• बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात न कहेंगे

    देश की तमाम अदालतों में न्याय के सिवा और कुछ न सूझने वाला माहौल पैदा हो जाए

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    - सर्वमित्रा सुरजन

    देश की तमाम अदालतों में न्याय के सिवा और कुछ न सूझने वाला माहौल पैदा हो जाए, अगर न्याय की आसंदी पर बैठे लोग यह मान लें कि बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात न करेंगे, तो नाइंसाफी की गुंजाइश ही कहां बचेगी। लेकिन दुख इस बात का है कि अब माहौल ऐसा नहीं रहा है। इसलिए कभी न्यायाधीशों को प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी पीड़ा व्यक्त करनी पड़ती है।

    लोग क्या कहेंगे, लोग क्या सोचेंगे, इन दोनों के बीच की कड़ी पर चलने के लिए अत्यधिक न्यायिक कौशल की आवश्यकता होती है। यह एक पहेली है जो प्रत्येक न्यायाधीश को निर्णय लिखने से पहले परेशान करती है। ये उद्गार हैं भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश जे.बी.पारदीवाला के। बीते रविवार को एक कार्यक्रम में लोकप्रिय जनभावनाओं के ऊपर कानून के शासन की प्रधानता पर जोर देते हुए न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा कि एक ओर बहुसंख्यक आबादी के इरादे को संतुलित करना और उसकी मांग को पूरा करना तथा दूसरी ओर कानून के शासन की पुष्टि करना कठिन काम है।

    माननीय न्यायाधीश की बातों से यही समझ आता है कि न्याय व्यवस्था में भी बहुसंख्यक वर्ग अपना दबदबा कायम रखना चाहता है और अपने मन की बात करना चाहता है, और ऐसे में न्याय की आसंदी पर बैठे लोगों के लिए निष्पक्ष फैसले देना बड़ी चुनौती है। जस्टिस पारदीवाला की इस टिप्पणी के बाद ही कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एचपी संदेश ने सोमवार को आरोप लगाया कि भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (एडीजीपी) की खिंचाई करने पर उन्हें तबादला करने की धमकी दी गई। मतलब न्यायपालिका में जिस चुनौती की बात रविवार को हो रही थी, सोमवार को उसका एक जीवंत उदाहरण पेश हो गया। इस बीच मंगलवार को लंदन में एक कार्यक्रम में भारत के प्रधान न्यायाधीश एन वी रमन ने कहा कि भारत की न्याय व्यवस्था स्वतंत्र है, कानून के शासन को सर्वोच्च रखा जाता है और इस वजह से निवेशकों के लिए भारत एक पसंदीदा विकल्प हो सकता है।

    सप्ताह के तीन दिनों में ही न्याय व्यवस्था के तीन अलग-अलग रंग देखने मिले, सात दिनों में विविध विचारों का पूरा इंद्रधनुष तैयार हो जाएगा। बहरहाल, लौटते हैं न्यायाधीश पारदीवाला की बातों पर, क्योंकि उससे प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर पर विचार का एक मौका मिला है। पाठक जानते हैं कि इस कहानी में दो गहरे दोस्त दो अलग-अलग परिस्थितियों में एक-दूसरे के खिलाफ बुलाई गई पंचायत में पंच की गद्दी पर बैठते हैं और वहां बैठते ही उन्हें अपनी गहन-गंभीर जिम्मेदारी का अहसास होता है। उसके बाद दोस्ती और दुश्मनी की भावनाओं से परे होकर वे तथ्यों और सबूतों के आधार पर फैसला सुनाते हैं। न्याय व्यवस्था के इस उलझन काल में इस कहानी को फिर से पढ़ने की जरूरत है। और अगर पढ़ने में दिलचस्पी न हो तो इस के कुछ उद्धरण अदालती इलाके में चस्पा कर लेना चाहिए।

    जैसे खाला अलगू चौधरी से पंचायत में आने कहती हैं तो अलगू कहते हैं कि जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता। तब खाला कहती हैं कि बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे? जब पंचायत लगती है तो अलगू चौधरी को ही पंच बनाया जाता है। अलगू फिर अपनी दोस्ती का हवाला देते हैं तो खाला कहती हैं कि बेटा, दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में ख़ुदा बसता है। पंचों के मुंह से जो बात निकलती है, वह ख़ुदा की तरफ़ से निकलती है। कहानी के दूसरे हिस्से में जब अलगू चौधरी और समझू साहू के बीच बैल को लेकर विवाद होता है और जुम्मन शेख पंच बनते हैं। यहां जुम्मन अलगू से कहते हैं कि पंच के पद पर बैठ कर न कोई किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन। न्याय के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता।

