• राजस्थान में रवायत बदल जाएगी इस बार?

    राजस्थान में मतदान की तारीख़ '25 नवंबर' है और अब तक न कांग्रेस और न भारतीय जनता पार्टी के सारे उम्मीदवारों के नाम तय हो पाये हैं

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    - वर्षा भम्भाणी मिर्जा़

    एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस की सरकार बनाने वाला राजस्थान का वोटर बहुत बुद्धिमान है और वह किसी के बहकावे में नहीं आता। वह निरंतर विकास चाहता है। यही वजह है कि बीमारू प्रदेशों में वह बेहतर हुआ है। जानना दिलचस्प होगा कि इस बार उसे कौन भा रहा है। अशोक गहलोत सरकार का पिछले कुछ महीनों से तो यह हाल है कि वे हर रोज़ किसी नई योजना या फिर घोषणा के साथ हाज़िर हो जाते हैं।

    राजस्थान में मतदान की तारीख़ '25 नवंबर' है और अब तक न कांग्रेस और न भारतीय जनता पार्टी के सारे उम्मीदवारों के नाम तय हो पाये हैं। होता यूं है कि टिकट मिलते ही जीत का रास्ता नहीं खुलता, बगावत का बिगुल बज जाता है। इससे जूझते हुए दोनों ही पार्टियां आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं और इन सबसे बड़ा सवाल सर उठा रहा है कि राजस्थान का गढ़ कौन जीतेगा? प्रदेश में बीते 30 वर्षों से जनता एक बार कांग्रेस एक बार भाजपा की सरकार बना रही है। यहां के बच्चे जो अब जवान हो चुके हैं उन्हें दो ही मुख्यमंत्रियों के नाम याद हैं- अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे सिंधिया। पिछली बार जब वसुंधरा राजे चुनाव लड़ रहीं थीं, प्रदेश में एक नारा चला था- 'मोदी तुझसे बैर नहीं,वसुंधरा तेरी खैर नहीं।' नारे चलते रहते हैं लेकिन नतीजों में यह सच भी हो गया।

    वसुंधरा राजे दोबारा सरकार नहीं बना पाईं। भाजपा ने इसी नारे को इस बार अपना ध्येय वाक्य बना लिया जिसका नतीजा ये हुआ कि इस बार राजस्थान का चुनाव सीधे-सीधे अशोक गहलोत बनाम नरेंद्र मोदी हो गया है। यह चुनाव दो स्थानीय नेताओं के बीच नहीं बल्कि सीएम और पीएम के बीच है। राजस्थान में 25 में से 24 सांसद भाजपा के हैं। कांग्रेस का एक भी सांसद नहीं। जीत का जोश भी शायद इसी संख्या से आता है। यहीं से प्रेरणा लेकर भाजपा ने अपने सात नेताओं की सांसदी को विधायकी में बदलने का फैसला कर लिया है। क्या वाक़ई इन फैसलों और मोदी की लोकप्रियता का लाभ पार्टी को मिलेगा या अंतत: विभाजन की राजनीति ही टेका लगाएगी?

    एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस की सरकार बनाने वाला राजस्थान का वोटर बहुत बुद्धिमान है और वह किसी के बहकावे में नहीं आता। वह निरंतर विकास चाहता है। यही वजह है कि बीमारू प्रदेशों में वह बेहतर हुआ है। जानना दिलचस्प होगा कि इस बार उसे कौन भा रहा है। अशोक गहलोत सरकार का पिछले कुछ महीनों से तो यह हाल है कि वे हर रोज़ किसी नई योजना या फिर घोषणा के साथ हाज़िर हो जाते हैं। चिरंजीवी योजना के तहत 25 लाख का स्वास्थ्य बीमा, पुरानी पेंशन स्कीम (ओपीएस) की बहाली, महिलाओं को कनेक्शन के साथ मोबाइल फोन देना और हर बिल पर पहले 100 यूनिट बिजली मुफ्त देने का असर साफ़ देखा जा सकता है। जिन लोगों की सरकारी योजनाओं में कोई आस्था नहीं रही, उन्होंने भी मुफ्त बिजली और अच्छे इलाज की चाहत में राजस्थान सरकार के जनाधार नंबर से खुद को जोड़ लिया है।

