• इस होली क्यों न इनकी मिसाइलों में रंग भर जाए!

    मणिपुर में 22 महीनों से कुकी और मैतई सम्प्रदायों के बीच जनजातीय संघर्ष अब भी नहीं थमा है

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    - वर्षां भम्भाणी मिर्जा

    मणिपुर में 22 महीनों से कुकी और मैतई सम्प्रदायों के बीच जनजातीय संघर्ष अब भी नहीं थमा है। बीच में लगा था कि मुख्यमंत्री के इस्तीफ़ेे के बाद हालात सामान्य होंगे और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह का दावा भी था कि अब मणिपुर में मुक्त आवाजाही शुरू हो सकेगी लेकिन अभी 8 मार्च को ही वहां एक हत्या हुई। मणिपुर में दोनों समूहों के बीच विभाजन रेखा खींची जा चुकी है।

    इस रंग पर्व पर कल्पना कीजिए कि देश और दुनिया भर में जो मिसाइलें एक दूसरे पर तनी हुई हैं, उनमें रंग भर जाएं तो ये दुनिया किस क़दर रंगीन और रूमानी हो जाएगी। ये नेता जो आए दिन सिर्फ दादागिरी करते हैं, लोगों को बांटते हैं, छोटे देशों को दबाते हैं, उन्हें शायद अंदाज़ा भी नहीं है कि उन्होंने माहौल को कितना बदरंग कर दिया है। ये सुंदर दुनिया दिन-रात किसी चकल्लस करते रहने वाले ग्लोब में बदलती जा रही है। काश इस होली इनकी मिसाइलें भोथरी हो जाएं, ज़ुबां में कुछ मिठास भर जाए ताकि जनता भी कुछ राहत पा सके। डोनाल्ड ट्रम्प तो जैसे अपनी टाई में पूरी दुनिया को लपेट देना चाहते हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति को घुमा देना चाहते थे, ग्रीनलैंड और कनाडा की बोली लगा चुके हैं। भारत जैसे देश पर भी टैरिफ की बमबारी कर चुके हैं। उधर इज़राइल जो खुद दूसरे विश्वयुद्ध में प्रताड़ित और जनसंहार के शिकार यहूदियों का देश है, आज फिलिस्तीन को ज़मींदोज़ करने में लगा है। विरोध में दुनिया के लोग सड़कों पर आ रहे हैं लेकिन ये नेता अपने खोल में बैठ न जाने कौन सी विजय धुन बजा रहे हैं। मंगलवार को लोकसभा में जिस तरह वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण साहिबा लाल-लाल होकर तमतमाते हुए विपक्ष के सांसद को ललकार रही थीं, क्या उसकी ज़रूरत वाक़ई थी? क्यों नहीं देश में नागा, कुकी और मैतेई समूह इन नेताओं से दूरी बनाकर आपस में ख़ूनी खेल की बजाय रंग खेलते? क्यों मणिपुर एक साल बाद भी इन नेताओं से शांत नहीं हुआ? राजस्थान में भी कहां कोई रंग जम पा रहा है। होली पर चुहल नहीं नफ़रत के शब्द-बाण ही दोनों पक्षों के विधायक चलाते रहे।

    तीन बार के पुलित्ज़र पुरस्कार विजेता थॉमस फ्रीडमैन अपने लेख में लिखते हैं कि-
    'जिन चीज़ों से ट्रम्प को चिढ़ है, अमेरिका उन्हीं की वजह से महान बना है।' उन्हें ट्रंप की रणनीति उस तरफ बढ़ती हुई लगती है जहां रूस यूक्रेन को, चीन ताईवान को और अमेरिका ग्रीनलैंड को कब्ज़ा ले। वे लिखते हैं-'स्थानीय मुद्दों को छोड़ आक्रामक विदेश नीति को अपनाने का नुक़सान देश देख चुका है जब जॉर्ज बुश ने इराक पर आक्रमण किया था। यह लड़ाई लड़ी तो आज़ादी के नाम पर गई थी लेकिन उन दिनों जब मैं इराक़ के एक गांव में पहुंचा तो हालात बहुत ख़राब थे। न पीने को पानी था, न खाना और न कोई सुविधा। हमने अपनी बस से जो खाने के पैकेट खिड़की से दिए थे, अस्पताल का स्टाफ उसी पर टूट पड़ा था। यह हाल था जब लड़ाई आज़ादी के नाम पर हुई थी। यह लड़ाई तिरस्कार और अपमानित करने के लिए थी। अमेरिका एक बार फिर ऐसे ही दौर में दाखिल होता दिख रहा है जहां बनाने की बजाय बिगाड़ने पर ज़ोर है। लोगों को काम देने की बजाय उन्हें निकालने की नीति है।'

    डोनाल्ड ट्रम्प- वोलिदिमीर ज़ेलेन्स्की विवाद से भी साफ लगता है कि ट्रम्प केवल अमेरिका की विदेश नीति नहीं बदल रहे हैं बल्कि नैतिकता के दिशासूचक यंत्र को ही घुमा दे रहे हैं। एक युद्धरत देश के राष्ट्रपति के कपड़ों पर टिप्पणी (क्योंकि वे सूट पहनकर नहीं आए थे), रूस के युद्ध विराम को तोड़ने की बात को लगातार अनसुनी करने को संवाद की किस श्रेणी में रखा जाएगा। इस नए अमेरिका से तो अमेरिकी जनता ही डरी हुई लगती है। वह तख्तियां लेकर सड़कों पर है कि 'हमने ऐलन मस्क को नहीं चुना है', 'अमेरिका में कोई राजा नहीं है', 'ट्रंप अमेरिका नहीं है' आदि।

