— सर्वमित्रा सुरजन
राहुल गांधी जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं ताकि जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव को दूर करने की शुरुआत हो सके। जब जनगणना होगी तो आंकड़े सामने आ जाएंगे कि देश में पिछड़ों की असल आबादी कितनी है और सरकारी योजनाओं के लाभ में उनकी हिस्सेदारी कितनी है। शैक्षणिक, व्यावसायिक क्षेत्रों में उनकी भागीदारी कितनी है। किन जातियों को आरक्षण की वाकई जरूरत है।
लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने बाकायदा ऐलान कर दिया कि हम जाति जनगणना करवा कर रहेंगे। यह बात कांग्रेस के घोषणापत्र में थी और राहुल गांधी ने अपने लगभग सभी चुनावी भाषणों में भी इस बात का जिक्र किया ही है। जब तक जातिवार गिनती की बात सड़क पर हो रही थी, भाजपा को इससे डर नहीं लग रहा था क्योंकि उसे विश्वास था कि वह इस मुद्दे से भी जनता का ध्यान भटका ही लेगी। लेकिन जिस तरह संविधान के मसले पर भाजपा चुनावों में घिर गई और उसके अपने सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई है कि विपक्षी गठबंधन इंडिया के उठाए इस मुद्दे पर ठीक से बचाव नहीं किया गया, इसलिए भाजपा को नुकसान हुआ है, उसी तरह का नुकसान अब जातिगत जनगणना के मुद्दे पर भी होता हुआ नजर आ रहा है। राहुल गांधी के ऐलान का जवाब देने की कोशिश में पहला सेल्फ गोल भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने दागा, उन्होंने सदन के भीतर कहा कि जिनकी अपनी जाति का पता नहीं, वे जाति जनगणना की बात कर रहे हैं। इस बयान पर मंगलवार से लेकर बुधवार तक विपक्ष ने संसद में खूब विरोध किया। अखिलेश यादव ने बाकायदा सवाल उठाया कि आप सदन के भीतर जाति कैसे पूछे सकते हैं। लेकिन अखिलेश यादव शायद भूल गए कि जो पार्टी सदन के भीतर धर्म के आधार पर साथी सांसद को अपशब्द सुना सकती है, वह जाति भी पूछ सकती है। बहरहाल, अनुराग ठाकुर के बयान के कुछ हिस्से को संसदीय कार्रवाई से हटा दिया गया, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने इस पूरे बयान को अपने एक्स प्लेटफार्म पर शेयर करके, इसकी तारीफ करके दूसरा सेल्फ गोल कर दिया। अब तक जनता के सामने भाजपा के संविधान विरोधी चेहरे से पर्दा हटा था, अब देश की 80 प्रतिशत जनता यह भी देख रही है कि भाजपा किस तरह जातिगत सामाजिक व्यवस्था के दुष्चक्र का शिकार लोगों की पीड़ा को दूर नहीं करना चाहती है।
राहुल गांधी से अनुराग ठाकुर ने उनका नाम लिए बिना जाति पूछी है और अब वे अपने बचाव में यही कह रहे हैं कि मैंने किसी का नाम नहीं लिया। दरअसल अनुराग ठाकुर उच्च जातियों द्वारा अक्सर किए जाने वाले व्यवहार का ही प्रदर्शन कर रहे थे, जिसमें किसी को काम पर रखने से पहले या किसी के साथ सार्वजनिक यातायात में सीट या भोजन बांटने से पहले बड़ी चतुराई से नाम के साथ उपनाम पूछ लिया जाता है। क्योंकि कई बार आर्थिक हैसियत से जाति का पता नहीं चलता। और जो लोग कमजोर आर्थिक हैसियत के होते हैं, उनसे तो बड़ी निर्लज्जता से कौन जात हो, का सवाल पूछा जाता है। इस सवाल के पीछे छिपी क्षुद्र मानसिकता का वीभत्स रूप मध्यप्रदेश में देखा गया जब भाजपा नेता ने आदिवासी युवक के सिर पर पेशाब कर दी। ऑनलाइन भोजन मंगवाने की सेवा में भी जाति का यह सवाल कई बार क्रूर तरीके से सामने आया है। कांवड़ यात्रा के दौरान जब मुस्लिम लोगों की पहचान के लिए दुकानों, होटलों और ठेलों पर नाम लिखने कहा गया, तब बहुत से लोगों ने चिंता जाहिर की थी कि नाम और पहचान का यह सवाल आगे जाति तक भी जा सकता है। जिस सोच के साथ कागज तो दिखाना पड़ेगा, जैसी मुहिम मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में चल पड़ी थी, वो अब संसद में कौन जात हो पूछने तक पहुंच गई है। श्री मोदी खुद इसका समर्थन कर रहे हैं, तो फिर कोई संशय नहीं रह जाता कि यह सरकार कितने संकुचित विचार लेकर चल रही है। संसद में संविधान की प्रति को माथे से लगाना फोटो स्टंट हो सकता है, लेकिन दिल में मनुस्मृति बसी हो, तो फिर राहुल गांधी के जाति जनगणना कराने के संकल्प पर विचार करना और जरूरी हो जाता है।
