था टेस्ट देने। पटवारी की नौकरी के लिए पिछले महीने दुर्ग गया था। शिक्षक की नौकरी के लिए घोर नक्सली इलाके में। और अभी अभी चपरासी की नौकरी के लिये अपने नगरपालिका में। एक एक इंटरव्यू के लिए घंटो तैयारी करता है।
ज्योतिष तांत्रिक, पूजा पाठ, जप तप, गंडा ताबीज सब करता है। इन सब के लिए कैसे कैसे पैसे का जुगड़ करता है, सुनकर आपका कलेजा फट जायेगा। इधर ट्यूशन करके गुजारा कर रहा था तो प्रतिद्वंदी ट्यूशन वालों ने तिकड़म करके उसके सारे छात्र फोड़ लिये। उसके सारे पोस्टर रातों रात फाड़ डाले। मगर हिम्मत नहीं हारता वह। इंटरव्यू देता रहता हेै। दिनभर पढ़ता रहता है। सब उसे प्रतिभाहीन, भाग्यहीन सनकी समझते हैं। दोस्त तक खोज खोजकर उसके खोट निकालते हैं। मजाक बनाते हैं। ऐसे में मैं उसे कैसे छोड़ दूं सर। नहीं, पहले ऐसा बदजबान सनकी सा नहीं था सर वह। लेकिन जब एक एक करके उसके सारे दोस्तों की नौकरी लग गई। मेरी भी। हम लोगों की तरक्की भी होने लगी। बस वह संभाल नहीं पाया खुद को। वैसे तो वह बहुत हिम्मती है। फिर भी मुझे कई बार डर लगता है, वह आत्महत्या मत कर ले। नहीं मैं उसे नहीं छोड़ सकता सर। कदापि नहीं। क्या आपका कोई दोस्त क्रूर परिस्थितियों से निरंतर पछाड़ खाता विक्षिप्त सा हो, आपको ही उल्टी सीधी सुनाने लगे तो क्या आप उसे छोड़ देंगे।