ग्वालियर। जिन पत्नियों के पति काला पानी की सजा काटने चले जाएं, उनके वापस आने की उम्मीद धुंधला जाए, उनके बच्चे छोटी उम्र में ही भगवान को प्यारे हो जाएं और तो और रोज अंग्रेज सिपाही परेशान करने घर आएं, उन पत्नियों के कष्टों का कयास लगा पाना भी कठिन है, लेकिन सावरकर परिवार के तीनों भाइयों गणेश, स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर और नारायण सावरकर की पत्नियों क्रमश: यशोदाबाई, यमुनाबाई और शांताबाई ने न केवल अपनी देशभक्ति का हिम्मत से परिचय दिया बल्कि समाज सुधार और महिलाओं में स्वाभिमान और राष्ट्र भाव जगाने के लिए भी वे आगे आईं। यही नहीं उन्होंने स्वदेशी अपनाने के लिए भी प्रेरित किया।
यह बात डॉ. शुभा साठे ने आर्टिस्ट कंबाइन दाल बाजार में ‘त्या तिघी’ (वो तीनों) विषय पर आयोजित व्याख्यान में मुख्य वक्ता की आसंदी से कही। मराठी साहित्य अकादमी भोपाल एवं राजकवि तांबे अभ्यास मंडल के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित कार्यक्रम की अध्यक्षता सांसद विवेक नारायण शेजवलकर ने की। मुख्य अतिथि उपेंद्र शिरगांवकर थे।

मुख्य वक्ता ‘त्या तिघी’ उपन्यास की लेखिका डॉ. साठे ने कहा कि जब सावरकर भाइयों के पिता प्लेग में गुजर गए तो स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर के बड़े भाई गणेश की पत्नी यशोदा बाई यानी येसू वहिनी अपने गहने बेचकर छोटे भाइयों की पढ़ाई को जारी रखने में पति की सहायता की। वे उन दो छोटे बच्चों की मां बन गईं, जबकि उनकी दो बेटियां दस दिन की आयु में ही चल बसी थीं। उन्होंने ‘आत्मनिष्ठ युवती संघ’ नाम से एक अभियान चलाया, जिसमें क्रांतिकारियों की पत्नियां शामिल रहती थीं। वे स्वदेशी अपनाने के लिए महिलाओं को प्रेरित करती थीं। उस समय जब महिलाएं घर की चौखट भी नहीं लांघती थीं, तब येसू वहिनी के संघ में करीब डेढ़ सौ महिलाएं भाग ले रही थीं। जब उनकी बैठक होती तो उसमें हल्दी-कुमकुम के कार्यक्रम होते थे।
डॉ. साठे ने कहा कि उस समय लोकमान्य तिलक के भाषण पढ़े जाते थे और वीर सावरकर की कविताओं को गाया जाता था। आत्मनिष्ठ युवती संघ की सदस्य महिलाएं अपने हाथ में भारत की बनी कांच की चूडिय़ां और हाथ से बने कपड़े पहनती थीं। लोकमान्य तिलक की पत्नी सत्यभूमि जब नासिक आईं तो इन महिलाओं ने उन्हें सम्मानित किया। इन सदस्यों ने कोर्ट केस लडऩे में तिलक की सहायता के लिए पैसे भी जुटाए। येसू वहिनी के पति गणेश उपाख्य बाबाराव और विनायक सावरकर दोनों को अंग्रेजों ने काला पानी की सजा दी थी। उस समय जिन क्रांतिकारियों को काला पानी की सजा हुई थी उन सबकी पत्नियों का येसू वहिनी आधार बनीं।
डॉ. शुभा साठे ने कहा कि वीर सावरकर का विवाह जवाहर रियासत के दीवान भाऊराव चिपलूनकर की बड़ी बेटी यमुना के साथ हुआ था। उन्हें माई के नाम से जाना जाता था। धनवान घराने की होने के बाद भी संघर्ष के दिनों में माई ने बिना कोई प्रतिरोध किए सावरकर के परिवार को अपना लिया। जब उनका पहला बेटा प्रभाकर हुआ, तब विनायक सावरकर लंदन में थे और संघर्ष कर रहे थे। कुछ समय बाद उनके बेटे प्रभाकर की चेचक से मृत्यु हो गई। माई के सामने