- डॉ. महीपाल सिंह राठौड़
राजस्थान स्वाधीनता प्रेमियों की प्रसविनी भूमि रही है। यहां के वीरों ने आदिकाल से ही भारतीय संस्कृति के प्रतिपालक के रूप में अपना सर्वस्व न्यौछावर किया है। पृथ्वीराज चौहान, हठी हमीर, जयमल और पत्ता, महाराणा कुंभा, महाराणा प्रताप, अमरसिंह राठौड़, दुर्गादास आदि स्वतंत्रता नायक रहे हैं जिनके नाम स्मरण से ही प्रत्येक भारतीय को गर्व की अनुभूति होती है।
दिल्ली की बादशाहत जब अंतिम दौर में थी तब अंग्रेजों ने व्यापारी वेश में दरबार में नजराना पेश कर व्यापार की अनुमति मांगी और वही व्यापारी कुछ समय पश्चात भारत वर्ष पर कब्जा कर बैठे। उनके पास सबसे बड़ा हथियार छल और कपट जिसमें में वे माहिर थे।
मुस्लिम शासन व्यवस्था के पतन के साथ ही राजस्थान पर मराठा और पिंडारियों के आक्रमण होने शुरू हुए और उन्होंने राजस्थान को बेरहमी से लूटा। गांवों को लूटकर जला देना आम बात थी। ऐसे दौर में अंग्रेज आए और यहां के शासक जो कि हमलों से त्रस्त थे, अंग्रेजों की अधीनता को स्वीकार कर अपनी गद्दी को बचाने में कामयाब रहे लेकिन इसी दौरान कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्होंने राजा द्वारा स्वीकार की गई अंग्रेजों की अधीनता को नकार दिया और संघर्ष का रास्ता अपना कर सन् 1857 की क्रांति में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। आटे में हड्डियों का चूरा मिलाए जाने की अफवाह सैनिकों पर अकारण अविश्वास के कारण 28 मई 1857 को राजस्थान के नसीराबाद छावनी से स्वाधीनता की सुगबुगाहट आरंभ हुई और शुरूआत में ही अंग्रेज अधिकारी न्यू बटी व के पैनी मारे गए। इन विद्रोहियों ने 15वीं व 300वीं बंगाल एनआई देशी पैदल सेना का विद्रोह किया और ये विद्रोही दिल्ली चले गए।
नसीराबाद के विद्रोह से प्रेरणा लेकर 3 जून, 1857 को नीमच छावनी में भी सैनिकों का विद्रोह आरंभ हुआ। यहां के अंग्रेज महिलाओं व बच्चों को किसान रुधाराम ने शरण दी और वहां से अंग्रेज शरणार्थी उदयपुर शासक स्वरूप सिंह के पास चले गए।
सन् 1836 में जोधपुर महाराजा मानसिंह ने अंग्रेजों से की गई संधि के अनुसार, 1.50 लाख रुपए देना स्वीकार किया और रणजीत सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों को यहां से बाहर खदेड़ने का प्रयास करते रहे।
अगस्त 1857 में एरिनपुरा लीजन द्वारा विद्रोह कर देने पर आऊवा ठाकुर व उनके सहयोगी मारवाड़ व मेवाड़ के सामंतों को अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े होने का चिर-प्रतीक्षित अवसर प्राप्त हो गया। इनमें आसोप के शिवनाथ सिंह, आलनियावास के अजीत सिंह व गूलर के विशन सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं। कैप्टन निक्सन के अनुसार जब ये सैनिक जोधपुर राज्य से होकर गुजर रहे थे तब आऊवा ठाकुर ने उन्हें अपनी सेवा में आने की पेशकश की। अंग्रेजी सत्ता को चुनौती देने वाले इस अभियान में बांता, भिमाळिया, रडावास, लांबिया, बीजावास, सलूम्बर, कोठारिया, लसाणी, आसींद व रूपनगर ठिकाने थे।
