• राजा रानी किसी का पानी नहीं भरते हैं हम

    14 वीसदी में शुरु हुए रेनेसां यानी पुनर्जागरण ने यूरोप को मध्ययुग की संकीर्णताओं से निकाला था

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    - सर्वमित्रा सुरजन

    सिद्धांतों और व्यवहार में यह एकरूपता आज के वक्त में दुर्लभ हो गई है। खासकर कला, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में अब ऐसे लोगों का ही बोलबाला है, जिन्हें दरबारों में सिर झुकाने से परहेज नहीं है। जब दिग्गज ऐसा करते हैं, तो उभरते हुए कलाकारों, लेखकों को भी इसमें कुछ गलत नहीं लगता। कलाकारों की बड़ी बिरादरी भी अब उन राजनेताओं की तरह हो गई है, जिन्हें सत्ता के लिए विचारधारा से समझौता करने में कोई हिचक नहीं होती।

    14 वीं सदी में शुरु हुए रेनेसां यानी पुनर्जागरण ने यूरोप को मध्ययुग की संकीर्णताओं से निकाला था। रेनेसां ने नयी खोजों, नए विचारों और सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक उन्नति से यूरोप को सुसज्जित कर आधुनिक युग में प्रवेश करवाया। इस दौर ने परंपरागत व्यवस्थाओं पर सवाल खड़े करने का साहस समाज को दिया। धार्मिक संकीर्णताओं के बरक्स मानवाधिकारों को खड़ा किया। कला और साहित्य को धार्मिक बंधनों से आजाद तक यथार्थवादी बनाया। पुनर्जागरण का प्रभाव यूरोप तक ही सीमित नहीं रहा, पूरी दुनिया में इसकी वजह से नयी चेतना फैली। मानव समाज ने जागरुकता का नया स्वाद चखा। यह सब संभव हुआ लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों के योगदान से। वास्तव में हर दौर में समाज को नयी दिशा देने वाले लेखक होते रहे हैं। भारत में भक्तिकाल के अनेक कवियों के उदाहरण इस पृष्ठभूमि में गिनाए जा सकते हैं।

    रेनेसां और भक्तिकाल की याद दो खबरों को देखकर आ गई। दोनों खबरें अलग मिज़ाज की हैं, मगर कला-साहित्य की दुनिया से ही जुड़ी हुई हैं। पहली खबर है न्यू इंडियन एक्सप्रेस समूह की ओर से दिए जाने वाले देवी सम्मान की, जिसे तमिल कवयित्री सुकीरथरणी ने लेने से इन्कार कर दिया। गौरतलब है कि न्यू इंडियन एक्सप्रेस समूह देश भर में उल्लेखनीय काम करने वाली महिलाओं को हर साल 'देवी सम्मान' से सम्मानित करता है। इस बार सम्मानित महिलाओं की सूची में सुकीरथरणी का नाम भी शामिल था। उन्हें दलित साहित्य में योगदान के लिए सम्मानित किया जा रहा था। तमिलनाडु के रानीपेट ज़िले के लालापेट में गवर्नमेंट गर्ल्स हाईस्कूल में शिक्षिका सुकीरथरणी के छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

    तमिलनाडु के कॉलेज पाठ्यक्रम में उनकी अनेक कविताएं शामिल हैं। पेरियार, अंबेडकर और मार्क्स के विचारों से वे प्रेरित रही हैं। उनकी कविताओं का देशी-विदेशी कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। विश्व प्रसिद्ध पब्लिकेशन 'वेरसो बुक्स' ने विश्व साहित्य में पिछले चार हज़ार साल की प्रभावी लेखिकाओं की एक सूची बनाई है, जिसमें शीर्ष 200 लेखिकाओं में सुकीरथरणी का नाम शामिल है। इन उपलब्धियों को देखते हुए देवी सम्मान के लिए उनका नाम चुना जाना सही फैसला ही लगता है। लेकिन सुकीरथरणी ने इस सम्मान को लेने से इन्कार कर दिया।

    हालांकि उन्होंने 28 दिसंबर को अपनी स्वीकृति दे दी थी, लेकिन फिर हिंडनबर्ग रिपोर्ट आई, जिसमें अडानी समूह पर कुछ गंभीर आरोप लगाए गए। इसी दौरान न्यू इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप ने कार्यक्रम के प्रोमो चलाने शुरु किए, जिसमें सुकीरथरणी ने अडानी समूह का लोगो देखा। उन्हें पता चला कि अडानी समूह इस सम्मान समारोह का मुख्य प्रायोजक है, तो फिर सुकीरथरणी ने इस सम्मान को लेने से इन्कार कर दिया। अपने फेसबुक पेज पर उन्होंने लिखा मेरी दिलचस्पी ऐसे किसी सम्मान में नहीं है जिसको अडानी समूह की वित्तीय मदद मिल रही हो। मैं इस मुद्दे पर बोलती रही हूं, इसलिए मैं सम्मान लेने से इनकार कर रही हूं। बीबीसी से बातचीत में सुकीरथरणी ने साफ कहा कि मैं भ्रष्टाचार और सावर्जनिक संपत्ति के इस्तेमाल पर काफ़ी कुछ लिखती रही हूं। किसी भी स्तर पर हमें अपने सिद्धांतों और विचारधारा से समझौता नहीं करना चाहिए।

