- सर्वमित्रा सुरजन
राजनीति में गांधी नाम का यह जंतर खत्म हो, और बिना किसी लिहाज के, बिना किसी ग्लानि के खुला खेल खेलने की छूट मिले, अब इसकी कोशिशें शुरु की गईं। पहले स्वच्छता अभियान तक गांधीजी को सीमित करने की रणनीति बनाई गई। उनके चश्मे के पीछे जो दूरदृष्टि रखने वाली आंखें थी, वो हटाई गई, केवल चश्मा रखा गया। हालांकि गांधीदृष्टि दक्षिणपंथियों को चुभती रही। फिर यह साबित करने की कोशिश की गई कि खादी पर गांधीजी का एकाधिकार नहीं था।
महात्मा गांधी को चिठ्ठी पहुंचे, अपने इस व्यंग्य में परसाईजी एक जगह लिखते हैं कि मोमबत्ती के पैकेट पर आपका फोटो था। फोटो में आप आरएसएस के ध्वज को प्रणाम कर रहे हैं। पीछे हेडगेवार खड़े हैं। एक ही कमी रह गई। आगे पूरी हो जायेगी। अगली बार आपको हाफ पैंट पहना दिया जायेगा और भगवा टोपी पहना दी जायेगी। आप मजे में आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अमर हो सकते हैं। आगे वही अमर होगा जिसे जनसंघ करेगा। इसमें परसाईजी आगे लिखते हैं- गोडसे को भगत सिंह का दर्जा देने की कोशिश चल रह रही है। गोडसे ने हिंदू राष्ट्र के विरोधी गांधी को मारा था। गोडसे जब भगत सिंह की तरह राष्ट्रीय हीरो हो जायेगा, तब तीस जनवरी का क्या होगा? अभी तक यह 'गांधी निर्वाण दिवस है', आगे 'गोडसे गौरव दिवस' हो जायेगा।' एक महान पुरुष के हाथों मरने का कितना फायदा मिलेगा आपको? लोग पूछेंगे- यह गांधी कौन था? जवाब मिलेगा- वही, जिसे गोडसे ने मारा था।
यह व्यंग्य उस वक्त लिखा गया था, जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन चुके थे। परसाई जी ने तब देश के हालात भांप कर जो व्यंग्य लिखकर चेतावनी दी थी, वो अब भयावह सच की शक्ल में सामने आ रही है। गोडसे का महिमामंडन अब खुलेआम गर्व से किया जा रहा है। गांधीजी को मारने का रोमांच अनुभव करने के लिए अब 30 जनवरी को उनके पुतलों पर गोली चलाई जाती है। खून जैसा लाल रंग बहते देख कर तामसिक प्रसन्नता का अनुभव कुछ लोग करते हैं। हालांकि इन लोगों को इस बात की कसक हमेशा रही होगी कि गांधी को मार कर भी उनके नाम को देश-दुनिया की स्मृति से नहीं हटाया जा सका। हर बदलते दौर के साथ गांधीजी की प्रासंगिकता शिद्दत से महसूस की जाने लगी। कई कठिन परिस्थितियों में फैसलों की कसौटी गांधी के विचार ही हुआ करते हैं कि गांधी होते तो क्या करते।
राजनीति में गांधी नाम का यह जंतर खत्म हो, और बिना किसी लिहाज के, बिना किसी ग्लानि के खुला खेल खेलने की छूट मिले, अब इसकी कोशिशें शुरु की गईं। पहले स्वच्छता अभियान तक गांधीजी को सीमित करने की रणनीति बनाई गई। उनके चश्मे के पीछे जो दूरदृष्टि रखने वाली आंखें थी, वो हटाई गई, केवल चश्मा रखा गया। हालांकि गांधीदृष्टि दक्षिणपंथियों को चुभती रही। फिर यह साबित करने की कोशिश की गई कि खादी पर गांधीजी का एकाधिकार नहीं था। 2017 के खादी ग्रामोद्योग के कैलेंडर से गांधीजी की तस्वीर हटा ही दी गई थी। साबरमती के आश्रम को भी बदलने की कोशिशें की गईं। उसे आधुनिक और सुंदर बनाने के नाम पर गांधीवाद की मौलिकता और सादगी को मिटाने की सोच इसके पीछे थी।
दूसरे देशों के कई मेहमान अब दिल्ली के राजघाट की जगह साबरमती आश्रम पहुंचने लगे हैं और वहां चरखा चलाकर, फोटो खिंचवाकर ये जाहिर किया जाता है कि वे गांधीजी से कितने प्रेरित हैं। हालांकि राजघाट हो या साबरमती आश्रम, गांधीजी से प्रेरणा लेने के लिए इन जगहों पर जाकर आडंबर करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। गांधीजी होते तो उन्हें भी ये दिखावा पसंद नहीं आता। वे कहते कि इतना वक्त और धन यहां लगाने की जगह जाकर किसी मलिन बस्ती के लोगों का जीवन और वहां की सूरत बदली जाए।
गांधीजी के आदर्शों पर अगर देश और दुनिया चलती तो आज तस्वीर कुछ और होती। परसाई जी की सूक्ष्म दृष्टि और वृहत सोच ने इस तस्वीर का अनुमान पहले ही लगा लिया था। इसलिए उन्होंने व्यंग्य में पत्र लिखकर चेतावनी दे दी थी। लेकिन तब न कांग्रेस ने, न देश के उदारवादी और मध्यमार्गी लोगों ने इस चेतावनी को गंभीरता से लिया। नतीजा ये रहा कि गांधी के हत्यारों की मानसिकता दीमक की तरह इस देश में अपनी जगह बनाकर, फैलती रही। लोकतांत्रिक और प्रगतिशील सोच को भीतर-भीतर कुरेदती रही। देश के शैक्षणिक और व्यावसायिक सारे संस्थानों पर गांधी के हत्यारे अपनी मानसिक छाप छोड़ने लगे। लेकिन गांधी विचारधारा फिर भी चंपा के फूल की मानिंद कट्टरता की कड़ी धूप में खिलती रही, सुगंध बिखेरती रही। तो अब मास्टर स्ट्रोक खेलकर गांधीजी का कद छोटा करने का कुत्सित प्रयास हुआ है। इस बार सावरकर को ही गांधी के बराबर खड़ा करने की चाल चली गई है।
