• औरतों की आजादी के आंदोलन

    औरत, जिंदगी, आजादी' - यह नारा ईरान की औरतें वहां जारी ऐतिहासिक 'हिजाब विरोधी आंदोलन' में लगा रही हैं

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    - संदीप पाण्डेय

    सवाल उठता है कि महिला-पुरुष रिश्ते में बराबरी का भाव कैसे आए? इसके दो तरीके हैं। एक तो महिला खुद जागरूक हो, अपने अधिकार समझे व पुरुषों द्वारा किए जा रहे शोषण, भेदभाव या अत्याचार के खिलाफ खुलकर बोले व कार्यवाही करे जिससे पुरुष के ऊपर अंकुश लगे। हमने देखा है कि सिर्फ कानून महिलाओं के पक्ष में बन जाने से महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा की घटनाओं में कोई कमी नहीं आ रही है।

    औरत, जिंदगी, आजादी' - यह नारा ईरान की औरतें वहां जारी ऐतिहासिक 'हिजाब विरोधी आंदोलन' में लगा रही हैं। वहां की सत्ता किसी भी कीमत पर आंदोलन को कुचल देना चाहती है और सैकड़ों औरतों की जानें पुलिस दमन में जा चुकी है। कुछ पुरुष, जो वैसे तो धार्मिक कट्टर-पंथियों के खिलाफ हैं, लेकिन पितृसत्ता के खिलाफ नहीं हैं, आंदोलन का साथ इसलिए नहीं दे रहे क्योंकि उनका मानना है कि यह हिजाब के बहाने सत्ता परिवर्तन का आंदोलन है। जाहिर है, कुछ महिलाएं भी पितृसत्तात्मक सोच से प्रभावित होंगी और आंदोलन का साथ नहीं दे रही होंगी।

    'औरत, जिंदगी, आजादी' का नारा बिलकिस बानो पर भी एकदम सटीक बैठता है। बिलकिस बानो एक औरत है और वह अपनी जिंदगी को बचाने व आजादी से जीने के लिए लड़ रही है। जिस तरह ईरान का समाज वहां की औरतों को सुरक्षित जीने नहीं दे रहा, उसी तरह भारत में बिलकिस बानो को सुरक्षित जीने नहीं दिया जा रहा।
    गुजरात के आसन्न चुनाव में बिलकिस बानो की चर्चा गायब है। 'भारतीय जनता पार्टी' ने तो बिलकिस बानो के ग्यारह बलात्कारियों व उसके परिवार के सदस्यों के हत्यारों को रिहा करवा कर चुनाव में पूरा फायदा उठाने का दांव खेला है। किंतु विपक्षी दल - मुख्यत: कांग्रेस व 'आम आदमी पार्टी' - इस मुद्दे पर भाजपा की करतूत का विरोध करने से घबरा रहे हैं कि कहीं बिलकिस बानो का समर्थन करने पर उन्हें मुस्लिम-परस्त व हिन्दू-विरोधी न मान लिया जाए। जबकि जो बिलकिस बानो के साथ हुआ वह उसके मुस्लिम होने के कारण कम, औरत होने के नाते ज्यादा है।

    बिलकिस बानो तो गोधरा में रेल के डिब्बों के जलाए जाने की प्रतिक्रिया में हुई हिंसा के बीच फंस गई। उसके साथ जो हुआ वह हरेक महिला के साथ, कुछ कम, कुछ ज्यादा, घर के अंदर, घर के बाहर घटता ही है। औरत इस पितृसत्तात्मक समाज में दोयम दर्जे की जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त है।

    ऐसा माना जाता है कि दुनिया में जितने किस्म की गैर-बराबरियां हैं उनमें सबसे आखिरी में औरत-मर्द की गैर-बराबरी को खत्म करने के प्रयास होंगे। डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी अपनी 'सप्त क्रांति' में नर-नारी समता को सबसे अहम मानते हुए पहला बिंदु उसे ही बनाया है।

