— बाबा मायाराम
खेती की अलग-अलग पद्धतियों के बारे में जान सकते हैं। हमारे किसानों ने परंपरागत खेती के औजार अपने लंबे अनुभव, कौशल व हुनर से बनाए थे। इससे खेती का इतिहास भी पता चलता है। इसलिए हमें इस श्रम संस्कृति का भी सम्मान करना चाहिए, और जिन्होंने इस संस्कृति को बनाया और आगे बढ़ाया, उन समुदायों के योगदान को भी याद रखा जाना चाहिए।
पिछले कुछ सालों से किसानों का संकट बढ़ रहा है, जिसकी खबरें आती रहती हैं। लेकिन दूसरी तरफ देसी बीजों की खेती की ओर भी रूझान बढ़ रहा है, इसकी चर्चा कम होती है। आज मैं ऐसे ही एक किसान की कहानी बताने जा रहा हूं, जिन्होंने न केवल देसी खेती बल्कि लोक साहित्य व ग्रामीण संस्कृति को बचाने की पहल की है।
इस पहल के अगुआ बाबूलाल दाहिया हैं। वे मध्यप्रदेश के सतना जिले में उचहेरा विकासखंड के पिथौराबाद गांव में रहते हैं। उनकी इस पहल के कारण यह साधारण सा गांव चर्चा में आ गया है। साल 2019 में देसी बीजों के संरक्षण व संवर्धन के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया है।
लगभग 15 साल पहले मैं घूमते-घामते उनके गांव पहुंचा था और उनसे मुलाकात की थी। उस समय वे आंगन में धान की देसी किस्मों को अलग-अलग छांटने के काम जुटे थे। उनका खपरैल का घर था। गोबर से लिपा-पुता था। सुघड़ता से चीजें रखी थीं। दीवार पर रस्सी से टंगी धान की बालियों के गुच्छे लटक रहे थे। गीली बालियों की खुशबू आ रही थी। महिलाएं हाथ की चक्की में उड़द दाल बना रही थीं।
इसके बाद तो मैं उनसे कई बार मिला, कार्यक्रमों में साथ रहा, कुछ प्रांतों की लम्बी यात्राएं भी कीं। लम्बी कद काठी और चिर-परिचित मुस्कान, यही उनकी खास पहचान है। वे गांव में रहते हैं और उसकी संस्कृति में रचे-बसे हैं। उनकी गिनती बघेली के प्रमुख कवियों में होती है। उन्होंने मुझे खेती की कई कहावतें व मुहावरे भी सुनाए। इस पर उनकी किताब 'सयानन के थातीÓ भी है।
बाबूलाल दाहिया, सालों पहले लोकगीत, लोकोक्तियां, मुहावरें और लोक साहित्य का संकलन व सृजन करते थे। इन पर उनकी किताबें भी हैं। लेकिन जब उन्हें यह महसूस हुआ कि अधिकांश लोक साहित्य व मुहावरे लोक अनाजों पर हैं और देसी अनाज लुप्त हो रहे हैं. तो उन्हें बचाने की मुहिम में जुट गए।
इसी प्रकार, आज आधुनिक व रासायनिक खेती के दौर में परंपरागत खेती के कई औजार चलन से बाहर हो रहे हैं, जिनसे किसान खेती करते थे, अनाज उगाते थे और वे ग्रामीण संस्कृति के प्रतीक थे। इन कृषि औजारों की किसान त्यौहारों पर पूजा भी करते हैं। इसलिए वह इन कृषि औजारों का संग्रह भी करने लगे, जिससे लोग उनकी परंपरागत संस्कृति को पहचानें, और इसे बचाने की पहल करें।
उन्होंने उनके घर के ही अतिरिक्त कमरों में यह संग्रहालय (म्यूजियम) बनाया है। इसमें लकड़ी, लोहे, मिट्टी, बांस, पत्थर, चमड़ा और धातु की कई प्राचीन वस्तुएं रखी हुई हैं। खेत-खलिहान, ग्रामीण जीवन में रोजमर्रा में इस्तेमाल आने वाली सभी चीजें शामिल की गई हैं।
यहां लकड़ी के हल, बक्खर, बैलगाड़ी हैं, तो लोहे की खुरपी, चिमटा, करछुली भी हैं। पत्थर की सिल, चक्की, खल-बट्टा है तो मिट्टी की हांडी, चूल्हा, गुल्लक, मटकी भी शामिल है। इसी प्रकार, बांस की टोकनी, सूपा और पंखा इत्यादि है। इस संग्रहालय को देखने और ग्रामीण संस्कृति को समझने दूर-दूर से लोग आते हैं और इनमें ग्रामीण संस्कृति की एक झलक पाते हैं।
