गदर आंदोलन : जरूरत है स्वतंत्रता संग्राम की इस क्रांतिकारी गाथा को बुलंद रखने की

कैसी विडम्बना है; जहां गदरवादी अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए इच्छापूर्वक लड़ने के लिए भारत आ रहे थे, वहीं भारतीय नेतृत्व खुले तौर पर और इच्छापूर्वक ब्रिटिशों के साथ सहयोग करते हुए

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Deshbandhu
Updated on : 2013-08-15 02:22:43
तुहिन देबगदर आंदोलन की शताब्दी वर्ष पर विशेषकैसी विडम्बना है; जहां गदरवादी अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए इच्छापूर्वक लड़ने के लिए भारत आ रहे थे, वहीं भारतीय नेतृत्व खुले तौर पर और इच्छापूर्वक ब्रिटिशों के साथ सहयोग करते हुए भारत की गुलामी कायम रखे था; जहां विदेशों में रह रहे भारतीय गुरूद्वारों और मंदिरों में गदरवादी मिशन की कामयाबी की दुआ कर रहे थे, वहीं भारत के लोग गुरूद्वारों और मंदिरों में जाकर ब्रिटिशों की जीत के लिए प्रर्थाना कर रहे थे। गदरवादियों के दिलों में आजादी की आग जल रही थी और उन्हें अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता, सम्मान और समृध्दि के उद्देश्य के लिए कोई भी कुर्बानी देने में झिझक नहीं थी। वे अपने लक्ष्य के लिए वीरतापूर्वक लड़े । भारत में कई गदरवादी गिरफ्तार हुए, कई को आजीवन कारावास की सजा हुई और कुछ को फांसी दे दी गई ।वर्ष 2013 ऐतिहासिक गदर आन्दोलन की सौवींॅ वर्षगांठ है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद, भारत की धरती से ब्रिटिश साम्रायवाद को उखाड़ फेंकने और देश को गुलामी के बंधन से मुक्त कराने के लिए गदर आन्दोलन संगठित रूप से किया गया पहला प्रयास था। हालांकि गदर आन्दोलन को थोड़े दिनों में कुचल दिया गया था, किन्तु इसने भारत की जनता में ान्तिकारी देशभक्ति की भावना को जागृत कर दिया था तथा ांतिकारियों की नई पीढ़ी के लिए साम्रायवाद और उसके पिट्ठुओं के शिकंजे से देश को आजाद कराने के कार्यभार को जारी रखने का रास्ता खोल दिया था।गदर आन्दोलन विदेशों में रह रहे भारतीयों के साहस, वीरता और दृढ़ निश्चय की गाथा है। ये वे लोग थे जो उच्च शिक्षा या बेहतर आर्थिक अवसरों की तलाश में कनाडा और अमेरिका गए थे । इनके दिलों में आग जल रही थी और वे ांतिकारी उत्साह से ओतप्रोत थे। वे अपनी मातृभूमि, भारत, की आजादी की लड़ाई के लिए मशाल बन गए थे।बीसवीं सदी के आरम्भ में भारत और कनाडा दोनों ही ब्रिटेन के अधिराय थे। इसलिए भारतीयों के लिए कनाडा प्रवास करना आसान था । प्रवासी भारतीय मेहनती थे और कम वेतन पर काम करने के लिए तैयार थे । इसलिए कनाडा की कुछ कम्पनियों द्वारा भारत से सस्ते श्रमिकों को लुभाने के लिए यह प्रचार किया गया था कि कनाडा में रोजगार और बेहतर आर्थिक जिन्दगी के अवसर उपलब्ध हैं।