    सिद्धांतों और व्यवहार में यह एकरूपता आज के वक्त में दुर्लभ हो गई है। खासकर कला, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में अब ऐसे लोगों का ही बोलबाला है, जिन्हें दरबारों में सिर झुकाने से परहेज नहीं है। जब दिग्गज ऐसा करते हैं, तो उभरते हुए कलाकारों, लेखकों को भी इसमें कुछ गलत नहीं लगता। कलाकारों की बड़ी बिरादरी भी अब उन राजनेताओं की तरह हो गई है, जिन्हें सत्ता के लिए विचारधारा से समझौता करने में कोई हिचक नहीं होती।

    भाजपा शासन में पुरस्कार, ओहदे या सरकारी खर्च पर विदेशों में साहित्य आयोजनों में जाने के लिए लालायित ऐसे साहित्यकार मिल जाएंगे, जो वामपंथ, धर्मनिरपेक्षता, सांप्रदायिक सौहार्द्र पर बड़ी-बड़ी पोथियां लिख सकते हैं। और इसी तरह कांग्रेसी सरकारों के साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में ऐसे कवियों, लेखकों को मंच पर बिठाया जाने लगा है, जिन्होंने कांग्रेस, गांधीवाद, नेहरू की सोच को कोस कर ही लोकप्रियता हासिल की है। प्रेमचंद वाकई दूरदृष्टा थे, इसलिए नमक का दारोगा में उन्होंने आखिर में मुंशी वंशीधर को पंडित अलोपीदीन की नौकरी स्वीकार करते दिखा ही दिया। आदर्शों की बात करने वाले वंशीधर पूंजी के आगे झुक गए। यही आज हो रहा है। इसलिए कोई लेखक या कलाकार किसी ऐसे सम्मान को लेने से इन्कार करता है, जहां उसे अपनी विचारधारा को हाशिए पर रखना पड़े, तो वह बड़ी खबर लगने लगती है।

    दूसरी खबर भोपाल से आई, जहां 13 फरवरी को भारत भवन का 41वां स्थापना दिवस मनाया गया। 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका उद्घाटन किया था। बरसों से यह कला और संस्कृति प्रेमियों के लिए तीर्थ की तरह रहा है। सत्ता और कला के बीच संतुलन साधते हुए यह सांस्कृतिक केंद्र अनेक नायाब प्रस्तुतियों का साक्षी बना, कई स्थापित और उभरते कलाकारों ने अपनी कला को यहां अभिव्यक्ति दी। इस बार भी 41वां स्थापना दिवस का समारोह मनाने के लिए यहां कई नामी-गिरामी कलाकार उपस्थित थे। इनमें कई अंतरराष्ट्रीय कला जगत में पहचान रखते हैं, कई पद्म पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ऐसी कई हस्तियों को इस अवसर पर सम्मानित करना था। लेकिन मुख्यमंत्री ढाई घंटे विलंब से पहुंचे और सम्मान के लिए बैठे कलाकार इंतजार करते रहे। मुख्यमंत्री ने देरी के लिए क्षमा याचना की, जो उचित ही है। वे राज्य के मुखिया हैं, तो उनकी व्यस्तताएं स्वाभाविक हैं। लेकिन अपनी-अपनी कला में महारत और कई सम्मान हासिल कर चुके कलाकारों को ऐसी क्या मजबूरी थी, जो वे एक बार और सम्मानित होने के लिए ढाई घंटे ठंड में बैठे रहे। क्या आत्मसम्मान से बड़ा भी कोई सम्मान होता है।

    कवि रमाशंकर यादव 'विद्रोही' की कविता है-

    राजा रानी किसी का पानी नहीं भरते हैं हम

    सींच कर बागों को अपने अब हरा करते हैं हम।
    शर्म से सिकुड़ी हुई इस देह को हैं तानते

    दोस्तो, अपने झुके कन्धे खड़ा करते हैं हम।
    ऐसा करने में है जलता ख़ून, तुम मत खेल जानो
    मोम जैसे दिल को पत्थर-सा कड़ा करते हैं हम।
    मान जाएं हार अपने ऐसी तो आदत नहीं
    बाद मरने के भी काफ़िर मौत से लड़ते हैं हम।
    आग भड़काने के पीछे अपना ही घर फूंक डालें
    सोचिएगा मत कि ख़ाली शायरी करते हैं हम।

    सम्मान ठुकराने और सम्मान पाने की इन दो खबरों के बीच इस कविता को पढ़ना सुखद है।

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