भारत के तकनीकी संस्थान अपनी बेहतरीन शिक्षा और रोजगार अवसर के लिए जाने जाते है. इसके बावजूद, यह अवसर अक्सर उच्च वर्ग तक ही सीमित रह जाते हैं. आरक्षण से छात्रों को इन संस्थानों में प्रवेश मिलने पर भेदभाव सहना पड़ता है.
अमित (बदला हुआ नाम) को जब दिल्ली के आईआईटी में दाखिला मिला तो वह बहुत खुश थे. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, " मैं इतने अच्छे संस्थान में पढ़ने के लिए और जो मौके मुझे यहां मिलेंगे, उनको लेकर उत्साहित था.”
आईआईटी भारत के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में से एक है. यहां दाखिला लेने के लिए छात्रों को कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है और यहां से पढ़ने के बाद छात्रों को बेहतरीन दर्जे की नौकरियां मिलती हैं.
देश भर में कुल मिलाकर 23 आईआईटी है, जो अपने बेहतरीन शोध, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए जाने जाते हैं. लेकिन इन संस्थानों में दाखिला पाना बेहद मुश्किल होता है क्योंकि कठिन प्रवेश परीक्षा के बाद केवल 0.5-2.5 फीसदी छात्रों को ही प्रवेश मिल पाता है.
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अमित ने बताया, "लेकिन मैं कैंपस में जातिवाद का सामना करने के लिए तैयार नहीं था. पहले साल मेरा वजन बहुत घटा गया था और मुझे लगातार ऐसा महसूस होता था कि जैसे मैं यहां का हूं ही नहीं. हालांकि मैंने डटे रहने का फैसला किया लेकिन यह बिल्कुल भी आसान नहीं था.”
भारत के संविधान में ऐतिहासिक रूप से पिछड़े कुछ समुदायों को आगे बढ़ाने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है, जिससे इन समुदायों के छात्रों को उच्च शिक्षा का मौका मिल सकें.
उन्होंने आगे बताया, "जब मेरे साथ वालों को पता चला कि मैं आरक्षित वर्ग से आता हूं, तो उन्होंने मेरे साथ अलग व्यवहार करना शुरू कर दिया.”
दक्षिण एशियाई देशों में जाति को व्यक्ति की सामाजिक स्थिति से जोड़कर देखा जाता है और इन तबकों के लोगों को अक्सर भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
अमित ने बताया, "उच्च जाति के छात्रों का अपना अलग समूह था और मैं खुद को अकेला और अलग-थलग महसूस करता था. लोग ताना मारते थे कि कई अन्य योग्य उम्मीदवार रहे होंगे लेकिन उनकी जगह मुझे मेरी जाति की वजह से दाखिला मिला गया.”
कैंपस में जातीय भेदभाव
अमित का अनुभव अनूठा नहीं है. आईआईटी दिल्ली की सबसे हालिया, 2019 की रिपोर्ट में उजागर हुआ था कि ऐतिहासिक रूप से वंचित जातियों से आने वाले 75 फीसदी छात्रों को जातीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ता है.
इस स्टडी में यह भी पाया गया कि "जनरल कैटेगरी” के लगभग 59 फीसदी छात्र इन जाति आधारित टिप्पणियों से या तो सहमति रखते थे या फिर उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता.
भारत के सरकारी संस्थानों में ऐतिहासिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए आरक्षण के तहत कुछ सीटें आरक्षित रखी जाती हैं ताकि शिक्षा में समानता लाई जा सके. लेकिन कई सामान्य वर्ग के छात्र और शिक्षकों का मानना है कि इससे प्रतिभाशाली छात्र प्रभावित होते हैं.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के प्रोफेसर सुरिंदर सिंह जोधका ने डीडब्ल्यू को बताया, "आईआईटी जैसी संस्थाएं सामान्य और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती हैं. वह चाहते हैं कि यह जगह सिर्फ उनके लिए ही हो जैसा कुछ सालों पहले तक था भी, जब तक आरक्षण ठीक से लागू नहीं हुआ था.”
उन्होंने यह भी कहा, "ऐसे माना जाता है कि वंचित वर्गों के छात्रों को सिर्फ आरक्षण की वजह से सफलता मिली है जबकि सामान्य वर्ग के छात्र ने इसे अपनी मेहनत से हासिल किया है.”
जोधका का मानना है, "यह भेदभाव बहुत अजीब तरह से गढ़ा गया है लेकिन अब यह संस्थानों के भीतर तक बस चुका है. इसे लोग सामान्य मानने लगे हैं और यह दाखिले से लेकर नौकरी तक हर स्तर पर देखा जा सकता है.”
छात्रों को किस तरह के भेदभावों का सामना करना पड़ता है?
