— वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली
आम जन यमुना की पीड़ा व उसके दम तोड़ने को उसमें बहते कूड़े-कचरे, उठते झागों में ही नहीं देख सकता, बल्कि यमुनोत्री में धवलता, शुभ्रता की शुरूआत लिये यमुना को सहारनपुर जिले से इलाहाबाद तक की 1370 किमी की दूरी में पीली, काली, भूरी होते भी देख सकता है। प्रयागराज प्रवेश के पहले भी यमुना प्रदूषण-जनित धूसरित कालिमा लिये होती है।
प्रयागराज का महाकुभ हमें मौका दे रहा था कि पवित्र, पूज्य यमुना नदी को शुध्दजल से पोषित नदी बनाने पर वाक्युद्ध समाप्त कर कर्मयुद्ध का प्रारंभ होता। दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान यमुना प्रदूषण पर राजनैतिक बयानबाजियों की शुरूआत हुई थी। दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा 'छठ पूजा' पर रोक के आदेश और फिर 'यमुना को हरियाणा से जहरीली बनाकर भेजा जा रहा है' - जैसे आरोपों का द्वंद्व 'चुनाव आयोग' व न्यायालयों तक भी पहुंच गया था। चुनौतियां दिल्ली में 'यमुना जल पीकर दिखाने' तक पर आ गई थी।
अंतत: चुनाव प्रचार के अंतिम चरण में दिल्ली पहुंचे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने प्रयागराज महाकुंभ का प्रसंग छेड़ दिया था। चुनौती भरे लहजे में उनका कहना था कि जैसे महाकुंभ में उन्होंने अपने मंत्रीमण्डलीय सहयोगियों के साथ संगम में डुबकी लगाई थी, क्या वैसे अरविंद केजरीवाल और दिल्ली राज्य की 'आप कैबिनेट' कर सकती है?
महाकुंभ तो समाप्त हो गया, लेकिन उत्तरप्रदेश सरकार भविष्य के लिये इस लक्ष्य को अपनी चुनौती बना सकती है कि यमुना को प्रयागराज पहुंचने के पहले पूरी तरह से प्रदूषण-मुक्त कर, उसमें यमुनोत्री से चले मूल जल की मात्रा बढ़ाकर, श्रद्धालुओं की डुबकी के लिये इंतजाम कर दिखायेंगे। जिस दिल्ली में यमुना के प्रदूषण पर मुख्यमंत्री योगी दिल्ली के चुनावी दंगल में चुनौती दे रहे थे, उस दिल्ली में यमुनोत्री से चला दस प्रतिशत भी जल उसमें नहीं रहता। नब्बे प्रतिशत से ज्यादा जल राह में निकाल लिया जाता है। इसलिये समझ लें कि यमुना, जो दिल्ली के आगे आगरा, मथुरा और संगम तक भरी-पूरी दिख रही है, उसका बहुत बड़ा अंश अनुपचारित-उपचारित सीवर जल का ही होगी।
आम जन यमुना की पीड़ा व उसके दम तोड़ने को उसमें बहते कूड़े-कचरे, उठते झागों में ही नहीं देख सकता, बल्कि यमुनोत्री में धवलता, शुभ्रता की शुरूआत लिये यमुना को सहारनपुर जिले से इलाहाबाद तक की 1370 किमी की दूरी में पीली, काली, भूरी होते भी देख सकता है। प्रयागराज प्रवेश के पहले भी यमुना प्रदूषण-जनित धूसरित कालिमा लिये होती है। वर्तमान में तो यमुना देश की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है। संवेदित जन, संवेदित संत, संवेदित राजनेता, संगम में डुबकी लगाने वाले करोड़ों आम लोग प्रदूषण-मुक्त या न्यूनतम प्रदूषण ढोती यमुना को संगम में पहुंचाने के लिये संकल्पित हो जाते तो दिल्ली में भी यमुना की दशा सुधरने में मदद मिल जाती।
'राष्ट्रीय हरित अधिकरण' के महाकुंभ में निर्देश के पीछे उसके तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस एके गोयल की यह तीखी टिप्पणी भी है कि जो अनजान, भोले श्रद्धालु बहुत आदर भाव से गंगाजल में नहाते हैं व उसे पीते हैं, वे इससे होने वाले स्वास्थ्य के खतरों से अनभिज्ञ होते हैं। अब आवश्यकता है कि धूम्रपान के खतरों से बचाने के लिए सिगरेट के पैकेटों पर छपी चेतावनियों की ही तरह गंगाजल के उपयोग के खतरों की चेतावनियां देकर आमजन के जीवन के अधिकार को सुरक्षित किया जाये। तब गंगा सफाई के राष्ट्रीय मिशन और 'केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड' को भी दो सप्ताहों के भीतर अपनी-अपनी वेबसाइटों पर प्रमुखता से यह दिखाने के लिए कहा गया था कि किन-किन स्थानों पर गंगाजल नहाने व पीने के लिए ठीक है, कहां नहीं।
