• भारत-जर्मन संबंधों पर आधारित फिल्म 'द साउंड आफ फे्रंडशिप..'

    भारत व रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल के रिश्तों पर आधारित फिल्म 'द साउंड ऑफ फ्रेंडशिप..' के मुख्य किरदार अरविन्द श्रीवास्तव से एक साक्षात्कार

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    - शहंशाह आलम

    समकालीन कविता के महत्वपूर्ण कवि अरविन्द श्रीवास्तव से मुलाकात और बातचीत इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि 19 अक्टूबर को बर्लिन स्थित प्रसारण भवन 'फंखाउस' में भारत-जर्मन मित्रता और रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल का भारत से रिश्तों पर बनी फिल्म द साउंड ऑफ फ्रेंडशिप: वार्म वेवलेंथ इन ए कोल्ड, कोल्ड वॉर  की स्क्रिनिंग हुई,  यह फिल्म अरविन्द श्रीवास्तव के अस्सी के दशक के कार्यकलापों पर केंद्रित है, कहा जाय तो वे इस फ़िल्म मुख्य किरदार ही नहीं, फिल्म की धड़कन भी हैं। यह सुधि पाठकों के लिए रुचिकर सह गर्व का विषय हो सकता है। 

    जर्मनी में आपकी रचनात्मकता और कार्यकलापों पर 'द साउंड ऑफ फ्रेंडशिप.. का निर्माण हुआ, यह कैसे संभव हो सका ?
    शहंशाह आलम जी, यह उनदिनों की बात है  जब सत्तर-अस्सी का दशक विश्व इतिहास में महाशक्तियों के बीच चले 'कोल्डवार' की वज़ह भूला नहीं जा सकता है। उनदिनों दुनिया दो ध्रुवों में बटी थी, पूर्वी खेमे का नेतृत्व सोवियत संघ करता था जिसमें कहीं न कहीं भारत की भी असरदार भूमिका थी। 1985 में अमरीकी सत्ता राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के हाथ में थी, तब उनके द्वारा यूरोप में घातक मिसाइलों की तैनाती और 'स्टार वार' की घोषणा से दुनिया कंपित हो उठी थी।

    उन दिनों विभाजित जर्मनी अर्थात पूर्वी जर्मनी-जर्मन जनवादी गणतंत्र के साथ भरतीय रिश्तों को एक मजबूत आयाम देने के लिए भारत के सुदूर हिस्से मधेपुरा में मैं अरविन्द श्रीवास्तव एवं हमारी संस्था 'लेनिन क्लब' कार्यरत थी । जर्मनी की प्रसिद्ध प्रसारण संस्था रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल के प्रसारणों पर नियमित बैठक और विश्व शांति-मैत्री के लिए सेमिनार, प्रदर्शनी आदि आयोजित कर अपनी वैश्विक जिम्मेदारी का निर्वहण करता रहा। भारत व जर्मनी इन दो महान राष्ट्रों के बीच की मित्रता व सांस्कृतिक साझेदारी उनदिनों अपने परवान पर थी।  
    1989 में जब कई वजहों से सोवियत व्यवस्था चरमरायी और साम्यवादी खेमा ने पूर्वी यूरोप से अपनी छतरी समेटना आरम्भ किया तब भारत सरीखे राष्ट्रों के विचारक और बुद्धिजीवी भौंचक रह गए। अरे, यह क्या हो गया। बहरहाल दुनिया एक ध्रुवीय बनी जिसे बाद वर्षों में नई चुनौतियां मिलने लगी, वर्तमान परिदृश्य में साम्यवादी चीन से हमारा आशय है।

    जर्मन जनवादी गणतंत्र और रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल के साथ हमारे रिश्तों पर बनने वाली फ़िल्म उन्हीं दिनों की यादें हैं, जब जर्मनी स्थित प्रसिद्ध विश्वविद्यालय हैम्बलट के राजनीति की प्राध्यापक आनंदिता बाजपेयी ने शोध के क्रम में मेरी तलाश की व संपर्क स्थापित किया, हमारी पहली मुलाकात पटना में हुई, फिर यह सिलसिला मधेपुरा स्थित मेरे आवास 'कला कुटीर' में आ कर सात दिनों के फ़िल्म की शूटिंग तक जारी रहा।

