• क्या हस्तलेखन की परम्परा लुप्त हो जाएगी?

    भाषा जिस देश की जो भी हो, विद्यार्थियों को उसे लिखना-पढ़ना तो आना ही चाहिए और हाथ से न लिखने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए

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    भाषा जिस देश की जो भी हो, विद्यार्थियों को उसे लिखना-पढ़ना तो आना ही चाहिए और हाथ से न लिखने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। विकसित राष्ट्रों में भले ही विद्यार्थियों को लैपटॉप या कम्प्यूटर से पढ़ाई करने , परीक्षा देने या नोट्स लेने की अनुमति दे दी जाए और वहाँ यह नयी परम्परा स्थापित करने में कोई कठिनाई न आए; परन्तु भारत में यह सम्भव नहीं है। वैज्ञानिकों का मानना है कि साफ-सुथरा लेखन स्मरणशक्ति की वृद्धि में सहायक होता है। सुन्दर हस्तलिपि का प्रभाव दूसरों पर भी अवश्य पड़ता है। आज संग्रहालयों में महान् लेखकों, कवियों, कलाकारों की हस्तलिपि में उनका कौशल पत्रों, पाण्डुलिपियों व अन्य रचनाओं के रूप में संरक्षित है, जिन्हें बड़े चाव से देखा जाता है।

    कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय अपनी आठ सौ वर्ष पुरानी लिखित परीक्षा की परम्परा समाप्त करने पर विचार कर रहा है। विद्यार्थियों की $खराब हस्तलिपि को देखते हुए विश्वविद्यालय अब लैपटॉप या आईपैड पर परीक्षा के पक्ष में है। विश्वविद्यालय ने डिजाटल शिक्षा की रणनीति के अन्तर्गत अब इस मुद्दे पर विचार-विमर्श आरम्भ कर दिया है। इसकी शुरुआत में एक टाइपिंग परीक्षा-योजना की पहल की गई थी। कैम्ब्रिज के इतिहास विभाग की प्रो$फेसर डॉ. सारा पीयरसन का कहना है कि मौजूदा छात्रों की पीढ़ी के बीच लिखावट एक लुप्त कला बनती जा रही है। पहले छात्र एक दिन में नियमित रूप से कुछ घण्टे हाथ से लिखते थे। लेकिन अब वे परीक्षा के अलावा हाथ से लिखते ही नहीं। लैपटॉप पर बढ़ती निर्भरता की वजह से विद्यार्थियों की लिखावट में कमी आई है। लेक्चर नोट्स के लिए भी उनमें लैपटॉप का प्रयोग बढ़ रहा है। इसलिए हम विचार कर रहे हैं कि लिखित परम्परा को समाप्त कर दिया जाए।

    यदि कैम्ब्रिज की तरह ही अन्य देशों के विश्वविद्यालय भी सोचने लगें और हस्तलेखन की बजाय लैपटॉप या कम्प्यूटर के उपयोग को ही विद्यार्थियों के लिए विकल्प के रूप में स्वीकृति प्रदान कर दें तो निश्चित रूप से हाथ से लिखने की परम्परा पर यह करारा प्रहार होगा। निस्सन्देह इक्कीसवीं शताब्दी में संचार माध्यमों के उपयोग में वृद्धि हुई है और लोगों के जीवन में इसकी गहरी पैठ होती जा रही है। मोबाइल फ़ोन, लैपटॉप और कम्प्यूटर जैसे उपकरणों का उपयोग अब भारत के शहरों में भी निरन्तर बढ़ रहा है। इससे दैनन्दिन जीवन में आसानियाँ हुई हैं। बहुत-से काम घर बैठे किये जा सकते हैं। परन्तु हाथ से लिखने की कला और इस परम्परा की बात ही अलग है।

    जहाँ तक शिक्षा का प्रश्न है; विद्यार्थी को हाथ से लिखने के लिए प्रेरित करने की बजाय लैपटॉप या कम्प्यूटर के उपयोग की स्वीकृति दे देना सही नहीं माना जा सकता। भारत जैसे देश में तो इसे बिल्कुल भी उचित नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि एक तो यहाँ एक भी गाँव या शहर ऐसा नहीं है जिसमें हर विद्यार्थी को तकनीकी संसाधन सुलभ हो। दूसरे, हाथ से लिखे हुए शब्दों का अलग ही महत्त्व है। हम हस्तलिखित सामग्री के प्रति एक विशेष लगाव का अनुभव करते हैं। यह हमें संवेदना के धरातल से जोड़ता है और मन में अद्भुत भावों का संचार करता है जो मनुष्य के लिए बहुत अहम है।

