हिन्दी के अनन्य साधक: फादर कामिल बुल्के

फादर कामिल बुल्के जैसे विदेशी हिन्दी विद्वानों के बारे में ही शायद तुलसीदास ने लिखा है उपजहिं अनत, अनत छवि लहहीं उत्पन्न कहीं होते हैं, शोभा कहीं और पाते हैं उनका जन्म भले ही पश्चिम में हुआ है

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Deshbandhu
Updated on : 2013-09-01 00:02:20
आज जयंती पर विशेष राजेंद्र उपाध्यायफादर कामिल बुल्के जैसे विदेशी हिन्दी विद्वानों के बारे में ही शायद तुलसीदास ने लिखा है उपजहिं अनत, अनत छवि लहहीं उत्पन्न कहीं होते हैं, शोभा कहीं और पाते हैं उनका जन्म भले ही पश्चिम में हुआ है पर उनका कर्मठ जीवन पूर्व के प्रीतिकर सम्मेलन तथा ईसाई और भारतीय परंपराओं के मैत्रीपूर्ण संवाद का प्रतीक है। फादर ने अपनी अभिव्यक्ति का मूल माध्यम हिन्दी को ही बनाया था। उनके अधिकांश सर्वोत्तम लेखन की भाषा हिन्दी है। उनकी विश्वप्रसिध्द रचना जो वर्षों के परिश्रम के बाद लिखी गई रामकथा: उत्पत्ति और विकास 1950 के बारे में उनके गुरु और प्रसिध्द विद्वान डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है- ''यह ग्रंथ वास्तव में रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली रचना है। हिन्दी क्या किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है।''हिन्दी के अनन्य साधक फादर कामिल बुल्के का जन्म पहली सितंबर 1909 को बेल्जियम के पश्चिम में स्थित, फ्लैण्डर्स प्रांत के रम्सकपेल गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम अदोल्फ और माता का नाम मारिया बुल्के था। अभाव और संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन बिताने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखते हुए लुवेन विश्वविद्यालय (लिसेवेगे) से वर्ष 1930 में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी की। बाद में वे जेसुइट सेमिनरी में लैटिन भाषा पढ़ने के बाद ब्रदर बने। बुल्के ने अपना जीवन एक सन्यासी के रूप में बिताने का निश्चय किया और कई महत्वपूर्ण संस्थाओं में अध्ययन करने के बाद भारत आ गए। यहां उन्होंने विज्ञान के अध्यापक के रूप में सेंट जोसेफ कॉलेज, दार्जिलिंग और येसू संधियों के मुख्य निवास स्थान मनरेगा हाउस, रांची में अपना प्रवास किया और कई संस्थाओं से जुड़े रहने के बाद 1941 में पुरोहित बने। फादर बने।फादर कामिल बुल्के ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1947 में एमए हिन्दी किया तथा 'रामकथा : उत्पत्ति और विकास' विषय पर डी. फिल की उपाधि प्राप्त की। वे 1950 से 1977 तक संत जेवियर कॉलेज, रांची में हिन्दी और संस्कृत के विभागाध्यक्ष रहे। उनकी हिन्दी और अंग्रेजी की महत्वपूर्ण रचनाओं में रामकथा और तुलसीदास, मानस-कौमुदी तथा ईसाई धार्मिक साहित्य दर्शन पर केन्द्रित ईसा: जीवन में दर्शन, एक ईसाई की आस्था उल्लेखनीय है। अंग्रेजी-हिन्दी कोश और बाइबिल से संबंधित कई अनूदित कृतियों अपनी उदार दृष्टि, तपसाधना और समर्थित जीवन के कारण फादर कामिल बुल्के ने भारत और पश्चिमी जगत को भावनात्मक बिन्दु पर जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया तथा अध्ययन और मनन द्वारा अपनी रचना आस्था को निरंतर मजबूत करते रहे। कई संस्थाओं से सम्बध्द फादर कामिल बुल्के को भारत सरकार ने 1974 में पद्मभूषण से सम्मानित किया। फादर कामिल बुल्के एक आस्थावान और गहरी प्रार्थना में डूबे साहित्य साधक थे।