पुत्र के जाने और पति के पास न होने का दुख था, लेकिन उन्होंने बहुत हिम्मत रखी और सावरकर को भी निराश नहीं होने दिया और देशभक्ति को अपना जीवन बना लिया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए सांसद श्री विवेक शेजवलकर ने कहा कि मां का गौरवगान तो हम सभी सुनते आए है पर आज क्रांतिकारियों की पत्नियों का गौरवगान अभिनव पहल है। इसके लिए आयोजक साधुवाद के प्रात्र हैं। कार्यक्रम की प्रस्तावना मराठी साहित्य अकादमी के निदेशक उदय परांजपे ने रखी। कार्यक्रम का संचालन कुंदा जोगलेकर ने एवं आभार मेघदूत परचुरे ने व्यक्त
किया। इस अवसर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह व्यवस्था प्रमुख अनिल ओक, मध्य भारत के प्रांत सह प्रचारक विमल गुप्ता, क्षेत्र कार्यकारिणी सदस्य यशवंत इंदापुरकर, विभाग कार्यवाह विजय दीक्षित, लोकेंद्र पाराशर, अशोक आनंद, राजेश वाधवानी, नीरू सिंह ज्ञानी, दिनेश चाकणकर, डॉ.उमा कंपूवाले, निशिकांत सुरंगे, पंकज नाफडे सहित प्रबुद्धजन उपस्थित रहे।
पति के शब्द दिल में बिठाए
डॉ. साठे ने कहा कि जब वीर सावरकर को काले पानी की सजा के लिए अंडमान ले जाया जाने वाला था, तब माई ने मुश्किल से उनसे मिलने की अनुमति प्राप्त की। मुंबई की डोंगरी जेल में वह अपने पति से मिलीं। उस समय उन्हें नहीं पता था कि इसके बाद वह अपने पति को देख भी पाएंगी या नहीं। वह अपने बेटे प्रभाकर की चेचक से हुई मौत से भी आहत थीं। उन्हें देखकर मजबूत हृदय वाले वीर सावरकर ने भावुक स्वर में अपनी पत्नी से कहा कि ‘तिनके-तीलियां बीनना और बटोरना तथा उससे एक घर बनाकर उसमें बाल-बच्चों का पालन-पोषण करना..., यदि इसी को परिवार और कर्तव्य कहते हैं तो ऐसा संसार तो कौए और चिडिय़ा भी बसाते हैं। अपने घर-परिवार-बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं, मैंने अपने देश को अपना परिवार माना है, इसका गर्व कीजिए।
इस दुनिया में बोए बिना कुछ भी उगता नहीं है। धरती से ज्वार की फसल उगानी हो तो उसके कुछ दानों को जमीन में बोना ही होता है। बीज जमीन में, खेत में जाकर मिलते हैं तभी अगली ज्वार की फसल आती है। यदि हिंदुस्तान में अच्छे घरों का निर्माण करना है तो हमें अपना घर कुर्बान करने से पीछे नहीं हटना चाहिए। जब तक कोई न कोई मकान ध्वस्त होकर मिट्टी में नहीं मिलेगा, तब तक नए मकान का नवनिर्माण कैसे होगा? इस बात को माई ने दिल से स्वीकार कर उस पर चलने का निर्णय लिया।
वीर माई ने संभाला सावरकर को
डॉ. साठे ने कहा कि सावरकर यमुनाबाई के कष्टों को समझ रहे थे। वह बोले कि यदि अगला जन्म मिला तो हमारी भेंट होगी, अन्यथा यहीं से विदा लेता हूं। उन दिनों काले पानी की सजा से वापस लौटना मुश्किल माना जाता था। इस मुश्किल परिस्थिति में भी मात्र 25-26 वर्ष की युवा माई सावरकर ने पति के चरणों को स्पर्श किया और कहा, ‘हम ऐसा ही करेंगे। जहां तक हमारा सवाल है हम जरूर मिलेंगे। आप चिंता न करें। अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें’। माई ने निराश हो रहे सावरकर को अपने शब्दों से संभाला। उन्होंने सावरकर के समाज सुधार के अभियानों में भी साथ दिया।