    शिक्षा का सम्पूर्ण दारोमदार भाषा पर है लेकिन भाषा का सही ज्ञान विद्यार्थियों के लिए चुनौती बना हुआ है क्योंकि वे इस ओर ध्यान नहीं देते। ऐसे में हस्तलेखन को हतोत्साहित करना सही निर्णय नहीं होगा। मुझे बचपन के दिन स्मरण आते हैं, जब विद्यालय में प्रतिदिन एक कालखण्ड सुलेख लेखन का हुआ करता था। सुलेख प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती थीं। सुन्दर, साफ़-सुथरी हस्तलिपि वाले विद्यार्थियों को कक्षा में विशेष महत्व दिया जाता था। कुछ विद्यार्थी तो अपनी सुन्दर हस्तलिपि के कारण ही शिक्षकों के स्नेहभाजन होते थे। आज भी शिक्षक अच्छी लिखावट के लिए प्रेरित करते हैं।

    चिन्ताजनक बात यह है कि आज विद्यार्थी विस्तृत अध्ययन नहीं करते, वे 'शॉर्ट कट' अपनाना पसन्द करते हैं, इसलिए उनका शब्द-ज्ञान सीमित होता है। प्राय: किसी भी भाषा का शुद्ध रूप में लेखन व वाचन करने की दक्षता उनमें नहीं होती। भाषा का ज्ञानार्जन उनकी प्राथमिकता नहीं है। वे कामचलाऊ भाषा जानते हैं। परीक्षा में भी वे विधिवत् बहुत कम ही अच्छा लिख पाते हैं लेकिन फिर भी हाथ से लिखते तो हैं। विडम्बना यह है कि मनुष्य मशीन का ग़ुलाम होता जा रहा है। वह अपने शरीर ही नहीं, दिमा$ग का भी कम-से-कम उपयोग करना चाहता है। हरेक जानकारी के लिए वह इण्टरनेट पर निर्भर रहता है। पुस्तकालयों तक जाने, सन्दर्भ-ग्रन्थों को खंगालने या पृष्ठ पलटने में उसकी दिलचस्पी शून्य हो चली है। जबकि सच्चाई यह है कि किसी भी विषय पर समग्रता में और एकदम सही जानकारी इण्टरनेट सुलभ नहीं कराता। वह सहायक हो सकता है पर ऐसा नहीं, जिस पर आँख मूँदकर निर्भर रहा जा सके या भरोसा किया जा सके।

    सोचने की बात है कि विद्यार्थी-जीवन में ही कुछ घण्टों तक नियमित रूप से लिखने-पढ़ने की बाध्यता होती है। अगर विद्यार्थी ऐसा नहीं करते तो उन्हें समझाइश दी जाती है। हस्तलिपि भी सबकी खराब नहीं होती इसलिए कुछेक विद्यार्थियों के चलते शताब्दियों से चली आ रही परम्परा को तिलांजलि देने का निर्णय बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता। तनिक स्मरण कीजिए कि 'कह कर'  सीखने के लिए बचपन में कैसे-कैसे जतन किये जाते थे ! परीक्षा के समय साथियों की डेस्क पर उनकी कॉपियों में कैसे ताक-झाँक की जाती थी और प्रश्नपत्र पर ़़़वस्तुनिष्ठ प्रश्नों के उत्तर लिखकर शरारती विद्यार्थी परस्पर उनकी अदला-बदली भी करते थे। अब लैपटॉप पर लिखना होगा तो इसके लिए सर्वप्रथम सही ढंग से और शुद्ध रूप में लिखना आना चाहिए। वर्तमान शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी आसानी से बी.ए.,एम.ए. की डिग्री अच्छे अंकों से प्राप्त कर लेता है क्योंकि परीक्षक उसकी भाषा पर गौर नहीं करता। थोड़ा-बहुत भी उत्तर पठनीय हो तो विद्यार्थी को उदारतापूर्वक अंक देकर परीक्षा में उत्तीर्ण कर दिया जाता है। यही कारण है कि प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण विद्यार्थी भी एक आवेदन पत्र तक विधिवत् लिखने की योग्यता नहीं रखता तो हमें आश्चर्य नहीं होता। लेकिन यह कितना हानिकारक है ?