जोधपुर महाराजा तखतसिंह ने अपनी सेना को कम्पनी की सेवा में भेजकर आऊवा के विद्रोह को दबाने में पूरी ताकत झोंक दी। 7 सितंबर 1857 को अनाड़सिंह व कुशलराज सिंघवी ने आऊवा पर हमला कर दिया जिसमें ए.जी.जी. लारेंस ने लेफ्टिनेंट हीथ कोट को पांच सौ घुड़सवारों सहित अनाड़ सिंह को सामरिक सहायता उपलब्ध करवाई परन्तु आऊवा कहां झुकने वाला था। ए.जी.जी. लॉरेंस, जोधपुर को पॉलिटिकल एजेंट कैप्टन मॉन्क मेसन ने अपनी विदेशी बटालियन, सिंघवी कुशलराज व मेहता छतरमल जोधपुर की सेना का प्रतिनिधित्व करते हुए आऊवा पहुंच परन्तु आऊवा के योद्धाओं ने गोरों की फौज के दांत खट्टे कर दिए। आसोप ठाकुर शिवनाथ सिंह ने गोरों की फौज पर हमला कर तोपें छीन लीं और स्वयं युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। इस ऐतिहासिक घटना की साख यह लोक गीत भरता है-
आऊवौ नै आसोप घणियां मोतियां री माळा ओ बारै नांखौ कूंचियां तोड़ावो ताळा ओ झल्लै आऊवौ व्है हो झल्ले झल्लै आऊवौ आऊवौ धरती रौ थांबौ ओ झल्लै आऊवौ
पॉलिटिकल एजेंट मॉन्क मेसन ए.जी.जी. लॉरेन्स की मदद के लिए सीधा आऊवा की सेन्स की सेना के बीच पहुंच गया जहां वह आ•ाादी के दीवाने सिपली के ठाकुर संगत सिंह के हाथों मारा गया और फिरंगी का सिर काट कर गढ़ के द्वार पर लटका दिया गया।Ó इस लड़ाई में मेसन के रण खेत रहने का लोक मानस पर गहरा असर पड़ा। आमजन को यह एहसास हुआ कि वो भी बड़ी से बड़ी ताकत से लड़ सकते हैं। इसी बात को रेखांकित करती यह होरी आज भी मारवाड़ में गाई जाती है- ढोल बाज थाळी बाजै भेळो बाजै बांकियौ अजंट ने मारने दरवाजे नांखियौ जूझै आऊवौ हां रै जूंझै आऊवौ आऊवौ मुलकां में चावौ औ जूंझै आऊवौ जब बड़े-बड़े राजा अंग्रेजों के साथ थे, ऐसे में आऊवा ठाकुर कुशाल सिंह ने अंग्रेजों से लोहा लिया- मोटा मोटा ठिकाणा अंगरेजा लारै बोले ओ ठिकाणा रो ठाकर व्है ने कोनी हरियों रे कारण भाटा रौ गोरों से लोहा लेने को वीर उतावले हो रहे थे ऊंटा माथे अरठिया हस्ती रे माथे तोपां रे अरे लावो-लावो कूंचिया तोड़ावो ताला रे बगतर बारे लो हां, बगतर बारे लो झगड़े ही म्हारे मोटी मन में ओ बगतर बारे लो... होली के दिनों में गाये जाने वाले लोकगीत का उदाहरण देखिए- वाणिया वाळी गोचर मांय काळो लोग पड़ियों ओ राजाजी रे भेळो तो फिरंगी लड़ियों ओ काळी टोपी रो हे ओ काळी टोपी रो फिरंगी फेलाव कीघो ओ काळी टोपी रो बारली तोपाम रा गोळा घूड़गढ़ में लागे ओ मांयली तोपां रा गोळा तंबू तोड़े ओ झल्लै आऊवो हे ओ झल्ले आउवो आउवो धरती रो थांबो ओ झल्लै आऊवो मांयली तोपां तो छूटे आड़ावळो धूजे ओ आउवे रा नाथ तो सुगाळी पूजे ओ झगड़ो आदरियो राजाजी रा घोड़लिया काळां रे लारै दोड़ै ओ आउवे रा घोड़ा तो पछाड़ी तोड़े ओ झगड़ौ व्हैण दो हे ओ झगड़ो व्हैण दो झगड़ा में थांरी जीत व्हैला ओ झगड़ो व्हैण दो।
भावार्थ-आऊवे की धरती पर फिरंगी चढ़ आया है। उसको खदेड़ने की जरूरत है। हमारे राजा भी फिरंगी का पक्ष लेकर उसके साथ आ डटे हैं। यह गोरे रंग वाला और काली टोपी वाला है। निरंतर फैलाव कर रहा है।
छ: दिन तक घमासान युद्ध चला। युद्ध का भार ठाकुर पृथ्वी सिंह ने अपने ऊपर लिया और कुशाल सिंह को आबू के पहाड़ों से सुरक्षित भेज दिया। आउवा के ठाकुर को सुगाली माता का इष्ट था। युद्ध में आखिर छल-कपट की जीत हुई। परन्तु उन्होंने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार नहीं की। आज भी जनता उन वीरों की कुर्बानी को याद करती है।
