आज विश्व के अनेक क्षेत्रों में धर्मान्धता व कट्टरपन की लहर चल रही है जिसके अंतर्गत अनेक जन-विरोधी कार्य हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें उपनिषदों से एक बहुत दिल को छूने वाला संदेश मिलता है। ऋषि-मुनि दीक्षांत प्रवचन के समय शिष्यों से कहते हैं, ''हमारे जो कर्म ग्रहण करने योग्य हैं उनको ही ग्रहण करो। हमारे जो क्रिया कलाप चरित्र है उनमें जो अच्छे हैं उनको ही अपने जीवन में उतारो।'' दूसरे शब्दों में, किसी तरह का कट्टरपन या धर्मान्धता नहीं है। महान ऋषि मुनि स्वयं कह रहे हैं कि जो कुछ हमारे यहां देखा-सीखा है उसे अपने तर्क पर परखो, धर्मसंगत लगे तभी अपनाओ। सबसे बड़ा धर्म क्या है और सबसे बड़ा अधर्म क्या है, इसके विषय में तुलसीदास जी ने लिखा है,
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
अर्थात् दूसरे के हित के समान धर्म नहीं है। अत: स्पष्ट है कि जो नफरत की विचारधारा फैला कर दंगे करवा रहे हैं- ऐसे दंगे जिनमें हजारों लोगों को कष्ट होता है वे गोस्वामी जी की मान्यता के अनुसार सबसे बड़ा अधर्म कर रहे हैं।
भारत में ही नहीं विश्व में भी रामकथा जैसी बेहद रोचक, प्रेरणादायक व जन-जीवन में गहरा स्थान बनाने वाली पौराणिक कथा के बहुत कम उदाहरण हैं। पौराणिक कथाओं को जहां एक ओर वर्तमान संदर्भ में नई स्थितियों के अनुकूल प्रेरणादायक रूप में प्रस्तुत करने की जरूरत है, वहां इन्हें शरारती व विघटनकारी तत्वों के कुप्रचार से भी बचाने की जरूरत है।
रामायण के नायक राम के जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि उनका अधिकतर समय अत्याचार के विरुद्ध लड़ते हुए बीता। बहुत कम उम्र में राम व लक्ष्मण राक्षसों द्वारा अत्याचार की खबर सुनकर सब तरह की मोह-माया छोड़ वनों की ओर निकल पड़ते हैं, उससे बाल्मीकि रामायण व रामचरित मानस इन ग्रंथों में वह प्रतिष्ठित किया गया है कि अत्याचारों का सामना व उनका दमन करना इतना आवश्यक काम है कि उसके लिए आवश्यकता पड़ने पर राजा अपने सुकुमार पुत्रों की जान भी खतरे में डाल उन्हें वन भेज सकता है।
गंगा नदी को पार कर राम-लक्ष्मण ने एक उजड़े, वीरान, भयंकर वन को देखा। पूछने पर विश्वामित्र ने बताया कि यह राक्षसी ताड़का व उसके पुत्र मारीच का दमन क्षेत्र है। ''यह भयानक आकार वाला राक्षस यहां की प्रजा को सदा ही त्रास पहुंचाता है। रघुनंदन! यह दुराचारिणी ताड़का भी सदा मलंद और करुप-इन दोनों जनपदों को विनाश करती रहती है। उस राक्षिणी ने ही इस सारे देश को उजाड़ दिया है और आज भी अपने इस कू्रर कर्म से निवृत नहीं हुई है।'' इसके बाद की घटनाओं में राम-लक्ष्मण ने ताड़का, मारीच, सुबाहू व उनके अनुचरों का वध किया या उन्हें निकाल बाहर किया। यह मानस में संक्षेप में व रामायण में विस्तार से बताया गया है।
अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष का दूसरा चरण वह है जब वनवास के समय राम ने वनों को एक बार फिर राक्षसों के अत्याचार से पीड़ित पाया। मानस में बताया गया है- हड्डियों का ढेर देखकर श्री रघुनाथ जी को बड़ी दया आई। उन्होंने इस बारे में मुनियों से पूछा। उत्तर मिला, राक्षसों ने जिन मुनियों को खा डाला है, यह उन्हीं की हड्डियों के ढेर हैं। यह सुनते ही राम के नेत्रों में जल छा गया व उन्होंने राक्षसों के वध की प्रतिज्ञा की। विराध व खरदूषण इन राक्षसों के राम-लक्ष्मण द्वारा वध की बात भी मानस में बताई गई है।