दरअसल कौन जात हो, यह सवाल समाज में जाति के विभेद को बनाए रखते हुए, निचली जातियों पर सवर्णों के दबदबे को कायम रखना चाहता है। संघ की भाषा में इसे सामाजिक समरसता कहते हैं, जहां केवट को श्री राम का गले लगाना सामाजिक समरसता का श्रेष्ठतम उदाहरण बताया जाता है. लेकिन यह सवाल नहीं किया जाता कि आखिर नाव चलाने और मछली पकड़कर आजीविका तक ही केवट को क्यों सीमित रखा गया है, उन्हें क्या कभी राजगद्दी पर बैठने का अधिकारी भी माना जा सकता है। नरेन्द्र मोदी ने तो सामाजिक समरसता नाम से किताब भी लिखी है। वे खुद को जरूरत पड़ने पर ओबीसी भी बता देते हैं, और चुनावों के दौरान उन्होंने अमीरी और गरीबी केवल इन दो वर्गों को जाति माना था, बाकी सबको नकार दिया था। लेकिन इसी मोदी उपनाम पर बयान देने के कारण राहुल गांधी को न केवल मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़ा, बल्कि उन्हें ओबीसी विरोधी भी साबित करने की कोशिशें हुईं। अर्थात श्री मोदी खुद तय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर हिंदुस्तान में जातिगत सामाजिक व्यवस्था और इसके कारण एक बड़े तबके की वंचना पर उनके विचार क्या हैं। और राहुल गांधी जब इसका समाधान दे रहे हैं तो वे उन्हें अपमानित करने वालों की पीठ ठोंक रहे हैं।
राहुल गांधी जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं ताकि जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव को दूर करने की शुरुआत हो सके। जब जनगणना होगी तो आंकड़े सामने आ जाएंगे कि देश में पिछड़ों की असल आबादी कितनी है और सरकारी योजनाओं के लाभ में उनकी हिस्सेदारी कितनी है। शैक्षणिक, व्यावसायिक क्षेत्रों में उनकी भागीदारी कितनी है। किन जातियों को आरक्षण की वाकई जरूरत है और कौन अब समाज की मुख्यधारा में आकर रेस लगाने के लिए तैयार हो चुकी हैं। राहुल गांधी इसी को एक्सरे कहकर समझाने की कोशिश करते आए हैं कि एक बार जातिगत व्यवस्था का एक्सरे सामने आ जाएगा तो फिर समाज के भीतर पैठ चुके मर्ज का इलाज भी होगा और सरकारों को भी नीतियां बनाने में सुविधा होगी। अन्यथा अलग-अलग राज्यों में जिस तरह कुछ तबकों द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर उग्र प्रदर्शन किए जाते रहे हैं और राजनैतिक दल अपनी सुविधा के हिसाब से इन्हें बढ़ावा देते आएं हैं, यह सिलसिला कभी खत्म ही नहीं होगा।
एक गंभीर समस्या के निदान और इलाज का रास्ता राहुल गांधी ने सदन में दिखाने की कोशिश की, लेकिन बदले में उन्हें अपमानित किया गया। राहुल गांधी के लिए यह अपमान नया नहीं है, इसलिए अनुराग ठाकुर के बयान पर उन्होंने कह दिया कि वे हर तरह का अपमान सहने के लिए तैयार हैं और अर्जुन की तरह मछली की आंख पर निशाना लगाए हुए हैं। मशहूर कवि रमाशंकर यादव विद्रोही आज होते तो शायद श्री गांधी की इस पहल को किसी धारदार कविता के जरिए व्यक्त करते। फिलहाल उनकी एक कविता हम ग़ुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे...की कुछ पंक्तियां पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं-
हम कौन हैं क्या ये भी नहीं ज्ञात है
हम कमेरों की भी क्या कोई जात है
हम कमाने के खाने का परचार ले
अपना परचम लिए अपना मेला लिए
आख़िरी फै़ सले के लिए जाएंगे
अपनी महफ़िल लिए अपना डेरा लिए
उधर उस तरफ़
ज़ालिमों की तरफ़
उनसे कहने की गर्दन झुकाओ चलो
अब गुनाहों को अपने क़बूलों चलो
दोस्तों उस घड़ी के लिए अब चलो
और अभी से चलो उस ख़ुशी के लिए
जिसके ख़ातिर लड़ाई ये छेड़ी गई
जो शुरू से अभी तक चली आ रही
और चली जाएगी अंत से अंत तक
हम ग़ुलामी की अंतिम हदों तक लड़ेंगे...।