    इन दिनों भारत को 'डिज़िटल इण्डिया'  बनाने का राग अलापा जा रहा है। मोबाइल $फोन का उपयोग कितना घातक है, यह जानने के बावजूद सरकारें विद्यार्थियों को मुफ़्त में यह फोन बाँट रही हैं। मेधावी के नाम पर कुछ को मुफ़्त में लैपटॉप भी बाँटे जा रहे हैं। इससे विद्यार्थियों में आलस्य को बढ़ावा मिल रहा है। वे कोई सूचना, जानकारी, समयसारिणी, पाठ्यक्रम आदि नोटबुक में कलम से नहीं लिखना चाहते। मोबाइल फोन से फोटो खींचकर सब कुछ सुऱिक्षत रख लेना पसन्द करते हैं। जिनके पास मोबाइल $फोन नहीं है, केवल वही हाथ से कॉपी पर लिखते हैं। ऐसे में लिखने की कला तो उपेक्षित होगी। ज्ञान किसी भी क्षेत्र का हो, पढ़ने के साथ-साथ लिखना भी आवश्यक है।

    वर्तमान मानव जाति के भाषा व लिपिविहीन होने की कल्पना भयावह है। मशीन मनुष्य को भाषा के रूप की संाकेतिक पहचान ही सिखा सकती है मगर असल में भाषा हृदय से जुड़ी है। यह हृदय की ही होनी चाहिए और लिपि अपने हाथों की, तभी संवेदना कायम रहेगी। लेखन का इतिहास बहुत पुराना है। शोधकर्ता मानते हैं कि इसका आरम्भ 3300 ईसा पूर्व मेसोपोटामिया में हुआ था। उस समय किसी आदमी ने मिट्टी के बोर्ड पर राशन का रिकॉर्ड रखने के लिए पहली बार लिखा था। इंग्लैण्ड के एक संग्रहालय में वह बोर्ड आज तक सुरक्षित है। कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि 60000 से 25000 ईसा पूर्व आदमी हड्डियों और पत्थरों पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचा करता था, जैसे हम कभी-कभी अकारण कॉपी या कागज पर खींच दिया करते हैं। पुराने जमाने में जहाज लेकर जाने वाले लोग उस टापू की पहचान के लिए उसके पत्थरों पर बड़ी-बड़ी लकीरें खींच दिया करते थे ताकि कोई अन्य जहाज और उसके कर्मचारी वहाँ अपना ठिकाना न बनायें।

    हस्त लेखन के साथ-साथ अक्षरों का इतिहास भी बहुत प्राचीन है। सुन्दर हस्तलिपि के लिए एक-एक अक्षर को सुडौल और स्पष्ट बनाना आवश्यक है। कहते हैं कि पहले अक्षर की खोज 1900 ईसा पूर्व सीनाई पेनिनसुला के लोगों ने की थी। इन सेमिटिक लोगों को मिस्र ने गुलाम बना रखा था। ये लोग हमेशा अक्षरों की दुनिया और शब्दों की ध्वनि के विषय में अनुमान लगाया करते थे। उन्हें लगा कि अक्षर से चीजा को स्मरण रखने में बहुत सहायता मिलती है जबकि संकेत याद नहीं रह पाते। इसके बाद उन्होंने 22 मिस्र के संकेतों को अपने संकेतों में मिलाया और पहले अक्षर की रचना की। तदुपरान्त वे इन अक्षरों का उपयोग कुछ प्रचलित वस्तुओं के लिए करने लेगे, जैसे-घर, हाथ, पानी, आँख, मछली आदि-आदि।

    समूचे विश्व में लिखावट का इतिहास बहुत दिलचस्प है। भारत में मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में खपड़ों पर जो लिखावट है, वह ईसा से पाँच हजार बरस पहले की बतायी जाती है और यह भी किंवदन्ती है कि सिन्ध के मैदान में रहने वाले आर्यों का बेबीलोन तथा मिस्र वालों से मेलजोल और लेनदेन भी होता था। कौन जाने मिस्र वालों को खपड़पोथियाँ हम लोगों ने ही दी हों ! हमारी सबसे प्राचीन ब्राह्मी लिपि हमें उस घड़े के ढक्कन से मिलती है जो पिप्रावा में पाया गया है और जिसमें भगवान बुद्ध के फूल रखे मिले हैं। इसके बाद तो अशोक ने स्तम्भ, टीले और पहाड़ की चट्टानों पर ब्राह्मी और खरोष्ठी में बुद्ध के धर्म की और अन्य उपदेशात्मक बातें खुदवायी थीं। फिर ताड़, बाँस के पत्तों और भोजपत्रों पर भी लोग लिखने लगे। सबसे पुरानी पोथी 'उष्णीष-विजयधारिणी' ताड़पत्र पर लिखी हुई छठी सदी की है, जो जापान के हौर्म्यूज मठ में पायी गई। ब्राह्मी लिपि के कई रूप बदले, भाषा के इतिहास ने कई करवटें बदलीं। धरती पर पोथियों की लम्बी परम्परा चली , फिर छापेखाने आए और हाथ की लिखावट वाली पोथियों के दिन लद गए।