बाल्मीकि रामायण में त्रस्त मुनि राम से कहते हैं, ''पम्पा सरोवर व उसके निकट बहने वाली तुंगभद्रा नदी के तट पर जिनका वास है, जो मन्दाकिनी के किनारे रहते हैं तथा जिन्होंने चित्रकूट पर्वत के किनारे अपना निवास स्थान बना लिया है, उन सभी ऋषि-महर्षियों का राक्षसों द्वारा महान संहार किया जा रहा है अत: इन राक्षसों से बचने के लिए शरण लेने के उद्देश्य से हम आपके पास आए हैं,'' राम ने उत्तर दिया, ''आपकी सेवा का अवसर मिलने से मेरे लिए यह वनवास महान फलदायक होगा। तपोधनों! मैं तपस्वी मुनियों से शत्रुता रखने वाले उन राक्षसों का युद्ध में संहार करना चाहता हूं।''
यह स्पष्ट रूप से तो नहीं बताया गया है पर राम-लक्ष्मण व सीता के आने से वनवासियों की जो बहुत प्रसन्नता दिखाई गई है, उसका कारण भी शायद अत्याचार से मुक्ति की आशा रही हो। खैर, विराध, खरदूषण व कबन्ध जैसे राक्षसों का छिटपुट वध तो अत्याचार का कोई दीर्घकालीन समाधान हो नहीं सकता था। अत: इसके लिए राम ने असुर शक्ति के मुकाबले की एक बड़ी विरोधी सेना संगठित करने का निर्णय लिया।
राम ने सुग्रीव को राक्षसों के विरुद्ध लड़ाई में अपना साथी बनाया व युद्ध के लिए दूर-दूर से वानर, रीछ, लंगूर सैनिक एकत्र हुए। ध्यान रखें कि सुग्रीव के पहले ही परिचय में बाल्मीकि रामायण में उन्हें बंदर नहीं अपितु वानर जाति का पुरुष बताया है जो वीर होने के बावजूद राक्षसों की केन्द्रित शक्ति व वैभव के आगे बेबस व दबे हुए लोगों का जीवन बिता रहे थे।
समाज के इसी उपेक्षित तबके से राम ने ऐसी सेना संगठित की जिसने उस समय की सबसे शक्तिशाली व साधन सम्पन्न सेना को हराया।
स्पष्ट है कि रामायण में जो अनेक संदेश हैं उनमें अत्याचार के विरुद्ध कमजोर तबके का संगठित होकर लड़ने का संदेश एक महत्वपूर्ण संदेश है। अभिजात वर्ग के न्याय प्रिय लोगों से अपेक्षा की गई है कि इस लड़ाई में वे कमजोर पक्ष का साथ दें, चाहे कष्ट सहना पड़े। जरूरत हो तो वे स्वयं जंगल-जंगल में घूमकर यह संगठन कार्य करें, अत्याचारियों से युद्ध की तैयारी में सहयोग दें।
श्रीराम का मानस में जो चरित्र बताया गया है, उसमें बार-बार कहा गया है कि वे दुख मिटाने वाले व करुणा के सागर थे। उनके चरित्र का जो वर्णन किया गया है उससे स्पष्ट हो जाता है कि जन साधारण के प्रति किसी प्रकार के भेदभाव, वैर, नफरत की भावना उनके लिए असहनीय थी। उनके लिए गरीब नवाज शब्द का उपयोग भी हुआ है और दीनदयाल शब्द का भी। उन्हें ''क्रोध और भय का नाश करने वाले तथा सदा क्रोध रहित'' कहा गया है। उनके नाम को सब भयों का नाश करने वाला और बिगड़ी बुद्धि को सुधारने वाला बताया गया है। उनके नाम को 'उदार नाम' और 'कल्याण का भवन' भी कहा गया है। सुंदरकांड में उनके स्वभाव को 'अत्यंत ही कोमल' बताया गया है। श्री राम के ऐसे चरित्र को किसी सांप्रदायिक सोच या प्रचार से जोड़ा जाए, यह सुबुद्धि से बाहर की चीज है।
उत्तरकांड में नगरवासियों की सभा में गुरुजनों, मुनियों की उपस्थिति में कहे राम के उपदेश वचन दिए गए हैं। इनमें बताया गया है कि भक्त में कौन से गुण आवश्यक हैं व कौन सी बातों से भक्त को दूर रहना चाहिए। राम कहते हैं, ''कहो तो, भक्ति मार्ग में कौन सा परिश्रम है? इसमें न योग की आवश्यकता है, न यज्ञ, तप, जप और उपवास की। (यहां इतनी ही आवश्यकता है कि) सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखें।'' भक्त किन बुराइयों से दूर रहे, इस बारे में स्पष्ट कहा गया है। ''न किसी से बैर करें, न लड़ाई झगड़ा करें।'' सबसे महत्वपूर्ण तो इससे अगली चौपाई है जिसमें राम कहते हैं, ''संतजनों के संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहां तक कि स्वर्ग और मुक्ति तक (भक्ति के सामने) तृण के समान हैं, जो भक्ति के पक्ष में हट करता है, पर (दूसरे के मत का खंडन करने की) मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है।'' इस तरह भक्त की परिभाषा की गई है।