बीसवीं सदी की शुरूआत में पहले कुछ वर्षों तक प्रति वर्ष करीब 2000 लोगों को कनाडा प्रवास करने की अनुमति दी गई थी, जिसमें यादातर पंजाबी किसान और मजदूर थे। जैसे-जैसे प्रवासियों की संख्या बढ़ती गई, वैसे-वैसे स्थानीय लोगों को मेहनती और जोखिम उठाने के लिए तैयार पंजाबियों से अपने रोजगार पर खतरा महसूस होने लगा। श्रमिकों के बीच प्रतियोगिता के भय से नस्लवादी दुश्मनी की भावना पनपने लगी और सस्ते एशियाई मजदूरों को कनाडा आने से रोकने के लिए कानून बनाने की मांग उठने लगी । वर्ष 1909 में प्रवासियों पर कड़ा प्रतिबंध लगा दिया गया, जिसके चलते कनाडा में कानूनी तरीके से भारतीयों का प्रवास वस्तुत: बन्द हो गया।जब भारतीय प्रवासियों ने यह देखा कि कनाडा में उनके लिए दरवाजे बन्द हो रहे हैं तो वे अमेरिका जाने लगे, जहां कठोर श्रम का काम करने के लिए यादा लोगों की जरूरत थी। इस प्रकार, अमेरिका में नए समुदायों का जन्म हुआ। अमेरिका में उन्होंने अनेक कठिनाइयाें का सामना किया, असंख्य मुश्किलों से जुझा और घोर भेदभाव सहा। उन्हें शुरूआत में केवल सेवक के छोटे-मोटे काम ही मिलते थे । लेकिन समय बीतने के साथ और अपने कठोर परिश्रम व दृढ़ संकल्प के चलते उनमें से कई लोग कामयाब किसान बन गए । उनके पास अपने खुद की जमीन भी हो गई। कुछ वर्षों के भीतर ही, प्रवासी मजदूरों की संख्या काफी बढ़ गई थी, जिसकी वजह से उन्हें अमेरिका में भी व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा। नस्लवादी दंगे होने लगे, जिसके फलस्वरूप कुछ मामलों में लोगों की जान भी गई और सम्पत्ति का नुकसान सहना पड़ा। कनाडा के समान ही, अमेरिका में भी शुरूआत में सेवक काम करने के लिए एशियाई मजदूरों का स्वागत किया गया था। लेकिन आगे चलकर अमेरिका में एशियाई मजदूरों को प्रवास को रोकने के लिए प्रतिबंधात्मक कानून लागू कर दिया गया।अमेरिका में रह रहे जापान और चीन के लोगों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार तथा नस्लीय दंगों में नुकसान होने पर वहां की सरकारें अपने देशवासियों के साथ सहानुभूति प्रकट करती थीं और जानोमाल के नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए अमेरिकी सरकार के साथ वार्ता करती थीं। किन्तु इस तरह की घटनाएं होने पर ब्रिटिश हुकूमत वाली भारत सरकार द्वारा अमेरिकी सरकार को किसी तरह का प्रतिवेदन नहीं दिया जाता था। इसलिए भारतीय को यह बात जल्द ही समझ में आ गई कि एक ''गुलाम'' देश का नागरिक होने और स्व-शासित देश का नागरिक होने में क्या फर्क है।अमेरिका ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रवेश पाने के इच्छुक शिक्षित भारतीय विद्यार्थियों का भी स्वागत किया था। मगर वहां के कॉलेजों से स्नातक होने के बाद उन्हें अपनी डिग्री के अनुरूप नौकरी नहीं मिल पाती थी। वे अपने विश्वविद्यालयों में स्वतंत्रता और आजादी का वातावरण देखा करते थे, किन्तु शिक्षा प्राप्त कर बाहर आने पर इन आदर्शों के विपरीत उनके साथ भेदभाव का बर्ताव किया जाता था। भारतीय विद्यार्थियों ने समझा कि एक गुलाम देश का नागरिक होने के नाते ही उनके साथ नस्लीय दुराग्रह रखा जाता है और भेदभाव भरा बर्ताव किया जाता है। अत: उनमें भारत को विदेशी शासन से मुक्त कराने की भावना ने जन्म लिया और उन्होंने अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए लड़ने का संकल्प लिया। उन्होंने भारतीय प्रवासियों के बीच देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावना के बीज बोने शुरू किए।