तमिलनाडु समेत कई गैर हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा को लेकर जबरदस्त विरोध हो रहा है. तमिलनाडु सरकार ने हिंदी को लेकर ही प्रदेश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) को लागू करने से मना कर दिया है.
दिसंबर 1952 में लगभग 56 दिनों के आमरण अनशन के बाद मद्रास (अब आंध्र प्रदेश) के पोट्टि श्रीरामुलु 'अमरजीवी' ने दम तोड़ दिया था. वह भाषा के आधार पर एक अलग राज्य बनाए जाने की मांग कर रहे थे.
उनकी मौत की वजह से तत्कालीन भारत में व्यापक हिंसा हुई और सरकार को राज्य पुनर्गठन आयोग बनाना पड़ा और अक्टूबर 1953 में भाषा (तेलुगू) के आधार पर देश के पहले राज्य आंध्र प्रदेश का निर्माण किया गया.
भाषा के आधार पर नए राज्यों के गठन की मांग या विवाद नया नहीं है. इसी तर्ज पर हिंदी को लेकर अब केंद्र सरकार और तमिलनाडु सरकार के बीच विवाद पैदा हो गया है. तमिलनाडु सरकार ने हिंदी की वजह से राज्य में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 को लागू करने से मना कर दिया है.
क्या है विवाद
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के तहत सभी राज्यों में तीन भाषाएं पढ़ाए जाने की बात कही गई है. जिसके तहत पहली भाषा मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा, दूसरी भाषा गैर हिंदी राज्यों के लिए हिंदी या अंग्रेजी और हिंदी भाषी राज्यों के लिए अंग्रेजी या कोई दूसरी आधुनिक भारतीय भाषा और तीसरी भाषा के रूप में गैर हिंदी राज्यों में अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा और हिंदी भाषी राज्यों में अंग्रेजी या एक आधुनिक भारतीय भाषा पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया है.
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आसान शब्दों में कहें तो इसके तहत हिंदी, अंग्रेजी और संबंधित राज्य की क्षेत्रीय भाषा पढ़ाए जाने पर जोर दिया गया है लेकिन किसी तरह की बाध्यता नहीं है. तमिलनाडु सरकार का कहना है कि केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति के जरिए गैर हिंदी भाषी राज्यों पर हिंदी थोपना चाहती है.
तमिलनाडु सरकार का तर्क है कि राज्य में 1968 से द्विभाषा नीति के तहत स्कूलों में तमिल और अंग्रेजी की शिक्षा पहले से ही दी जा रही है. इसीलिए तमिलनाडु समेत कई दक्षिण भारतीय राज्यों ने केंद्र सरकार पर शिक्षा के संस्कृतिकरण का आरोप लगाया है. 2019 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा जारी करने के दौरान भी दक्षिण भारतीय राज्यों ने इसका विरोध किया था.
कोठारी आयोग की सिफारिश पर लागू पहली राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में त्रिभाषा सूत्र को अपनाया गया था. लेकिन इसे व्यापक पैमान पर कभी लागू नहीं किया जा सका.
दक्षिण भारत और हिंदी
दक्षिण भारत से हिंदी के विरोध का नाता आजादी से पहले ही जुड़ चुका था. 1938 में मद्रास प्रेसिडेंसी के लगभग 125 स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा के रूप में लागू करने के फैसले का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ. अन्नादुरई के नेतृत्व में यह आंदोलन दो साल तक चला और ब्रिटिश सरकार ने अपना फैसला वापस ले लिया.
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राज्य में नई शिक्षा नीति लागू नहीं करने का नुकसान राज्य को केंद्र सरकार की तरफ से समग्र शिक्षा अभियान के लिए मिलने वाली आर्थिक मदद के रूप में हो रहा है. केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 का विरोध करने की वजह से तमिलनाडु को जारी की जाने वाली 500 करोड़ से ज्यादा की फंडिंग रोक दी है. नियमानुसार समग्र शिक्षा अभियान के तहत राज्यों को फंडिंग हासिल करने के लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) की गाइडलाइन का पालन करना जरूरी है.
इस अभियान के तहत केंद्र सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अलग-अलग श्रेणी के आधार पर फंडिंग मुहैया कराती है. सामान्य राज्यों और विधानसभा वाले केंद्र शासित प्रदेशों को 60 फीसदी फंडिंग और पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों को 90 फीसदी फंडिंग दी जाती है. जिन केंद्र शासित प्रदेशों में कोई विधानसभा नहीं है, उसका पूरा खर्च केंद्र सरकार वहन करती है.
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इतने विवादों के बाद भी एक विरोधाभास ऐसा है कि चेन्नई में मौजूद दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा हिंदी भाषा के संरक्षण के लिए पिछले 100 सालों से भी ज्यादा समय से लगातार काम कर रही है.