    निजी अस्पतालों को भी इस योजना में शामिल करना बेहतरीन सोच है लेकिन इसमें अड़चनें भी आ रही हैं। इसकी तुलना में राजस्थान शासकीय स्वास्थ्य योजना के तहत अच्छी सुविधा राज्य के कर्मचारियों को मिल रही है। कहा जा सकता है कि राज्य सरकार के कर्मचारियों को तो इस बार साध लिया गया है। एक और अच्छी पहल थी जिसे लागू करने में भी व्यवहारिक दिक्कतें रही हैं। इसके तहत सड़क पर घायलों को किसी भी प्राइवेट हॉस्पिटल में तुरंत चिकित्सा मुहैया करानी थी। अक्सर कई मरीज़ सरकारी औपचारिकताओं के चलते और इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं। इस कायदे का दम भी टूटता हुआ ही नज़र आता है क्योंकि निजी अस्पताल इस हक़ में नहीं हैं जबकि 2022 में स्वास्थ्य का अधिकार अधिनियम (राइट टू हेल्थ बिल) पास करने वाला राजस्थान देश का पहला राज्य बन गया था। कानून और व्यवस्था को मज़बूत करने में भी सरकार का ध्यान कम ही रहा। जैसी सक्रियता स्वास्थ्य के लिए रही वैसी कानून के लिहाज़ से भी होती तो राजस्थान की कहानी और बेहतर हो सकती थी। तब क्या रास्ता भाजपा के लिए आसान है?

    राजस्थान की शहरी जनता के बड़े हिस्से को इस बात से ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वोट मोदी के नाम पर मांगा जा रहा है। उसे लगता है कि किसी भी स्थानीय नेता में वैसा चुम्बक नहीं जैसा कि मोदी जी में है। वसुंधरा राजे पूरे राजस्थान में लोकप्रिय हैं लेकिन मोदी ही हैं जो राजस्थान में पार्टी की नैया पार लगा सकते हैं। इस विमर्श के हिसाब से मध्यप्रदेश में 18 साल के शिवराज सिंह चौहान शासन के दूसरी तरफ भी मोदी ही हैं क्योंकि इस बार वे भी हाशिये पर हैं। गहलोत के ख़िलाफ़ भी मोदी और शिवराज के खिलाफ भी। यह दिलचस्प है कि प्रदेश में कोई भी नेता या विश्लेषक गहलोत सरकार के लिए 'एंटी इंकम्बेंसी' की बात नहीं कर रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो नाराज़गी वाला बड़ा वोट नहीं है कि मतदाता गुस्से में है और बाज़ी पलट देगा। सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए आतुरता की कमी ही भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। इस चुनौती से निपटने के लिए भाजपा की केंद्रीय योजनाओं के अलावा प्रधानमंत्री की विदेश में साख को भी वोटर अच्छा बताते हैं। पार्टी के पास एक बड़ा अस्त्र है जिसे वह समय-समय पर धार देती रहती है और राजस्थान को भी अलग नहीं रखा गया है । यूं प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में साफ़ कह दिया है कि वे राजस्थान सरकार की वर्तमान योजनाओं को बंद नहीं करेंगे और मतदाता को सिफ़र् कमल का फूल देखना चाहिए। यह सोच किसी बड़े 'शिफ्ट' का संकेत है कि पांच साल में रोटी पलटने की रवायत के बावजूद पार्टी आश्वस्त नहीं है।

    कर्नाटक से पहले गुजरात और पश्चिम बंगाल में भी मोदी ही पार्टी का चेहरा थे लेकिन केवल गुजरात में ही सफलता मिली। पार्टी का यह मज़बूत विचार है कि असफल चेहरों को दृश्य से गायब कर दो तो सफलता मिलती है। गुजरात में तो मुख्यमंत्री से लेकर तमाम मंत्रियों के ही चेहरे गायब हो गए। यह मॉडल खूब सफल रहा। कर्नाटक में 19 रैलियों और छह रोड शो के बावजूद भाजपा की सरकार बची नहीं रह सकी और बंगाल में दीदी तीसरी बार भी अपनी गद्दी बचने में कामयाब रहीं। तब क्या राजस्थान में यह असफल चेहरा वसुंधरा राजे थीं? शुरुआत में पार्टी ने ऐसा ही माना था लेकिन दूसरी सूची में गलती सुधार ली। उनके हिसाब से टिकट भी मिले और उन्हें कुछ तवज्जो भी। चर्चा यह भी है कि अब जयपुर के पूर्व राजघराने की राजकुमारी दीया कुमारी को पार्टी आगे लाना चाहती हैं। वे राजसमंद से सांसद हैं और अब पार्टी ने उन्हें जयपुर की एक सीट से विधायक का टिकट दिया है। जयपुर से ही सांसद राज्यवर्धन भी अब विधायकी की दौड़ में शामिल हैं। यूं वसुंधरा राजे के आगे दीया कुमारी फिलहाल एक कमज़ोर चयन इसलिए भी हैं कि वसुंधरा राजपूती विरासत के साथ गुर्जर बहू होकर कई चुनावी गणित साध लेती हैं। उनकी भाषा और वेशभूषा उन्हें हर वर्ग में स्वीकार्य बनाती हैं। वे एक चुनरी से ही अपना कनेक्ट जनता, खासकर महिलाओं से बना लेती हैं। इस बार उनके मतदाताओं को पता है कि वे मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं हैं तब फिर कौन और क्या मुद्दे हैं जो रण जितवाएंगे।