    दुनिया में जितनी भी लिपियाँ है, सब तीन तरह से चलती हैं। 1.बायें से दायें, जैसे देवनागरी या यूरोप की रोमन लिपियाँ। 2. दायें से बायें, जैसे-अरबी, फ़ारसी। 3. ऊपर से नीचे, जैसे चीनी बोली की लिखावट। अभी तक ऐसी कोई लिपि देखने में नहीं आई जिसमें नीचे से ऊपर लिखा जाता हो। भारत की देवनागरी लिपि सभी लिपियों में सबसे सुलझी हुई है। यह सस्वराक्षर लिपि न होकर ध्वन्यात्मक है और जैसा हम बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं। अत: लिखने में कठिनाई नहीं होती क्योंकि जो अक्षर का नाम है, वही उसे देखकर बोला जाता है। उसे पढ़ने-बोलने या समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। यह विशेषता अन्य भाषाओं एवं लिपियों में नहीं है।

    भाषा जिस देश की जो भी हो, विद्यार्थियों को उसे लिखना-पढ़ना तो आना ही चाहिए और हाथ से न लिखने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए। विकसित राष्ट्रों में भले ही विद्यार्थियों को लैपटॉप या कम्प्यूटर से पढ़ाई करने , परीक्षा देने या नोट्स लेने की अनुमति दे दी जाए और वहाँ यह नयी परम्परा स्थापित करने में कोई कठिनाई न आए; परन्तु भारत में यह सम्भव नहीं है। वैज्ञानिकों का मानना है कि सा$फ-सुथरा लेखन स्मरणशक्ति की वृद्धि में सहायक होता है। सुन्दर हस्तलिपि का प्रभाव दूसरों पर भी अवश्य पड़ता है। आज संग्रहालयों में महान् लेखकों, कवियों, कलाकारों की हस्तलिपि में उनका कौशल पत्रों, पाण्डुलिपियों व अन्य रचनाओं के रूप में संरक्षित है, जिन्हें बड़े चाव से देखा जाता है।

    हमारे देश में प्राय: महान् हस्तियों से ऑटोग्रा$फ या हस्ताक्षर लेने की जो परम्परा प्रचलित है, वह लेखनी का ही कमाल है। ख्यातिलब्ध रचनाकारों ने अपने ग्रंथों का प्रणयन कागज-कलम के माध्यम से ही किया है। साहित्य जगत् मेें पत्र-लेखन और डायरी-लेखन की भी परम्परा रही है ,जो बहुत महत्वपूर्ण है। लेकिन आज पत्र-लेखन उपेक्षित हो गया है। इसका स्थान मोबाइल $फोन के सन्देशों ने ले लिया है जो कि भाषा को विकृत करते हैंै। जिस तरह शब्दों का संक्षिप्तिकरण किया जा रहा है, वह चिन्ताजनक है। हिन्दी भाषा को न तो हिन्दी में शुद्ध रूप में लिखा जा रहा है, न ही अंग्रेजा का सही व्यवहार किया जा रहा है। शब्दों को तोड़-मरोड़ कर सि$र्फ अपने भाव सम्प्रेषित करने की क्रिया सम्पन्न की जा रही है। यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है जोकि बहुत चिन्ताजनक है।

    निश्चित रूप स,े चाहे विद्यार्थी उपाधियों के लिए शिक्षा-संस्थानों में पंजीकृत हों अथवा ज्ञान- पिपासा की शान्ति हेतु अध्ययनरत् हों; उन्हें भाषा अपने हाथ से लिखनी आनी ही चाहिए और परीक्षाओं में संचार माध्यमों के उपयोग की स्वीकृति कदापि नहीं दी जानी चाहिए। केवल विद्यार्थी-जीवन में ही तो हाथ से लिखने की अनिवार्यता होती है और यह कालखण्ड सीखने का होता है। $खराब हस्तलिपि अभ्यास से सुधारी जा सकती है लेकिन एक विशाल देश में कम्प्यूटर या लैपटॉॅप जैसे साधनों की उपलब्धता सभी के लिए सम्भव नहीं है। इसके अलावा इलेक्ट्रॉनिक कचरा बढ़ने से पर्यावरण के लिए भी $खतरा उत्पन्न हो सकता है। इन महत्वपूर्ण पहलुओं की अनदेखी नहीं की जा सकती।

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