आईआईटी बॉम्बे के एक छात्र ने नाम उजागर नहीं करने की शर्त पर डीडब्ल्यू को बताया कि अक्सर छात्रों के सरनेम से ही उनकी जाति का पता चल जाता है क्योंकि भारत में सरनेम जातीय पहचान का प्रतीक होते हैं.
उन्होंने बताया, "कैंपस में जाति के आधार पर एक तरह का अलगाव देखा जा सकता है. कुछ जनरल कैटेगरी के सहपाठी अच्छा व्यवहार तो अवश्य करेंगे लेकिन वे भी कभी-कभी जातीय टिप्पणियां कर देंगे, ‘रिजर्वेशन किड्स' कहकर बुलाएंगे या सोशल मीडिया पर आरक्षण के खिलाफ पोस्ट शेयर करते नजर आ जाएंगे.”
उन्होंने आगे कहा, "हाल ही में आईआईटी कैंपस में बड़े-बड़े रेस्तरां और कॉफी शॉप खुलने लगे हैं. यह जगहें हमारे जैसे आरक्षित वर्ग के कई छात्रों के लिए महंगी होती हैं, जिससे भेदभाव और अलगाववाद की भावना और बढ़ती है."
2023 में घटित, पहले साल के छात्र, 18 वर्षीय दर्शन सोलंकी की आत्महत्या का मामला अभी भी छात्रों के दिमाग में जिंदा है.
उनके परिवार और दोस्तों ने बताया था कि उनकी मौत से पहले उन्हें कैंपस में जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ा था. हालांकि विश्वविद्यालय की पड़ताल में इसके "कोई ठोस प्रमाण" नहीं मिले.
अमित ने कहा, "हर बार यह कह दिया जाता है कि इन छात्रों ने पढ़ाई के दबाव या किसी अन्य समस्या के कारण आत्महत्या की, लेकिन कोई हमारी सम्स्याओं को नहीं समझना चाहता है, जो हमें पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने से रोकती हैं."
दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर नारायण सुकुमार ने जातीय भेदभाव और विश्वविद्यालयों में सामाजिक बहिष्कार पर किताब लिखी है. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "जब भी कैंपस में कोई आत्महत्या होती है, प्रशासन माता-पिता को शांत करने की कोशिश करता है और कहता है कि वह सब कुछ देख लेंगे."
उन्होंने आगे कहा, "लेकिन वह कैंपस में किसी भी तरह के विरोध प्रदर्शन की इजाजत नहीं देते हैं. अगर कोई प्रदर्शन करने की कोशिश करता है तो प्रशासन उनको दंडित करता है और पूरी तरह से उनकी आवाज दबाने की कोशिश की जाती है."
जातीय भेदभाव पर संस्थानों की प्रतिक्रिया
हाल के वर्षों में कई आईआईटी ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति सेल बनाए हैं ताकि कैंपस में जातीय भेदभाव को रोका जा सके. इनका उद्देश्य छात्रों की शिकायतों को सुलझाना और यह सुनिश्चित करना है कि दाखिले और भर्तियों में आरक्षण नीति का सही ढंग से पालन हो.
आईआईटी बॉम्बे जैसे कुछ संस्थानों ने इससे भी आगे बढ़कर जाति जागरूकता कोर्स शुरू किए हैं और कैंपस में होने वाले भेदभाव को समझने के लिए सर्वेक्षण भी शुरू किए हैं.
भारत के शिक्षा मंत्रालय ने आईआईटी समेत सरकार से धन पाने वाले सभी विश्वविद्यालयों को निर्देश दिया था कि सितंबर 2022 तक आरक्षित श्रेणी वाले सभी पदों को भरा जाए.
आईआईटी बॉम्बे के छात्र संगठन, अंबेडकर पेरियार फुले स्टडी सर्कल को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत मिली जानकारी के अनुसार, 2023 तक आईआईटी दिल्ली के 14 विभागों और आईआईटी बॉम्बे के 8 विभागों में आरक्षित श्रेणी से कोई भी फैकल्टी सदस्य नहीं था.
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इस पर प्रतिक्रिया देते हुए आईआईटी बॉम्बे के निदेशक श्रीरीश केदरे ने बयान दिया कि संस्थान बेहतरीन उम्मीदवारों को नियुक्त करने का प्रयास कर रहा है, लेकिन कई बार उम्मीदवार आरक्षित श्रेणी के बजाय सामान्य श्रेणी में आवेदन करते हैं.
सुकुमार ने कहा, "हां, फैकल्टी में विविधता होना फायदेमंद होगा लेकिन बदलाव शीर्ष स्तर पर भी होने चाहिए. ज्यादा से ज्यादा आईआईटी निदेशकों को जातीय भेदभाव को लेकर जागरूक और सक्रिय होना होगा. हालांकि एससी/एसटी सेल है, जिन्हे छात्रों के हित में काम करना चाहिए लेकिन हकीकत में यह भी विश्वविद्यालय के लिए ही काम करता है."