अमेरिका में हरदयाल ने अपने आपको राष्ट्रवादी गतिविधियों के साथ एकरूप किया। वे इंग्लैण्ड से अपनी छात्रवृत्ति और आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की पढ़ाई छोड़कर अमेरिका आए थे। उन्होंने बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया में अध्ययन कर रहे अनेक छात्रों को प्रेरित किया। कई छात्र उनके अनुयायी बन गए थे, जिसमें से दो छात्र करतार सिंह सराभा और विष्णु गणेश पिंगले ने आगे चलकर गदर आन्दोलन में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। भारत की आजादी के लिए हर दयाल का जोश विश्वविद्यालय परिसर के बाहर भी फैल गया था। 23 अप्रैल 1913 को ओरेगॉन प्रान्त के एसटोरिया शहर में कुछ देशभक्त और प्रबुध्द भारतीयों की एक बैठक आयोजित की गई, जहां हरदयाल, भाई परमानन्द एवं अन्य लोगों ने अंग्रेजों को भारत से निकालने के लिए जोरदार ढंग से वक्तव्य रखा।इसी बैठक में ''हिन्दुस्तान एसोशिएसन फ ॉर पैसेफिक कोस्ट'' (प्रशांत तटीय भारतीय संघ) का गठन किया गया था, जिसका एक प्रमुख लक्ष्य था भारत को हथियारों के बल पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद से मुक्त कराना, जैसा कि अमेरिकियों ने सौ साल पहले किया था, तथा सबके लिए समान अधिकार के साथ एक मुक्त और स्वंतत्र भारत की स्थापना करने में सहयोग करना। सोहन सिंह भखना को इसका अध्यक्ष, हरदयाल को महासचिव और पंडित कांशीराम मरदौली को कोषाध्यक्ष चुना गया। लाला हरदयाल, जो स्टानफोर्ड विश्वविद्यालय में करीब दो वर्षों तक संकाय सदस्य रहे थे, इस नवगठित संगठन के पीछे मुख्य ताकत और केन्द्रीय व्यक्तित्व थे।''हिन्दुस्तान ऐशोसिएसन ऑफ पैसेफि क कोस्ट'' का मुख्यालय सैन फ ्रान्सिस्को में स्थापित किया गया था, जो संघ की सभी गतिविधियों के बीच समन्वय बनाने के लिए आधार के रूप में काम करता था। भारतीय समुदाय के लोगों, खासकर पंजाबी किसानों और फ ार्म एवं आरा मिल मजदूरों से जमा किए गए फण्ड से एक भवन खरीदा गया और उसका नाम युगान्तर आश्रम रखा गया। संघ द्वारा गदर नाम से एक पत्रिका प्रकाशन शुरू किया गया, ताकि संघ के लक्ष्य, उद्देश्य और गतिविधियों का प्रचार-प्रसार किया जा सके। इसका मुफ्त वितरण किया जाता था। गदर का शाब्दिक अर्थ है बगावत या विद्रोह। यह पत्रिका उर्दू, हिन्दी, पंजाबी एवं अन्य भाषाओं में प्रकाशित की जाती थी। गदर पत्रिका का प्रथम अंक उर्दू में प्रकाशित हुआ था जो 1 नवम्बर 1913 को छपा था। एक महीने बाद पत्रिका का गुरूमुखी संस्करण निकाला गया था और मई 1914 में इसका गुजराती संस्करण प्रकाशित हुआ था।