अंग्रेज अपनी सैन्य शक्ति और कूटनीति के बल पर भारतीय शासकों को एक-एक कर अपने चंगुल में फंसाते जा रहे थे। जसवंत राव होल्कर जो तत्कालीन समय में एक शक्तिशाली शासक के रूप में जाना जाता था। अंग्रेजों द्वारा पीछा करने पर अपना राज्य छोड़कर भरतपुर राज्य के डींग के किले में जाकर शरण ली। डींग के पास होल्कर व अंग्रेज सेना के बीच भयंकर युद्ध हुआ। जिसमें 643 योद्धा काम आए जिनमें 22 अंग्रेज अफसर थे। होल्कर की करीब-करीब पूरी सेना काम आ गई। डींग का किला भरतपुर राज्य के अंतर्गत आता था और होल्कर को राजा रणजीत सिंह ने अंग्रेजों को नहीं सौंपा। अंग्रेजों को मजबूर होकर 1805 में संधि करनी पड़ी और होल्कर सही सलामत पंजाब की ओर चला गया। राजा रणजीत सिंह ने स्वतंत्रता के पुजारी का मान रखा। इसी संबंध का यह गीत फाल्गुन मास में चंग और डफ के साथ आज भी गाया जाता है-
आछो, गोरा हटजा राज भरतपुर को रे गोरा हट जा भरतपुर गढ़ बांको, किलो रे बांको गोरा हट जा यू मत जाणी रे गोरा लड़े रे बेटों जाट को ओ कंवर लड़े रे राजा दशरथ को रे गोरा हट जा
संवत 1895 में अंग्रेजों का विरोध करते हुए उनकी छावनियों को लूट कर आम जन में बांटने वाले स्वतंत्रता सेनानी डूंगजी जवारजी (डूंगर सिंह व जवाहर सिंह) को लोक गीतों में गाया जाता है। उनकी लोक गाथा गाई जाती है। उसी का एक उदाहरण प्रस्तुत है- फिरंगी तो पाछो फिरयौ स कोई करी न ज्यादा बात नाय भरोसे के करै स कोइ या रांघड़ की जात।
मारवाह रियासत ने संधि की शर्तों के अनुसार कंपनी को कर चुकाना तय किया। कई दिनों तक रियासत ने कर देने के मामले को लंबित रखा तब कंपनी का दबाव आने लगा तो तय किया कि सांभर व नावां की नमक की खानों की आमदनी दे दी जाएगी। जब वह भी नहीं दी गई तो कंपनी ने नमक उत्पादन क्षेत्र नांवा व सांभर को अपने कब्जे में ले लिया। बाजार में नमक की कमी आ गई। आम आदमी को नमक खाने को नहीं मिला उसी घटना की साख भरता यह लोकगीत है- म्हारौ राजा तो भोळो सांभर तो दे दी अंगरेज ने म्हारो टाबर भूखो रोटी तो मांगे तीखा लूण री
इसी तरह जब अंगरेज पहली बार अमरकोट (अब पाकिस्तान) में जमीन की पैमाइश करने गए तो यहां के शासक रतन राणा ने अंग्रेजों को जमीन पैमाइश नहीं करने दी और अंग्रेज अधिकारी का सर काट कर टांग दिया। लोकगीतों में रतन राणा की जनप्रिय छवि आज भी गाई जाती है-
म्हारा रतन राणा अेकर तो अमराणे घोड़ो फेर अमराणे घोर अंधार।
अंग्रेजों की चाल को लोक मानस ने भी खूब अच्छी तरह से समझ लिया था- देस में अंगरेज आयो कांई कांई हुनर लायो रे फूट म्हांखी भायां में बेगार लायो रे काळी टोपी रो अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने बाबू वर्ग को जन्म दिया- देस में अंगरेज आयो जबरो हुनर लायो रे कलम न चौपनिया लायो रे काळी टोपी रो घर-घर रा कंवळा काळा कीधा ओ काळी टोपी रो
स्वाधीनता आंदोलन की शुरुआत जिन लोगों ने अपने आरंभ बलिदान से की। गोरी फौजों से सामना किया और उन्हें भारत भूमि की वीरता का परिचय दिया वे वीर हमारे लिए वंदनीय है। उनके संघर्ष की साख भरते ये लोकगीत महारे पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना चाहिए ताकि हमारी लोक सांस्कृतिक धरोहर में वर्णित इतिहास की जानकारी आने वाली पीढ़ी को मिल सके। (साभार:मड़ई)