कुंभ समाप्ति के बाद भी नदी जल की शुद्धता सवालों के घेरे में रही है, किन्तु ऐसा भी नहीं है कि नदियों, सरोवरों के प्रदूषित होने की चेतावनियों के बाद आस्थावान इनमें डुबकी न लगायें या आचमन करने का जोखिम न उठायें। खतरनाक प्रदूषित यमुना में डुबकी लगाने व आचमन करने का जोखिम श्रद्धालु निरंतर सालों से उठा रहे हैं। दिल्ली में ही 'छठ पूजा' में महिलायें यमुना के झाग में नहा रही थीं। इसकी तस्वीरें दिखाकर दिल्ली के मुख्य सचिव को काफी कुछ सुनाया भी गया था। आस्था बहुत बड़ी बात है इसीलिये कहीं भी धार्मिक पर्वों व अनुष्ठानों में डुबकी लगाने की चुनौती देना बहुत अर्थ नहीं रखता है।
यमुना की राह में पड़ने वाले हर नगर की कहानी व समस्या एक जैसी है। 'सीवेज ट्रीटमेंट प्लान्ट' (एसटीपी) क्षमता भर काम नहीं करते हैं। नगरों, महानगरों, गांवों, कस्बों में जितना अपशिष्ट पैदा होता है वह सब 'एसटीपी' में नहीं पहुंचता। प्रयागराज में ही महाकुंभ के पहले 81 नालों से करीब 290 मिलियन लीटर अपशिष्ट प्रतिदिन बहता था, किन्तु इसका केवल 178 मिलियन लीटर प्रतिदिन दस 'एसटीपी' में जाता था। 81 में से 44 नाले गंगा में 74 मिलियन लीटर सीवरेज डाल रहे थे। यह यमुना की अस्मिता को चोट पहुंचाना ही हुआ।
गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियों से हमारा व्यवहार अमानवीय है, इसकी ही स्वीकारोक्ति नैनीताल हाईकोर्ट के 20 मार्च 2017 के एक ऐतिहासिक आदेश में की गई थी। अदालत ने कहा था कि गंगा, यमुना को जीवित मानकर उनके संरक्षण की जिम्मेदारी कतिपय अधिकारियों को दी जाय। हालांकि इस आदेश के विरूद्ध केन्द्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई और पहले तात्कालिक रूप से आदेश स्थगित किया गया व बाद में निरस्त कर दिया गया।
प्रयागराज के पूर्णकुंभ में यमुनोत्री से शुरू हुई पावन यमुना के कष्टों को कम करने का ईमानदार संकल्प संगम तट पर पहुंचा हर श्रद्धालु ले लेता तो यमुना का रूग्ण, मृतप्राय होना कुछ कम होता। कई मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री व राष्ट्रपति महाकुंभ में डुबकी लगाने पहुंचे थे। आलीशान शिविर संचालित करने वाले मठाधीशों की संख्या भी कम नहीं थी। अब भी केवल आरतियों के मंहगे तमाशों से बाहर निकलकर वे ही ठोस कुछ करने लगें तो कम न होगा। यमुना की वेदनामयी हालत देखकर तो यही लगता है कि जगह-जगह, चाहे पूर्वोत्तर हो या मध्यप्रदेश, 'नमामि गंगा' के बाद विभिन्न राज्यों में अपनी-अपनी नदियों को नमामि कहना औपचारिकता भर है।
इस महाकुंभ के बाद वैज्ञानिकों द्वारा पारिस्थितिकीय आंकलन होना चाहिये कि दो महिनों से ज्यादा समय में तैयारियां, जिसमें पैतालीस दिनों तक करोड़ों लोगों का आना-जाना, वाहनों का चलना, तम्बुओं के लगने से यदि पारिस्थितिकीय हानि हुई है तो उसकी भरपाई के लिये क्या परियोजनायें चलाई जानी चाहिये। याद करें, 11-13 मार्च 2016 में श्री श्री रविशंकर के 'आर्ट ऑफ लिविंग' का विश्व-सम्मेलन दिल्ली में यमुना के किनारे हुआ था उससे यमुना तट पर हुये नुकसान के लिये 'एनजीटी' को विशेषज्ञ समिति ने बताया था कि बर्बाद तट के पुनर्वास पर लगभग 13 करोड़ 29 लाख रूपये और कम-से-कम दस साल लगेंगे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)