गदर पत्रिका में ब्रिटिश साम्रायवाद का भण्डाफ ोड़ किया जाता था तथा भारतीय जनता से एकजुट होने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ उठ खड़े होने और भारत से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया जाता था । इसमें ब्रिटिश शासन के तहत भारत की जनता की दुर्दशा के बारे में लेख छापे जाते थे। साथ ही, अमेरिका और कनाडा में भारतीयों पर नस्लीय हमलों उनके साथ किए जाने वाले भेदभाव के बारे में भी लेख प्रकाशित होते थे। थोड़े समय के भीतर ही गदर पत्रिका का भारतीयों के बीच काफी नाम हो गया था और ''हिन्दुस्तान एशोसियसन ऑफ पैसेफिक कोस्ट'' को गदर पार्टी के रूप में पुकारा जाने लगा था। अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के लिए भारतीय जनता की चेतना को जागृत करने के लिए इस दल ने गदर के अलावा अन्य पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। नेपाली, बंगाली, पश्तो, गुजराती एवं अन्य कई भाषाओं में गदर के विशेषांक भी प्रकाशित किए गए।भारत, यूरोप, कनाडा, फिलिपीन्स, हांगकांग, चीन, मलेशिया, सिंगापुर, बर्मा, मिस्र, टर्की और अफगानिस्तान के भारतीय ांतिकारियों को भी गदर साहित्य भेजा जाता था। थोड़ समय में ही, युगान्तर आश्रम से छपने वाले साहित्य, विशेष रूप से गदर पत्रिका काफी लोकप्रिय हो गई थी। इससे ब्रिटिश सरकार के कान खड़े हो गए और उसने गदर एवं इस तरह के अन्य प्रकाशनों के वितरण को, खासकर भारत में, रोकने के लिए तमाम उपाए किए। यह पत्रिका, जो मुख्यत: देशभक्तिपूर्ण साहित्य था, कई लोगों तक पहुंची। यदि इसकी एक प्रति भी भारत पहुंचती थी तो वितरण के लिए उसकी कई कॉपी तैयार कर ली जाती थी । हिन्दुस्तान एसोशिएसन को बने मुश्किल से कुछ महीने ही हुए थे कि ब्रिटिश भारत सरकार के दबाव में अमेरिकी सरकार द्वारा हरदयाल को गिरफ्तार कर लिया गया। वे 24 मार्च 1914 को जमानत पर रिहा हुए। कुछ दिनों बाद ही वे अमेरिका छोड़कर का स्विटजरलैण्ड और फिर वहां से जर्मनी चले गए। हरदयाल के अचानक चले जाने से हिन्दुस्तान संघ के सांगठनिक ढांचे में एक खालीपन आया था, किन्तु इससे संगठन खत्म नहीं हो गया। हरदयाल ने बगावत के जो बीज बोए थे वह एक दुर्जेय संगठन के रूप में विकसित हो गया था। अनेक समर्पित और ऊर्जावान स्वयंसेवकाें ने अथक रूप से काम करना जारी रखा और हिन्दुस्तान एसोशिएसन की योजनाबध्द गतिविधियों पर अमल करते रहे।जर्मनी में हरदयाल ने स्वतंतत्र भारत के अपने मिशन को आगे बढ़ाने का काम जारी रखा। वे जानते थे कि जर्मनों की गदर आन्दोलन के साथ भारी सहानुभूति थी, क्योंकि ब्रिटिश उनके और गदरवादियों के साझे दुश्मन थे। हरदयाल ने वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय (राजनीतिज्ञ और कवयित्री सरोजनी नायडू के छोटे भाई), बरकतुल्लाह, भुपेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द के भाई), अजीत सिंह, चम्पक रमन पिल्लई, तारकनाथ दास और भाई भगवान सिंह के साथ मिलकर सितम्बर 1914 में बर्लिन भारत कमेटी का गठन किया, जिसे भारतीय ांतिकारी समाज (प्दकपंद त्मअवसनजपवदंतल ैवबपमजल) के नाम भी जाना जाता है। इसका उद्देश्य था ांतिकारी गतिविधियों के लिए जर्मन सरकार से वित्तीय मदद का इंतजाम करना, दुनिया के विभिन्न देशों में प्रचार कार्य संगठित करना, भारतीय लड़ाकों के स्वयंसेवक दस्तों के प्रशिक्षण की योजना बनाना और भारत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह के लिए गदरवादियों तक हथियार व गोला-बारूद पहुंचाने की व्यवस्था करना।