    आपने वैसा क्या किया कि रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल के प्रियपात्र बने एवं इस फ़िल्म को आप ऐतिहासिक कैसे कह सकते हैं-
    फिल्म इस अर्थ में भी ऐतिहासिक है कि भारत और जर्मन जनवादी गणतंत्र व रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल के साथ 'मधेपुरा' जैसे कस्बाई शहर का सम्बंध, जब संचार के माध्यम सीमित थे, इंटरनेट का नामोनिशान नहीं था, पत्र के माध्यम से दुनिया जुड़ी थी और डाकघर अपने अहम भूमिका में। एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र संवाद का संचार अनवरत ज़ारी रहे इसके लिए हमारी सक्रियता व तत्परता ही हमारे मूल में रही।
    उक्त फिल्म में केंद्रीय भूमिका निभाने की ख़ुशी मेरे जुनून की वजह से मुझे मिल पायी है!

    मैंने हजार घंटे से ज़्यादा रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल के कार्यक्रमों को लिपिबद्ध कर और रेडियो बर्लिन को उनके कार्यक्रमों का रिसेप्शन रिपोर्ट प्रेषित कर उनके डीएक्स विभाग का एच- 2000 का ऑनर पाया, जो दुनिया के गिने चुने डीएक्सरों को मिल पाया है। यह फ़िल्म भारत- जर्मन जनवादी गणतंत्र ख़ासकर रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल से हमारे रिश्तों पर आधारित पहली फिल्म है !
    फिल्म का विस्तृत विवरण भी दें-

    फिल्म की निर्माता निर्देशक आनंदिता बाजपेयी  हैं, संपादन व कैमरा डैनियल गट्जमेगा, सिनेमाटोग्राफी व कथा ज्योतिदास केलम्बथ वाडाकिना, गीत संगीत- नितिन सिन्हा एवं रियाज उल हक का हैं। फिल्म की शूटिंग मधेपुरा स्थित मेरे आवास 'कला कुटीर परिसर' में हुई, सम्पादन आदि बर्लिन व ब्रुसेल्स में! फिल्म की स्क्रिनिंग जल्द ही भारत के विभिन्न शहरों में होगी!

    आपकी राजनीति और विश्वदृष्टि को आकार देने में रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल और उसके मॉडरेटर आपके लिए कितने महत्वपूर्ण और 
    प्रभावशाली थे?

    सच कहूँ तो मेरी वैश्विक दृष्टि को रौशनी देने का काम आरबीआई ने किया है। अस्सी के दशक में मैं व मेरे अधिकांश मित्र स्नातक अथवा स्नातकोत्तर के छात्र थे,और सभी इतिहास व राजनीति विज्ञान में अध्ययनरत थे, सूचना तकनीकी के उस दौर में रेडियो ही एक सशक्त माध्यम था, इंटरनेट का हमने नाम भी नहीं सुना था। स्पष्ट है जब दुनिया दो खेमों में बंटी थी, स्वभाव से हमारा देश भी सोवियत विचारधारा के बेहद करीब था.., जीडीआर में इरिक होनेकर, सोवियत संघ में लियोनिद ब्रेझनेव और भारत में श्रीमती इंदिरा गांधी सत्ता में थीं, इनकी वैश्विक साझेदारी को समझना हमारे लिए एक रोचकतापूर्ण कौतूहल था, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद व नस्लवाद के विरुद्ध वैश्विक लामबंदी का हिस्सा बनना हमारे लिए एक सामयिक जरूरत अथवा गर्व का विषय था !

