- वर्षा भम्भाणी मिर्जा़
सबकी पसंद की चीज़ें बनाने और वक्त का ध्यान रखने वाली सुघढ़ गृहिणी का ख़िताब उसे अपने सपनों की कीमत पर ही क्यों मिलता है? आज की पढ़ी-लिखी लड़की इस माहौल में घुटने लगती है। इसी मुद्दे पर बनी फिल्म 'मिसेज' में दिखाया गया है कि ससुरजी को चटनी तो सिलबट्टे की ही चाहिए।
पुरुष यूं तो रसोई में सदियों से है और क्या खूब है, लेकिन जब बात परिवार की रसोई में काम करने की आती है तो वे सिरे से गायब हो जाते हैं। परिवार नामक इकाई में खाना बनाना केवल स्त्री का दायित्व है। पुरुष कभी-कभार किचन में आते भी हैं तो वह किसी उत्सव से कम नहीं होता। प्याज़, टमाटर, मसाले तैयार कर दो तो साहब मसालेदार डिश बना देंगे। फिर घर में सिर्फ वाह-वाही होगी।
बातें होंगी कि साहब यूं तो बाहर जाकर रोज़ी करते हैं, लेकिन आज तो रोटी भी बनाई है। महिलाओं के जिम्मे खाना बनाने का यह काम हमेशा बिना भुगतान के ही रहा है। हिसाब लगाया जाए कि जो काम महिलाएं घर में करती हैं, उसे चुकाया जाए तो उनके बैंक खाते हमेशा एक मोटी रकम से भरे रहें। होता तो यह है दिन-रात के श्रम के बावजूद जीवन की सांध्य बेला में महिलाओं के पास अपनी कोई बचत की रकम भी नहीं होती। जो काम करती हैं उनके लिए भी काम और परिवार के बीच संतुलन बनाना आसान नहीं होता। 'वर्क लाइफ बैलेंस' सहयोग की मांग करता है। जो इस संतुलन को साध लेती हैं, वे आगे बढ़ जाती हैं और शेष काम को त्याग परिवार चुन लेती हैं। महिला प्रगति के लिहाज़ से इस जगह आकर तनिक राहत मिल जाए तो आधी आबादी का काम काफी आसान हो जाएगा, वरना तो घर संभालने की क़वायद सबसे पहले उसका जॉब ही खाती है। हर रोज़ रसोई में उत्सव जैसे खाना बनाते रहने की चक्की में महिला किस कदर पिसती जाती है, इस मुद्दे को सलीके से दर्शाने वाली एक फिल्म की इन दिनों खूब चर्चा है।
इस दौर में भी आख़िर क्यों मछली जल की रानी है की तज़र् पर एक महिला को किचन की रानी बना दिया गया है, पुरुष क्यों नहीं 'रसोई का महाराज' हो सकता? समाज भी ऐसी ही महिलाओं का आदर करता है जो भोजन के षडरस को परोसते हुए ज़िन्दगी बसर करती है। क्यों किसी भी काम को लिंग के आधार पर बांट दिया जाना चाहिए? जब भूख सबको बराबर लगती है तो फिर रसोई सिर्फ एक की ज़िम्मेदारी क्यों हो? यहां तक कि बड़े हो गए बच्चे, घर आये मेहमान सभी का योगदान इसमें क्यों नहीं होना चाहिए? सबकी पसंद की चीज़ें बनाने और वक्त का ध्यान रखने वाली सुघढ़ गृहिणी का ख़िताब उसे अपने सपनों की कीमत पर ही क्यों मिलता है? आज की पढ़ी-लिखी लड़की इस माहौल में घुटने लगती है। इसी मुद्दे पर बनी फिल्म 'मिसेज' में दिखाया गया है कि ससुरजी को चटनी तो सिलबट्टे की ही चाहिए। मिक्सी में पोषक तत्व कट जाते हैं जबकि कूटने पर बने रहते हैं।
बिरयानी तो दम की बेहतर होती है- घंटों धीमी आंच पर पकी हुई। फुल्का तो गर्म ही परोसा जाए जो दौड़ते हुए टेबल तक आए। और हां, घर का कोना-कोना साफ और चमकदार होना चाहिए। ससुरजी को धूल से एलर्जी है। चप्पल भी बिस्तर के नीचे रखी हुई मिलनी चाहिए। लगता है जैसे किसी बीमार की सेवा हो रही है। साथ खाने का तो कोई रिवाज़ ही नहीं। ससुरजी की ऐसी ही आदतें सासु मां ने सहेजी हैं और अब उनके बेटे को भी पत्नी से ऐसी ही उम्मीद है। पत्नी को डांस में दिलचस्पी है पर ये भले घर के लोग, उसके पुराने वीडियो भी सोशल मीडिया से डिलीट करवाना चाहते हैं। करवा चौथ के दिन घर के पुरुष सदस्य छककर खाना खाते हुए कह रहे हैं कि कुछ भी कहो, हमारी प्राचीन परंपराएं हैं बड़ी वैज्ञानिक। ऐसे तमाम दृश्य आरती कडव निर्देशित और अनु सिंह चौधरी के संवाद और पटकथा लेखन वाली फिल्म 'मिसेज' रचती है जो इन दिनों हर भारतीय को छू रही हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत के मध्यम वर्ग की आधी आबादी अब भी शेष आधी आबादी को खाना पकाकर देने में ही जुटी हुई है। मिसेज 'द ग्रेट इंडियन किचन' का रीमेक है।
भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या लगातार घट रही है। यहां तक कि नेपाल, भूटान और श्रीलंका भी हमसे आगे हैं। महिलाओं के कामकाजी होने के रिकॉर्ड में दुनिया का औसत भी कुछ खास अच्छा नहीं है। केवल 40 फीसदी जबकि बहामा में यह सर्वाधिक 90 प्रतिशत है। जी-20 देशों के समूह में भी कामकाजी भारतीय महिलाओं की हिस्सेदारी सबसे कम है। हमारे कुल कार्यबल में भागीदारी 24 प्रतिशत के आसपास है, जो कुवैत (27.8) और सऊदी अरब (35 ) से भी कम है। 2005 में भारत में कामकाजी महिलाओं की संख्या 27 फ़ीसदी थी जो 2021 में घटकर 23.54 फ़ीसदी रह गई है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के 2020 में जारी एक सर्वे में पाया गया है कि 81.2 प्रतिशत महिलाएं अवैतनिक घरेलू सेवाओं में लगी हुई हैं जबकि पुरुषों के लिए यह संख्या 26 प्रतिशत है। इसका आशय है कि वे घरेलू कामकाज, बच्चों और बुज़ुर्गों की देखभाल में लगभग दस गुना ज़्यादा समय दे रही हैं। अगर भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनना है तो महिलाओं को इसमें शामिल किया ही जाना चाहिए। 2020 में नोबेल पुरस्कार विजेता क्लाउडिया गोल्डीन कहती हैं- 'सभी महिलाएं काम करती हैं लेकिन सभी को वेतन नहीं मिलता।' देखा जाए तो महिलाएं पुरुषों की तुलना में सप्ताह में ज़्यादा काम करती हैं लेकिन वे कम अवकाश वाली थकी हुई महिलाएं हैं।
फिल्म रूह्म्ह्य. के अंत की खूब आलोचना हो रही है क्योंकि नायिका पति से अलग हो जाती है और डांस को अपना लेती है। उसके पति को दूसरी बीवी मिल जाती है जो वही सब कर रही होती है जो नायिका की अर्थशास्त्र में पीएचडी कर चुकी सास कर रही थी। आलोचकों को एतराज़ है कि दूसरी बीवी को फिर से गर्म फुल्के बनाते हुए दिखाने की ज़रूरत नहीं थी, इससे पितृसत्ता का किला वहीं खड़ा दीखता है। यह ध्वस्त नहीं होता। उन्हें लगता है कि फिल्म वहीं ख़त्म हो जानी चाहिए थी जहां नायिका घर छोड़ती है। दरअसल जो फिल्म में दिखाया गया है वही सच है। अलग हुए पतियों को ही नहीं, दहेज़ के दोषियों तक को यहां दुबारा मिसेज़ मिल जाती हैं। जब तक यह सिलसिला नहीं टूटेगा, पितृसत्ता के मज़बूत किले कभी ध्वस्त नहीं होंगे। किसी को लगता है कि नायिका को रण भी नहीं छोड़ना चाहिए था। तब क्या इसी घुटन में दम तोड़ देना चाहिए था? सौ साल पहले रवींद्रनाथ टैगोर ने भी मृणाल नामक किरदार की रचना की थी जिसने समाज में स्त्री के हालात और भेदभाव से दुखी होकर वैवाहिक जीवन और परिवार का त्यागकर जगन्नाथ की राह पकड़ ली थी। मार्ग मीरा का भी वही था। 'मृणाल की चिठ्ठी' शीर्षक से इस कहानी में मृणाल कहती है- मैं सिर्फ आपके घर की छोटी बहू नहीं हूं। मैं मैं हूं..। कहा जा सकता है कि मिसेज़ बन जाना पहचान का खोना नहीं होना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस महिला दिवस पर महिलाएं अपने दिल की सुनने के और करीब होंगी और शेष समाज उनके साथ। अनामिका की कविता 'फर्नीचर' भी बहुत कुछ कहती है-
मैं उनको रोज़ झाड़ती हूं
पर वे ही हैं इस पूरे घर में
जो मुझको कभी नहीं झाड़ते!
रात को जब सब सो जाते हैं-
अपने इन बरफाते पांवों पर
आयोडिन मलती हुई सोचती हूं मैं-
किसी जनम में मेरे प्रेमी रहे होंगे फ़र्नीचर,
कठुआ गए होंगे किसी शाप से ये!
मैं झाड़ने के बहाने जो छूती हूं इनको,
आंसुओं से या पसीने से लथपथ-
इनकी गोदी में छुपाती हूं सर-
एक दिन फिर से जी उठेंगे ये!
थोड़े-थोड़े-से तो जी भी उठे हैं।
गई रात चूं-चूं-चंू करते हैं:
ये शायद इनका चिड़िया का जनम है,
कभी आदमी भी हो जाएंगे!
जब आदमी ये हो जाएंगे,
मेरा रिश्ता इनसे हो जाएगा क्या
वो ही वाला
जो धूल से झाड़न का?
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)