यह स्पष्ट है कि अपने धर्म में आस्थावान लोगों व भक्तों की जो व्याख्या मानस में की गई है, इसमें दूसरे धर्मों या मतों के प्रति विरोध या वैर का थोड़ा सा भी स्थान नहीं है। सच्चा आस्थावान व भक्त व्यक्ति वही बताया गया जो वैर व विरोध की भावनाओं से मुक्त हो।
अयोध्याकांड में भी राम के भक्तों की परिभाषा इसी भावना के अनुकूल की गई है-'राम भगत परहित निरत पर दुखी दयाल' अर्थात् राम के भक्त सदा दूसरों के हित में लंगे रहते हैं, दूसरे के दुख से दुखी और दयालु होते हैं।
बाल्मीकि रामायण और रामचरित मानस की एक उल्लेखनीय बात यह है कि बहुत कम पृष्ठों में राम को राजा के रूप में दिखाया गया। है। राज्याभिषेक से पहले तो वे वैसे ही आश्रमों, वनों में घूम यहां राक्षसों का आतंक दूर करते रहे, जब यहां से लौट राज्यभिषेक का समय आया तो उन्हें फिर 14 वर्ष का वनवास हो गया। इन ग्रंथों के बड़े भाग में इस वनवास की ही कहानी है। उनके अयोध्या लौटने के बाद की कहानी तो अपेक्षाकृत कहीं कम है, रामचरित मानस में तो बहुत ही कम। आश्चर्य है कि राम को राजा के रूप में इतना कम दिखाने पर भी इन ग्रंथों ने, विशेषकर मानस ने, भारतीय जन-जीवन में 'राम-राज्य' की अवधारणा बहुत गहरे तौर पर बिठा दी है। जब कभी आम बोलचाल में आदर्श राज्य या शासन की बात कही जाती है, तो 'राम-राज्य' शब्द का उपयोग लगभग निश्चित ही किया जाता है। अत: यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि ठीक-ठीक समझा जाए कि इन ग्रंथों के माध्मय से जो रामराज्य प्रतिष्ठित किया गया है, उसकी मुख्य विशेषताएं क्या हैं।
मानस में जहां राजद्वार सुंदर बताये गए हैं, वहां आम आदमी के उपयोग के गलियां, चौराहे और बाजार ये सब भी सुंदर बताए गए हैं। इन की सुविधाओं का उपयोग भी लोग समानता के स्तर पर करते हैं। राजघाट को सब प्रकार से सुंदर और श्रेष्ठ बताया गया है क्योंकि यहां चारों वर्गों के पुरुष स्नान करते हैं।
खान-धन (खनिजों) की समृद्धि बताई गई है, पर साथ ही इस पर भी जोर दिया गया है कि आम आदमी की आजीविका के साधनों-कृषि व पशुपालन में बहुत समृद्धि थी। वन-धन का भी बाहुल्य था।
आज विश्व के अनेक क्षेत्रों में धर्मान्धता व कट्टरपन की लहर चल रही है जिसके अंतर्गत अनेक जन-विरोधी कार्य हो रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें उपनिषदों से एक बहुत दिल को छूने वाला संदेश मिलता है। ऋषि-मुनि दीक्षांत प्रवचन के समय शिष्यों से कहते हैं, ''हमारे जो कर्म ग्रहण करने योग्य हैं उनको ही ग्रहण करो। हमारे जो क्रिया कलाप चरित्र है उनमें जो अच्छे हैं उनको ही अपने जीवन में उतारो।'' दूसरे शब्दों में, किसी तरह का कट्टरपन या धर्मान्धता नहीं है। महान ऋषि मुनि स्वयं कह रहे हैं कि जो कुछ हमारे यहां देखा-सीखा है उसे अपने तर्क पर परखो, धर्मसंगत लगे तभी अपनाओ। सबसे बड़ा धर्म क्या है और सबसे बड़ा अधर्म क्या है, इसके विषय में तुलसीदास जी ने लिखा है,
परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
अर्थात् दूसरे के हित के समान धर्म नहीं है। अत: स्पष्ट है कि जो नफरत की विचारधारा फैला कर दंगे करवा रहे हैं- ऐसे दंगे जिनमें हजारों लोगों को कष्ट होता है वे गोस्वामी जी की मान्यता के अनुसार सबसे बड़ा अधर्म कर रहे हैं।
अन्यत्र तुलसीदास लिखते हैं
सियाराम मैं सब जग जानी।
करऊ प्रणाम और जुग जानी।