    आरबीआई के प्रसारण हाशिए पर धकेल गए लोगों की आवाज़ थी, नई भाषा के साथ नित्य नए घटनाक्रम  का विश्लेषण बहुत ही रोचक व सहज अंदाज में प्रस्तुत करना आरबीआई के उद्घोषकों एवं कार्यक्रम मॉडरेटर की काबिलियत को दर्शाता रहा, कार्यक्रमों के बहुरंगी फलक में जीडीआर की झांकी, जीडीआर की आवाज व अमन की आवाज़ जैसे कार्यक्रम दुनिया भर में शान्ति, मैत्री और विकास के लिए अलख जगाने का काम किया। उनदिनों अर्थात अस्सी के दशक में- निकारागुआ, अंगोला और फिलिस्तीन की घटनाओं पर साथ ही आण्विक निशस्त्रीकरण जैसे मुद्दे को समझने में मुझे व क्लब के सदस्यों को सरलता रही, जैसाकि मैंने पहले कहा कि अधिकांश मित्र व सदस्य इतिहास व राजनीति शास्त्र के छात्र थे अत: आरबीआई के प्रसारण हमारे लिए एक जरूरत की तरह रही, ना केवल ज्ञान संवर्धन बल्कि वैश्विक भागीदारी में हमारे कदम भी जीडीआर के साथ विकास पथ पर अग्रसर होते रहे थे!

    आप मूलत: कवि व साहित्यकार हैं, अपनी साहित्यिक यात्रा के साथ इस फ़िल्म को कैसे जोड़ते हैं
    बेशक, साहित्य में कविता लेखन ही मेरी मुख्य विधा रही है, अस्सी के दशक में लघु पत्रिकाओं का जबरदस्त प्रभाव था जनमानस पर साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियां हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा थी। संचार व सूचना संप्रेषण के संसाधन सीमित थे। टीवी व इंटरनेट-सोशल मीडिया से हम अपरिचित थे, ऐसे में प्रिंट पत्रिका व  अख़बार ही हमारे सशक्त औजार थे, जिसकी धार 1990 तक स्पष्ट रूप से दिखी, सोवियत साम्यवादी व्यवस्था और पूर्वी यूरोप से साम्यवादी व्यवस्था के खात्मे ने जो वैचारिक शून्यता छोड़ी उसकी भरपाई पुन: पूरी नहीं हो सकी.. उन्हीं दिनों हमारी लेखनी व सांस्कृतिक गतिविधियां कुलांचे मारते रही, मेरी पहली कविता 'सम्भवा' नामक पत्रिका में आयी थी जिसकी चंद पंक्तियों की चर्चा समकालीन आलोचकों यथा रेवती रमन व  सुरेंद्र स्निग्ध ने अपने आलेखों में किया था, मेरी उस कविता की पंक्ति जो मुझे याद है- हैलो, हैलो सिक्युरिटी काँसिल, आज की रात डिनर पर, कौन सा वियतनाम पेश करूँ? इन्हीं दिनों पटना से प्रकाशित दैनिक हिन्दुस्तान, प्रभात खबर आदि में प्रकाशित कविताओं ने मुझे कम से कम बिहार के कवियों में शुमार तो कर ही लिया, यह सिलसिला आगे चलता रहा, लगभग सभी साहित्यिक पत्रिकाओं ने सम्मान मुझे स्थान दिया।

    लेखन के आरंभिक दौर में बतौर अंतराष्ट्रीय प्रसारण केंद्रों का बतौर श्रोता रहा फिर उनके कार्यक्रमों बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया और उनके डीएक्स विभाग को तकनीकी सहयोग कर कई-कई सम्मानों के हकदार बनें। जिनमें रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल जा सबसे ऊपर स्थान रहा। आज पैंतीस वर्षों के बाद जर्मनी में शोध का हिस्सा मैं बन पाया! एक श्रोता का इस मुकाम तक पहुंच पाना वाकई अविस्मरणीय है। जर्मनी में मैं शोध का हिस्सा बना और मेरे उन दिनों के कार्यकलापों पर जर्मनी में फ़िल्म का निर्माण होना यह आप मित्रों सहित देश के लिए भी गर्व का विषय है। जल्द ही भारत के कई शहरों में इस फिल्म की स्क्रीनिंग की जाएगी, जिससे भारत व जर्मन जनवादी गणतंत्र के रिश्ते और रेडियो बर्लिन इंटरनेशनल का इनमें योगदान के सुनहरे पल से दुनिया के सिनेप्रेमी रूबरू हो सकेंगे !
    बहुत-बहुत आभार !
    अरविन्द श्रीवास्तव'

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