जर्मनी और इंग्लैण्ड के बीच अगस्त 1914 में युध्द छिड़ गया। ब्रिटिश सेना युध्द के मोर्चे पर व्यस्त हो गई। इससे गदर ांतिकारियों को अंग्रेजों को भारत से भगाने का सुनहरा मौका मिल गया। गदरवादियों ने सिंगापुर, बर्मा, मिस्र, टर्की और अफगानिस्तान में रह रहे भारतीयों और खासकर कनाडा और अमेरिका के पंजाबियों को गोलबन्द कर भारत भेजने और ांति शुरू करने के लिए जोरदार मुहिम छेड़ दिया। उन्होंने भारतीय सेना में पैठ बनाने की योजना तैयार की और सैनिकों को इस बात के लिए प्रेरित करना शुरू किया कि वे ब्रिटिश साम्राय के लिए नहीं, बल्कि उनके खिलाफ लड़ें और भारत को ब्रिटिश साम्रायवाद की जंजीरों से मुक्त कराएं। बर्लिन में भारतीय ांतिकारी समाज ने जर्मनी से पर्याप्त आर्थिक मदद की व्यवस्था कर ली थी। वाशिंगटन स्थित जर्मन दूतावास ने अमेरिका में रह रहे एक जर्मन नागरिक को सैन फ्रान्सिस्को में गदन नेतृत्व के साथ सम्पर्क रखने का जिम्मा दिया था। हथियार व गोला-बारूद और भारतीय ांतिकारियों के दस्तों (करीब 6000) को भारत भेजने के लिए कई जहाजों की व्यवस्था की गई थी या किराये पर लिए गए थे।जर्मनी के अलावा, गदरवादियों ने अन्य ब्रिटिश विरोधी सरकारों से भी मदद की गुजारिश की थी। दिसम्बर 1915 में, उन्होंने अफगानिस्तान के काबुल में निर्वासित आजाद हिन्दुस्तान सरकार की स्थापना की। राजा मोहिन्दर प्रताप को राष्ट्रपति, बरकतुल्ला को प्रधानमंत्री और चम्पक रमण पिल्लई को विदेश मंत्री बनाया गया था। इस निर्वासित सरकार ने उन देशों के साथ राजनयीक सम्बन्ध बनाने का प्रयास किया जो प्रथम विश्व युध्द में ब्रिटेन के खिलाफ थे, जैसे कि टर्की, जर्मनी, जापान, आदि। गदरवादियों ने हांगकांग, सिंगापुर और कुछ अन्य देशों में भारतीय सेनाओं के साथ सम्पर्क स्थापित किया और अंग्रेजों के खिलाफ जन बगावत में उनकी भागीदारी की उम्मीद की। ब्रिटिश सरकार ने गदर आन्दोलन को कुचल देने का प्रयास किया और गदर पार्टी में एकदम शुरू से ही घुसपैठ करने के लिए भाड़े के एजेन्टों को नियुक्त किया था । हरदयाल गदर पत्रिका में अपने लेखों के जरिए देशवासियों को इन ब्रिटिश जासूसों से सावधान रहने को कहा करते थे । गदर आन्दोलन के गद्दारों ने ब्रिटिश जासूसों को गुप्त योजना जाहिर कर दी। परिणामस्वरूप, हथियार और गोला-बारूद ले जा रहे जहाज कभी भी भारत नहीं पहुंच सके। जर्मनी की योजना हथियार और गोला-बारूद लेकर और भी जहाज भारत भेजने की थी। लेकिन पहले भेजे गए जहाजों का हश्र देखकर इस उपम में जर्मनी की रूचि नहीं रह गई। गदर पार्टी के अनेक सदस्यों और स्वयंसेवक लड़ाकों को भारत पहुंचते ही गिरफ्तार कर लिया गया ।