    पिछले महीने जयपुर में एक अठारह साल के लड़के इकबाल की हत्या हो गई। भीड़ ने उसे पीट-पीट कर मार डाला। यूं राजस्थान अपने लोक संगीत, साहित्य और कलात्मक अभिरुचि वाली कई खूबियों के साथ सांप्रदायिक तौर पर बेहद सद्भावी प्रदेश है। तमाम सम्प्रदाय यहां मिल-जुलकर रहते हैं। मलिक मोहम्मद जायसी की पद्मावत (1540 ) जन-जन में लोकप्रिय है। अकबर के सेनापति मानसिंह रहे तो हाकिम खां महाराणा प्रताप के। वीरता के साथ सद्भाव की बेहतरीन गाथा इस प्रदेश ने लिखी है। 'धरती सुरगा री..' यह गीत तारा प्रकाश जोशी ने इस धरती के सौंदर्य और सद्भाव के लिए ही लिखा है। उस दिन इकबाल और उसका भाई दोनों बाइक पर सवार थे कि सड़क पर कहा-सुनी हो गई। भाई तो जान बचाकर भाग गया लेकिन इकबाल को भीड़ ने मार दिया। हो सकता है कि दुर्घटना के बाद इक़बाल ने अपशब्द कहे हों लेकिन उसकी जान ले ली जाए, यह दुखद था। गहलोत सरकार ने बतौर मुआवज़े पचास लाख रूपए और परिजन को नौकरी देने की घोषणा की। शहर में व्यापारियों के एक हिस्से ने बड़ा प्रदर्शन करते हुए इसे तुष्टिकरण का नाम दिया। कहा गया कि पुलिस हिंदुओं को परेशान कर रही है, उन्हें जबरन गिरफ्तार किया जा रहा है। जो भी हो, कानून इतना सशक्त होना चाहिए कि जांच पर सबका भरोसा हो।

    विकास के मुद्दों पर ये मुद्दे हावी हैं। उदयपुर में दज़ीर् कन्हैया लाल की हत्या भी नफरत का नतीजा थी। जोधपुर का दंगा भी। सरकार की पकड़ कानून व्यवस्था पर होनी चाहिए। अपराधियों को पकड़ने में भी और अपराध न हों उसमें भी। विकास के तमाम सुरीले सुरों के बीच नफ़रत के ये बेसुरे बोल का सर क्यों उठना चाहिए था? सरकार की जनकल्याण की नीतियों की सराहना के बीच तुष्टिकरण का मुद्दा जगह बना रहा है। बहुत दुखद होगा जो चुनाव विकास बनाम सांप्रदायिकता में बदल गया तब कोई दल जीतेगा या हारेगा लेकिन यहां के रंग उदास और किलों के कंगूरे सूने पड़ जाएंगे।

    राजस्थानी डिंगल कविता का अपना तेज है जिसने सामाजिक जनजागृति के साथ संकट के समय अंग्रेज़ सत्ता के ख़िलाफ़ भी सबको एक करने का काम किया था। इस दौर में जब इंसान मृत देह में भी मज़हब ढूंढ रहा है, मनुज देपावत की डिंगल कविता की ये पंक्तियां बहुत मायने रखती हैं-

    ऐ इंकलाब रा अंगारा, सिलगावे दिल री दुखी हाय।
    अब छांट्या-छिड़किया नहीं बुझेला जो डूंगर लागी आज लाय।
    इक दिन ऐड़ो आवैला धोरां री धरती धूजैला।
    ऐ सदा पत्थरां रा सेवग पण आज मिनख नैं पूजैला।
    अर्थ- मिट्टी के पुतलों को इंसान बनाने आया हूं। इंकलाब के अंगारे अब दिल में दहक रहे हैं और ये छीटों से नहीं बूझने वाले। देश का भाग उस दिन जागेगा जिस दिन पत्थरों की बजाय इंसान की पूजा होगी।
    (लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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