    मणिपुर में 22 महीनों से कुकी और मैतई सम्प्रदायों के बीच जनजातीय संघर्ष अब भी नहीं थमा है। बीच में लगा था कि मुख्यमंत्री के इस्तीफ़ेे के बाद हालात सामान्य होंगे और केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह का दावा भी था कि अब मणिपुर में मुक्त आवाजाही शुरू हो सकेगी लेकिन अभी 8 मार्च को ही वहां एक हत्या हुई। मणिपुर में दोनों समूहों के बीच विभाजन रेखा खींची जा चुकी है। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक बीच-बीच में केवल बफर ज़ोन बने हुए हैं जो केंद्रीय सुरक्षा बलों की कड़ी निगरानी में हैं। यह घटना शांति प्रयासों को बड़ा झटका है। क्या ये दोनों समुदाय इस ख़ूनी संघर्ष को रोकने के लिए कोई कदम नहीं बढ़ा सकते? मंगलवार को संसद में जिस तरह वित्त मंत्री और कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई के बीच शब्द बाण चले उसकी शुरूआत भी मणिपुर पीड़ा से हुई थी। गोगोई कह रहे थे- 'मणिपुर की समस्या बन्दूक से नहीं सुलझेगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मणिपुर जाएं और लोगों से बात करें कि उनका क्या भय है, उन्हें सुनें। जब भी कोई मुद्दा देश का आता है प्रधानमंत्री जी गायब हो जाते हैं।' इतना कहते ही पहले लोकसभा अध्यक्ष ने उन्हें रोककर कहा कि -प्रधानमंत्री लोकसभा को सूचित करके ही जाते हैं। फिर तुरंत निर्मला सीतारमण ने कहा कि विपक्ष कभी भी प्रधानमंत्री का सम्मान नहीं करता। क्रोधित होते हुए कहा कि उन्होंने कितनी ही बार प्रधानमंत्री को बोलने नहीं दिया, ये वेल में आकर चिल्लाते हैं।

    आज ये सब भूलकर गोगोई कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री का सम्मान करते हैं।' जवाब में गोगोई कहते हैं कि मोदी का पिछला पूरा भाषण पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों को अपमानित करने वाला था। बहरहाल, पक्ष और विपक्ष जो सदैव एक-दूसरे के खिलाफ नाखून तेज़ किये रहते हैं उन्हें इस होली पर सद्भाव की ख़ास ज़रूरत है। कई बार खुद को देश से भी ऊपर रख देते हैं।

    राजस्थान विधानसभा में इस सप्ताह यही हाल दिखा। जयपुर के विधायक रफ़ीक खान कह रहे थे कि, 'जीत के बाद 100 दिन के बड़े पोस्टर लगाए गए थे कि यह कर देंगे, वह कर देंगे लेकिन कोई सदस्य गिना नहीं पाया कि उन्होंने क्या किया है। पहली बार अशोक गहलोत सरकार ने राजस्थानवासियों को मकानों के पट्टे जारी किए जबकि नई सरकार बचे हुए पट्टे देने का काम भी पूरा नहीं कर पाई।' भाजपा के पहली बार के विधायक गोपाल शर्मा बीच में उठकर कहने लगे कि 'कुछ भी बोल जाते हैं विधानसभा में। देश में जनता में क्या संदेश जाएगा?' उन्होंने विधायक को 'पाकिस्तानी' कह दिया। बाद में विधायक रफ़ीक खान ने भावुक होकर कहा कि'मैं दो रात से सो नहीं पाया हूं। विधानसभा में मेरे व्यक्तित्व का चीरहरण हुआ है । यदि शब्दों की इतनी ही दरिद्रता है तो आप एक क़ानून लाओ कि आगे से कोई मुस्लिम विधायक विधानसभा में चुनकर नहीं आएगा।'

    शायद ये दो विधायक आपस में गुलाल लगाकर और मीठा खिलाकर इस कड़वाहट को ख़त्म करें। हालांकि ऐसा होने की कोई उम्मीद नहीं है क्योंकि सब को पता है कि ऐसे बयानों की पार्टी स्तर पर कोई आलोचना नहीं होती बल्कि गालीबाज़ों को नवाज़ा जाता है। अब यह आम है कि आप बात भले ही मुद्दों पर करना चाह रहे हैं लेकिन जवाब मज़हब और जाति की पहचान के साथ मिलता है। हम इसी में उलझा दिए गए हैं। ऐसे में फिर बहस की कोई गुंजाईश कहां रह जाती है? संसद और विधानसभा में भी जब यूं आवाज़ दबेगी तब लोकतंत्र केवल ऊंची दीवार वाला सुन्दर भवन बनकर रह जाएगा। होली के रंग अब फ़ीके हैं। वह और दौर था जब नज़ीर अकबराबादी ने पूरी ग़ज़ल होली की धमक पर लिखी थी, जिसका एक शेर यूं है-

    जब फागुन रंग झमकते हों तो तब देख बहारें होली की।
    और डफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
    दूसरी, अमीर ख़ुसरो की एक नज़्म की पंक्तियां हैं-
    तुम मिरे क़त्ल के बाद
    अपनी महफ़िल तो सजाओगे मगर
    मुझ को नहीं पाओगे
    फिर किसे देख के शर्माओगे।
    (लेखिका स्वतंत्र पत्रकार है)

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