कुछ सयि गदर कार्यकर्ता गिरफ्तारी से बच निकले थे। इसमें करतार सिंह सराभा और विष्णु गणेश पिंगले भी शामिल थे । उन्होंने रासबिहारी बोस और भारत के अन्य विख्यात ांतिकारियों के साथ गठबंधन कायम किया। वे ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने के लिए भारत आए थे और उन सभी ताकतों के साथ एकताबध्द होकर काम करना चाहते थे भारत की मुक्ति के लिए काम कर रहे थे। उन्होंने जनता को एकजुट करने का पूराजोर प्रयास किया और सशस्त्र सेना की विभिन्न यूनिटों में घुसपैठ करने की कोशिश की। लेकिन ब्रिटिश जासूसों ने उन्हें मात दे दी । उन्हें गांधी और भारत की आजादी के आन्दोलन के अन्य नेताओं का समर्थन भी नहीं मिला, जो पहले ही प्रथम विश्व युध्द में ब्रिटिश भारत सरकार के साथ पूर्ण सहयोग का ऐलान कर चुके थे।भारत के लिए रवाना होने से पहले गदरवादियों के सामने यह तस्वीर पेश की गई थी कि भारत क्रांति के लिए तैयार है। इसलिए, जब प्रथम विश्व युध्द ने अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उन्हें सुनहरा मौका प्रदान किया तो वे ांति के लिए आनन-फानन में स्वदेश चल पड़े थे। कैसी विडम्बना है; जहां गदरवादी अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए इच्छापूर्वक लड़ने के लिए भारत आ रहे थे, वहीं भारतीय नेतृत्व खुले तौर पर और इच्छापूर्वक ब्रिटिशों के साथ सहयोग करते हुए भारत की गुलामी कायम रखे था; जहां विदेशों में रह रहे भारतीय गुरूद्वारों और मंदिरों में गदरवादी मिशन की कामयाबी की दुआ कर रहे थे, वहीं भारत के लोग गुरूद्वारों और मंदिरों में जाकर ब्रिटिशों की जीत के लिए प्रर्थाना कर रहे थे। गदरवादियों के दिलों में आजादी की आग जल रही थी और उन्हें अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता, सम्मान और समृध्दि के उद्देश्य के लिए कोई भी कुर्बानी देने में झिझक नहीं थी। वे अपने लक्ष्य के लिए वीरतापूर्वक लड़े । भारत में कई गदरवादी गिरफ्तार हुए, कई को आजीवन कारावास की सजा हुई और कुछ को फांसी दे दी गई । अमेरिका में भी कई गदरवादियों और गदर की गतिविधियों का समर्थन करने वाले जर्मनों पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें अलग-अलग समय के लिए कारावास की सजा दी गई। हालांकि गदर आन्दोलन अपने घोषित लक्ष्य को हासिल नहीं कर सका, लेकिन इसने सोए हुए भारत को जगा दिया और भारत की आजादी की लड़ाई पर गहरा असर डाला। गदर आन्दोलनकारियों की वीरता, साहस और बलिदान ने अनेक स्वतंत्रता संग्रामियों को उनके मिशन को जारी रखने के लिए प्रेरित किया ।गदर पार्टी का निर्माण साप्ताहिक पत्रिका गदर को केन्द्र में रखकर की गई थी, जिसके प्रथम पृष्ठ पर शीर्षक के साथ लिखा था: अंगरेजी राज का दुश्मन। गदर ने घोषणा की थी: ''आवश्यकता है भारत में बगावत के लिए बहादुर सिपाहियों की; वेतन - मौत; कीमत - शहादत; पेन्शन - स्वतंत्रता; रणभूमि - भारत।'' गदर पार्टी की विचारधारा पूरी तरह धर्म निरपेक्ष थी। सोहन सिंह भखना, जो आगे चलकर पंजाब के एक बड़े किसान नेता बने थे, उनके शब्दों में: ''हम सिख या पंजाबी नहीं थे । हमारा धर्म देशभक्ति था।'' 