गांधी स्मृति और दर्शन समिति की हिंदी में प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका 'अंतिम जन' के जून के कवर पेज पर वीडी सावरकर को जगह मिली है। इस विशेषांक में महात्मा गांधी का धार्मिक सहिष्णुता पर लेख है, उसके साथ सावरकर का हिंदुत्व पर लेख और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का सावरकर पर लेख भी पत्रिका में लिया गया है। गांधी स्मृति और दर्शन समिति यानी जीएसडीएस संस्कृति मंत्रालय के अधीन कार्य करती है और इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं। 1984 में स्थापित जीएसडीएस का मूल उद्देश्य महात्मा गांधी के जीवन, मिशन और विचारों को विभिन्न सामाजिक-शैक्षिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से प्रचारित करना है। गांधीवादियों का एक मनोनीत निकाय और विभिन्न सरकारी विभागों के प्रतिनिधि इसकी गतिविधियों का मार्गदर्शन करते हैं।
जून के अंक की प्रस्तावना में जीएसडीएस के उपाध्यक्ष और भाजपा नेता विजय गोयल ने सावरकर को 'महान देशभक्त' बताते हुए लिखा है, 'यह दुखद है कि जिन्होंने जेल में एक दिन भी नहीं बिताया है, और समाज के लिए योगदान नहीं दिया है, सावरकर जैसे देशभक्त की आलोचना करें।' सावरकर का इतिहास में स्थान और स्वतंत्रता आंदोलन में उनका सम्मान महात्मा गांधी से कम नहीं है।' सावरकर को वीर की संज्ञा से विभूषित करने वाले लोगों की निगाह में सावरकर हमेशा से एक महान शख्सियत रहे हैं। यह बात सही है कि उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी का बिगुल बजाने की कोशिश की थी, लेकिन जब उन्हें अंडमान की जेल में रखा गया तो उन्होंने जो माफीनामे लिखे थे, वो भी इतिहास के पन्नों पर दर्ज हैं। नेहरू जी ने भी अपने जीवन के कई साल जेल की सलाखों के पीछे बिताए हैं।
गांधीजी को भी कई बार सजा हुई, कस्तूरबा गांधी की तो मौत ही कैद में हुई। इन महान शख्सियतों के अलावा भी कई और लोगों ने अपना जीवन आजादी की लड़ाई में होम कर दिया। इसी दौर में बहुत से लोगों ने अंग्रेजों की सेवा कर अपने लिए जागीरों और उपाधियों का इंतजाम भी किया। सबकी अपनी पसंद और ख्याल थे। किसी पर कोई जबरदस्ती तो थी नहीं कि कोई अपना देशप्रेम साबित करे। कुछ लोगों को अंग्रेजी राज में मिल रही सुख सविधाएं गुलामी, अपमान और जी हूजुरी के साथ मंजूर थी। कुछ भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद जैसे लोग थे, जिन्हें पता था कि उन्हें आजादी की राह में पहले मौत मिल सकती है, तो उन्होंने उसे ही चुन लिया। वीडी सावरकर ने पहले विरोध का फैसला किया, बाद में माफी मांगने का, यह उनका चयन था। उनके इसी चयन के आधार पर अब उन्हें लेकर देश में दो तरह की राय बंटी हुई है। कोई उन्हें वीर मानता है, कोई नहीं मानता है। लेकिन आज के दौर में हुकूमत को बंटी हुई राय पसंद नहीं है। हुक्मरान सबको एक राय पर चलते हुए देखना चाहते हैं। इसलिए सावरकर की देशभक्ति और वीरता असंदिग्ध रखने के लिए उन्हें गांधी के बरक्स खड़ा किया जा रहा है।
यह काम सावरकर स्मृति और दर्शन समिति बनाकर भी किया जा सकता था। आठ सालों का वक्त एक संस्थान खड़ा करने और उसकी जड़ें मजबूत करने के लिए काफी होता है। खासकर तब जबकि सारे संसाधन आपकी मुठ्ठी में हों। लेकिन गांधी का नाम तो तब भी चलता रहता। गांधी के हत्यारों को खतरा गांधी के शरीर नहीं, उनके विचारों से ही है। इसलिए अब गांधी के विचार खत्म हो जाएं, गांधीवाद अतीत बन जाए, इस कोशिश को साकार किया जा रहा है। गांधी स्मृति और दर्शन समिति सावरकर के गुणगान करे, इससे बेहतर पहल गांधीवाद को दफनाने के लिए नहीं हो सकती। यह सिलसिला जारी रहा तो हम वाकई परसाई जी के शब्दों को हकीकत में बदलते देखेंगे। हम आइंस्टाइन को भी गलत साबित करके रहेंगे, क्योंकि अब आने वाली पीढ़ियां गांधी के बारे में नहीं पूछेंगी, अब वे उस किस्से को सुनेंगी कि गोडसे ने किस बहादुरी से भरी सभा में गांधी को मार गिराया।