    अक्सर औरत के शोषण और उसके खिलाफ अत्याचार के लिए भी वह खुद ही जिम्मेदार ठहरा दी जाती है। शोषण व अत्याचार करने वाले पर इतने सवाल खड़े नहीं किए जाते।

    औरत का सही दर्जा शादीशुदा होना ही माना जाता है। जो औरतें शादीशुदा न हों उनके बारे में अन्य औरतें ही तरह-तरह की टिप्पणियां करने लगती हैं, जबकि दक्षिण भारत के प्रसिद्ध समाज सुधारक ई.वी.पेरियार रामासामी कह चुके हैं कि यदि महिला को वाकई में मुक्त होना है तो विवाह नामक संस्था को भंग करना होगा। कई दफा औरत पितृसत्तात्मक व्यवस्था का इस कदर अंग बन चुकी होती है कि अपना शोषण करने वाले के प्रति भी कृतज्ञता या सम्मान का भाव ही रखती है। उसे लगता है कि वह किसी की सम्पत्ति है। बिना पुरुष के उसे अपना अस्तित्व ही समझ में नहीं आता। यह सोच समाज में बड़े गहरे बैठी हुई है और इससे लड़ना आसान नहीं।

    बिलकिस बानो के साथ जो हुआ वह तो इस सोच की अति थी। उसे तार्किक दिमाग से नहीं समझा जा सकता और न ही अब जो अपराधियों के साथ नरमी बरती जा रही है उसे तार्किक दिमाग से समझा जा सकता है। यही समाज है जो निर्भया के मामले में सड़क पर उतर आया था, दोषियों को फांसी की सजा की मांग कर रहा था।बिलकिस बानो के साथ जो हुआ वह भी कम जघन्य या वीभत्स नहीं था, फिर भी अपराधी आज खुले घूम रहे हैं और बिलकिस बानो अपनी जान बचाती फिर रही है।

    हाल ही में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय की दो न्यायाधीशों की पीठ ने 4 वर्ष की एक बच्ची के साथ बलातकार को राक्षसी कृत्य बताते हुए दोषी की उम्र कैद की सजा को यह कहते हुए 20 वर्ष की सजा में तब्दील कर दिया कि दोषी ने कम-से-कम पीड़िता की जान तो बक्श दी। शायद बिलकिस बानो के मामले में जिस समिति ने 11 बलात्कारियों व हत्यारों की सजा माफ की है, में 80 प्रतिशत पुरुष न होते या मध्यप्रदेश की खण्ड पीठ में दोनों न्यायाधीश पुरुष न होते तो फैसले कुछ और हो सकते थे। साफ है कि पितृसत्तात्मक नजरिया पुरुष द्वारा महिला के खिलाफ किए गए अपराध को इतना गम्भीर नहीं मानता और महिला को हमेशा हल्के में ही लिया जाता है। जब तक समाज में पुरुष प्रधान सोच हावी रहेगी, तब तक महिलाओं के खिलाफ अन्याय होता ही रहेगा।

    सवाल उठता है कि महिला-पुरुष रिश्ते में बराबरी का भाव कैसे आए? इसके दो तरीके हैं। एक तो महिला खुदजागरूक हो, अपने अधिकार समझे व पुरुषों द्वारा किए जा रहे शोषण, भेदभाव या अत्याचार के खिलाफ खुलकर बोले व कार्रवाई करे जिससे पुरुष के ऊपर अंकुश लगे। हमने देखा है कि सिर्फ कानून महिलाओं के पक्ष में बन जाने से महिलाओं के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा की घटनाओं में कोई कमी नहीं आ रही है।

    अंतत: समाज महिला के लिए तभी सुरक्षित बनेगा जब पुरुषों में महिलाओं के प्रति बराबरी व सम्मान का भाव जगेगा। इसके लिए भी कोशिशें चल रही हैं। ये दोनों की प्रक्रियाएं काफी धीमी गति से चल रही हैं। जो उपलब्धियां हासिल भी हो रही हैं वे महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराधों के शोर-गुल में दब जाती हैं।
    (संदीप पाण्डेय वैज्ञानिक, समाजकर्मी एवं लेखक हैं।)

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