उन्होंने अंग्रेजी-हिन्दी कोश का निर्माण किया, जिसे पढ़कर अनेक लोगों ने हिन्दी सीखी। आज भी अनेक कार्यालयों में इसी कोश की मदद से हिन्दी का अनुवाद कार्य आसानी से किया जाता है। इस हिन्दी पखवाड़े में हिन्दी के रूप में इस अनन्य साधक का स्मरण करना जरूरी है। हिन्दी के जाने माने लेखक इलाचन्द्र जोशी ने कोश का महत्व स्वीकार करते हुए लिखा है कि 'यह कोश न केवल हिन्दी और अंग्रेजी के नए पाठकों के लिए उपयोगी सिध्द होगा, वरन हम जैसे पुराने घिसे हुए लेखकों के लिए भी बड़े काम की चीज सिध्द होगा। स्वयं मुझे अपने निबंधों के लेखन में इससे बड़ी सहायता मिली है।' अज्ञेय ने फादर बुल्के को 'ताताचार्य ' कहा था जो रेवन्ड फादर का सही अनुवाद है। प्रभाकर क्षत्रिय ने आपको हिन्दी के 'तरूतात' कहा है। निश्चय ही इस ताततरू की गहरी जड़ों और छाया में ही हिन्दी का पौधा लहलहा रहा है। फादर कामिल बुल्के जैसे विदेशी हिन्दी विद्वानों के बारे में ही शायद तुलसीदास ने लिखा है उपजहिं अनत, अनत छवि लहहीं उत्पन्न कहीं होते हैं, शोभा कहीं और पाते हैं उनका जन्म भले ही पश्चिम में हुआ है पर उनका कर्मठ जीवन पूर्व के प्रीतिकर सम्मेलन तथा ईसाई और भारतीय परंपराओं के मैत्रीपूर्ण संवाद का प्रतीक है। फादर ने अपनी अभिव्यक्ति का मूल माध्यम हिन्दी को ही बनाया था। उनके अधिकांश सर्वोत्तम लेखन की भाषा हिन्दी है। उनकी विश्वप्रसिध्द रचना जो वर्षों के परिश्रम के बाद लिखी गई रामकथा: उत्पत्ति और विकास 1950 के बारे में उनके गुरु और प्रसिध्द विद्वान डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने लिखा है- ''यह ग्रंथ वास्तव में रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है। वास्तव में यह खोजपूर्ण रचना अपने ढंग की पहली रचना है। हिन्दी क्या किसी भी यूरोपीय अथवा भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है।''वे मृत्यु के कुछ महीने पहले तक बाइबिल के अनुवाद में लगे हुए थे। जून, 1982 में उनके दाहिने पैर की उंगली में गैंग्रीन हो गया। पहले रांची के मांडर और फिर पटना के कुर्जी के मिशन अस्पताल में उनका इलाज हुआ। कुर्जी में ही गैंग्रीन उनके दाहिने पैर में इतनी तेजी से फैला कि मिशन के अधिकारी चिंतित हो उठे और उन्होंने उनको अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली में 8 अगस्त को भर्ती कराया। उन दिनों एक ही पीड़ा उन्हें थी कि बाइबिल का अनुवाद अधूरा रह गया है। लेकिन मृत्यु की पदचाप भी सुनाई दे रही थी। उन्होंने 15 अगस्त 1982 को फादर प्रोविंशियल पास्कल तोचना से कहा- ''फादर! मैं ईश्वर की इच्छा संपूर्ण हृदय से ग्रहण करता हूं और उनके पास जाने को तैयार हूं। अब मुझे बाइबिल का अनुवाद पूरा करने की चिंता नहीं है। प्रभु बुलाते हैं, तो मैं प्रस्तुत हूं।''17 अगस्त, 1982 को सबेरे 8 बजे उनका निधन हो गया और 18 अगस्त को दिल्ली के कश्मीरी गेट के निकॉलसन कब्रगाह में उनको दफना दिया गया। रामकथा और तुलसी का एक अनन्य उपासक सदा के लिए सो गया। 1950 में भारतीय नागरिक होने के बाद उन्होंने तन, मन, धन से उस देश की सेवा की, जो उनकी मातृभूमि तो नहीं था, पर उनकी मातृभूमि से भी अधिक था। वे सब धर्मावलंबियों का आदर करते थे, सब धर्मावलंबी उनका आदर करते थे, वे सच्चे अर्थों में ईसाई थे, पर उन्हें अपने भारतीय होने पर भी गर्व था। भारतीय संस्कृति और भारतीय भाषाओं में वे गहरे रचे-बसे थे। एक विदेशी पौधा हमारी मिट्टी में आकर रच-बस गया था। उस वटवृक्ष ने अपनी अनेक शाखाओं से सैकड़ों हिन्दी प्रेमियों को छाया दी।वे बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी और प्राच्य विद्या संस्थान बड़ौदा के आजीवन सदस्य थे। 1974 में उचित ही भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से अलंकृत किया।बलिष्ठ शरीर के, गौरवपूर्ण और लंबी कदकाठी के स्वामी फादर दाढ़ी और सफेद चोगे में भव्य लगते थे, पर उतने निरोग कभी नहीं रहे। बचपन से उन्हें कम सुनाई पड़ता था। दमा और पेस्टिक अल्सर सहित कई बीमारियों ने उनमें घर बना लिया था। उच्च रक्तचाप और हृदयरोग भी छूटता न था।फिर भी वे, रांची की सड़कों पर साइकिल लेकर निकल जाते और स्थानीय गरीब-गुरबों का हालचाल पूछते। सामर्थ्य अनुसार उनकी मदद करते। उन्हें लिखना-पढ़ना सिखाते। शाम को गोधूलि के बाद ही लौटते थे। स्टेटमैन की वर्ग पहेली हल करने या ब्रिज खेलने में उनका मन लगता था।वे भारतीयों से भी अधिक भारतीय थे। एक अवसर पर उन्होंने 'आलोचना' पत्रिका में लिखा था, ''भगवान के प्रति धन्यवाद, जिसने मुझे भारत भेजा और भारत के प्रति धन्यवाद जिसने मुझे इतने प्रेम से अपनाया।'' (साभार: इस्पात भाषा भारती)