1 नवम्बर 1913 को सैन फ्रान्सिस्को से गदर का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ था । 1914 में कोमागाटा मारू जहाज की घटना कनाडा के नस्लवादी भारतीय प्रवासी विरोधी कानून के लिए सीधी चुनौती थी। (कोमागाटा मारू एक जापानी पानी का जहाज था जो पंजाब से 376 यात्रियों को लेकर सिंगापुर, चीन और जापान होते हुए कनाडा के वैन्कुवर पहुंचा था। लेकिन कनाडा के अधिकारियों ने एशियाई मूल के प्रवासियों के प्रवेश पर प्रतिबंध के कानून की आड़ में यात्रियों को जहाज से उतरने नहीं दिया और बलपूर्वक वापस भारत भेज दिया। जब कोमागाटा मारू जहाज 27 सितम्बर 1914 को कलकत्ता बंदरगाह पहुंचा तो ब्रिटिश पुलिस ने इन्हें खतरनाक राजनीतिक आन्दोलनकारी बताते हुए बाबा गुरदीत सिंह एवं अन्य लोगों को गिरफ्तार करने का प्रयास किया। यात्रियों ने प्रतिरोध किया। पुलिस से झड़प हुई और पुलिस द्वारा गोली चलाए जाने से 19 लोगों की मौत हो गई। अन्य लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया।) इस घटना के बाद अमेरिका में रहने वाले हजारों भारतीयों ने अपना कारोबार और घरद्वार बेच कर भारत से ब्रिटिश को भगाने के लिए तैयार हो गए थे।हरदयाल यह सोच कर कि अमेरिकी अधिकारी उन्हें ब्रिटिश के हाथ सौंप देगें, यूरोप चले गए थे। सोहन सिंह भखना पहले ही ब्रिटिशों द्वारा गिरफ्तार किए जा चुके थे। इस तरह, नेतृत्व रामचन्द्र के हाथ में आ गया था । कनाडा के प्रथम विश्व युध्द में शामिल हो जाने के बाद, संगठन अमेरिका में केंद्रित हो गया था और जर्मन सरकार द्वारा उसे पर्याप्त धन दिया जा रहा था। संगठन अत्यन्त जुझारू स्वर में बोल रहा था, जो हरनाम सिंह के इस उध्दरण से जाहिर होता है: ''हमें किसी पंडित या मुल्ला की जरूरत नहीं है।''बीसवीं सदी के दूसरे दशक में गदर पार्टी मुखर होकर सामने आया था। ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रथम विश्व युध्द में भारत को शामिल कर लिए जाने और राजनीतिक सुधार से इन्कार कर दिए जाने की वजह से भारतीयों में काफी असंतोष था । इसलिए गदर पार्टी की ताकत तेजी से बढ़ी थी। गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जिस ांतिकारी गतिविधियों की शुरूआत की थी उसे अंग्रेज राजनीतिक आतंकवाद कहते थे, लेकिन यह यादातर भारतीयों के लिए एक ांति थी। 1917 में गदर आन्दोलन के कुछ नेताओं को गिरफ्तार किया गया था और उन पर हिन्दु जर्मन षड़यंत्र केस के नाम से मुकदमा चलाया गया था । कई गदर आन्दोलनकारियों को मौत की सजा दी गई, सैकड़ों को कालापानी की सजा देकर अंडमान-निकोबर के सेल्लुलर जेल में बन्द कर दिया गया और अन्य कई लोगों को ब्रिटिश भारत के लाहौर एवं अन्य जेलों में भेज दिया गया ।ब्रिटिश साम्रायवाद गदर आन्दोलन को कुचलने में सफल रहा था, लेकिन इसने आजादी की लड़ाई की जो मशाल जलाई थी वह आज भी भारत की ान्तिकारी जनता को प्रेरणा दे रही है जो देश को नव-उपनिवेशिक गुलामी के शिकंजे से मुक्त कराने के लिए दूसरी आजादी की लड़ाई छेड़ना चाहते हैं।