    अगर देश की तमाम अदालतों में न्याय के सिवा और कुछ न सूझने वाला माहौल पैदा हो जाए, अगर न्याय की आसंदी पर बैठे लोग यह मान लें कि बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात न करेंगे, तो नाइंसाफी की गुंजाइश ही कहां बचेगी। लेकिन दुख इस बात का है कि अब माहौल ऐसा नहीं रहा है। इसलिए कभी न्यायाधीशों को प्रेस कांफ्रेंस कर अपनी पीड़ा व्यक्त करनी पड़ती है, कभी प्रधान न्यायाधीश की ओर से टिप्पणी आती है कि सत्ताधारी दल मानता है कि हर सरकारी कार्रवाई न्यायिक समर्थन की हकदार है। प्रधान न्यायाधीश ये भी कहते हैं कि हम केवल संविधान के प्रति जवाबदेह हैं। जब इस तरह की सफाई देने की नौबत आने लगे तो ये समझ आने लगता है कि न्याय व्यवस्था दबावों और उलझनों से गुजर रही है। जैसे न्यायमूर्ति पारदीवाला ने ये भी कहा कि संविधान के तहत कानून के शासन को बनाए रखने के लिए देश में डिजिटल और सोशल मीडिया को अनिवार्य रूप से व्यवस्थित करने की आवश्यकता है क्योंकि यह लक्ष्मणरेखा को पार करने और न्यायाधीशों पर व्यक्तिगत, एजेंडा संचालित हमले करने के लिए खतरनाक है। उनकी यह टिप्पणी शायद नूपुर शर्मा विवाद के बाद सोशल मीडिया पर सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ चली मुहिम से निकली है।

    पाठकों को जानकारी होगी कि नूपुर शर्मा ने अपने खिलाफ दर्ज सभी मामलों को दिल्ली लाने की याचिका अदालत में दाखिल की थी, जिसे नामंजूर करते हुए अदालत ने उन्हें देश में बिगड़ रहे हालात के लिए जिम्मेदार ठहराया था और टीवी पर आकर माफी मांगने की नसीहत भी दी थी। नूपुर शर्मा पर कड़ी टिप्पणी न्यायमूर्ति पारदीवाला ने की थी। जिसके बाद सोशल मीडिया पर अदालत के इस रवैये की खूब आलोचना हुई। देश में रोजाना अन्याय होते देख कर भी चुप रहने वाले लोग अचानक न्यायाधीशों को उनका फर्ज और सीमाएं याद दिलाने लग गए। मुखालफत की ये मुहिम सोशल मीडिया तक ही नहीं रुकी, अब 15 सेवानिवृत्त न्यायाधीशों, 77 सेवानिवृत्त नौकरशाहों और 25 सेवानिवृत्त सशस्त्र बलों के अधिकारियों सहित कुल 117 विशिष्ट लोगों ने इस मामले में न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति पारदीवाला की टिप्पणियों के खिलाफ एक खुला बयान जारी किया है। जिसमें संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देते हुए कहा गया है कि ''हम जिम्मेदार नागरिक के तौर पर यह मानते हैं कि किसी भी देश का लोकतंत्र तब तक ही बरकरार रहेगा, जब तक कि सभी संस्थाएं संविधान के अनुसार अपने कर्तव्यों का पालन करती रहेंगी। उच्चतम न्यायालय के दो न्यायाधीशों की हालिया टिप्पणियों ने लक्ष्मणरेखा पार कर दी है और हमें एक खुला बयान जारी करने के लिए मजबूर किया है।''

    पता नहीं बयानवीरों को सीबीआई, ईडी, चुनाव आयोग यहां तक कि सरकार के कामकाज में कभी लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन क्यों नजर नहीं आया। और बयान देने की ऐसी मजबूरी उन्हें पहले क्यों महसूस नहीं हुई। खैर लोकतंत्र में सबको अपनी बात रखने का हक है, इन लोगों को अभी न्यायपालिका की निष्पक्ष भूमिका पर खतरा दिखा तो आपत्ति दर्ज करा दी। काश आपत्ति दर्ज कराने का ऐसा खुला माहौल सबके लिए बना रहे और हमेशा बना रहे तो फिर कोई भी पद का अहंकार नहीं दिखा पाएगा, हमेशा एक संतुलन कायम रहेगा। वैसे लक्ष्मणरेखा की बात तो जस्टिस पारदीवाला ने भी की है और वे मानते हैं कि डिजिटल और सोशल मीडिया को व्यवस्थित करने की जरूरत है। लेकिन जिस तरह के शाब्दिक हमले उन पर किए गए, वैसे कई हमले तो एक अरसे से इस देश के जागरुक और संविधाननिष्ठ नागरिक झेलते आए हैं। पानी में रहकर मगर से बैर करते हुए ये लोग धारा के विपरीत तैरने का साहस करते हैं ताकि ये देश और इसकी उदार लोकतांत्रिक परंपराएं बची रहें। यही साहस अगर सारे लोग मिलकर दिखाएं तो तानाशाही प्रवृत्ति के खिलाफ लड़ाई थोड़ी आसान हो जाएगी।

    आखिरी बात, न्यायाधीशों की टिप्पणियों के खिलाफ सोशल मीडया पर जो मुहिम चली, उसे हैशटैग सुप्रीम कोठा के तहत चलाया गया। इसी तरह कुछ साल पहले एक केन्द्रीय मंत्री ने मीडिया के खिलाफ अपनी नाराजगी जाहिर करने के लिए प्रेस्टीट्यूट शब्द का इस्तेमाल किया था। अपशब्दों का तो सारा वास्ता महिलाओं के अपमान से ही है, अब संस्थाओं की आलोचना के लिए भी महिला विरोधी शब्दों का इस्तेमाल होने लगा है। इस देश में महिलाओं की नियति क्या अपमानित होना ही है।

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