इसके पहले बाबूलाल दाहिया ने देसी बीज बैंक बनाया,उनकी खेती की, उनके गुणधर्मों का अध्ययन किया और इस प्राकृतिक खेती का प्रचार प्रसार किया। उनकी कुल 8 एकड़ जमीन है, जिसमें से 2 एकड़ में ही देसी धान का प्रयोग करते हैं। बाकी 6 एकड़ में भी देसी किस्में लगाते हैं, वह भी बिना किसी रासायनिक खाद के। साथ ही उचहेरा ब्लॉक के कुछ गांवों में भी किसानों के साथ मिलकर धान और मोटे अनाज (कोदो, कुटकी,ज्वार) की खेती करते हैं।
देसी बीज बैंक में देसी धान की 200 किस्में हैं। गेहूं की 20 किस्में, चना की 5 किस्में हैं। इसके अलावा, सांवा, ज्वार, कोदो, कुटकी की किस्में हैं। कई प्रकार की सब्जियों के बीज भी हैं।
वे बताते हैं कि पहले हमारे क्षेत्र में पचासों तरह की धानें हुआ करती थी। इनमें बहुत विविधता है। जैसे गलरी पक्षी की आंख की तरह होता है गलरी धान। इसी तरह किसी धान का दाना सफेद होता है तो किसी का लाल। किसी का काला तो किसी का बैंगनी, किसी का मटमैला। कुछ का दाना पतला तो किसी का मोटा और कोई गोल तो किसी का दाना लंबा। कुछ धान की किस्मों के पौधे हरे होते हैं तो किसी के बैंगनी। इनमें न केवल विविधता है, बल्कि अलग-अलग रूप रंग का अपना विशिष्ट स्वाद व अपूर्व सौंदर्य है।
वे बताते हैं कि देसी धान ऋ तु के प्रभाव से पक जाती हैं। जैसे कोई एक ही किस्म की धान अलग-अलग समय में बोई जाए तो वे एक ही समय पक कर तैयार हो जाती हैं। यानी एक ही किस्म को अगर हम 1 जुलाई को बोएं और उसी किस्म को 1 अगस्त को बोएं तो वे एक साथ या कुछ दिनों के अंतर से ही पककर तैयार हो जाएंगी।
देसी धान को बार-बार निंदाई की जरूरत नहीं पड़ती। एक बार निंदाई हो जाए तो बहुत है। क्योंकि इसके पौधे को खरपतवार नहीं दबा पाती। क्योंकि इसका पौधा काफी ऊंचा होता है। कीट व्याधि को मकड़ी, मधुमक्खी, चींटी और मित्र कीट ही नियंत्रित कर लेते हैं। चिड़िया भी कीट नियंत्रण करने में सहायक हैं। केंचुएं निस्वार्थ भाव से निरंतर गुड़ाई कर जमीन को भुरभुरा बनाते हैं, खेत को बखरते हैं जिससे पौधे की बढ़वार में मदद मिलती है।
वे बताते हैं कि हमारे पूर्वज बादलों के रंग, हवा के रूख, अवर्षा, खंड वर्षा का पूर्वानुमान लगाने में माहिर थे। जैसे एक कहावत है कि 'पुरबा जो पुरबाई पाबै, सूखी नदियां नाव चलाबैं।' यानी पूर्वा नक्षत्र में पुरवैया हवा चलने लगे तो वर्षा ज्यादा होती है। और ज्यादा बारिश से सूखी नदियों में इतना पानी हो जाता है कि उनमें नाव चलनी लगती है।
वे बताते हैं जैसे हमारे देसी बीज खत्म हो रहे हैं, वैसे ही उससे जुड़े व परंपरागत खेती से जुड़े कई शब्द भी खत्म हो रहे हैं। पूरी कृषि संस्कृति और जीवन पद्धति खत्म हो रही है। अब हमारा काम गेहूं, चावल और दाल जैसे शब्द से चल जाता है। लेकिन पहले बहुत सारे अनाज होते थे। उनके नाम थे जैसे समा, कोदो, कुटकी, मूंग, उड़द, ज्वार, तिल्ली आदि। फिर उन्हें बोने से लेकर काटने तक कई काम करने पड़ते थे।
बोवनी, बखरनी, निंदाई-गुड़ाई, दाबन, उड़ावनी और बीज भंडारण आदि। खेती की हर प्रक्रिया के अलग-अलग नाम थे। यह जरूर है कि ये शब्द किसी शब्दकोष में नहीं मिलेंगे, लेकिन लोक मानस में थे। बुजुर्ग अब भी इन शब्दों को आत्मीय ढंग से याद करते हैं। इसी प्रकार, खेती के परंपरागत औजार भी अब चलन से बाहर हो गए हैं, इसलिए संग्रहालय में इन्हें सुरक्षित रखा गया है।
वे कहते हैं कि हम यहां ज्यादा पानी वाली फसलें नहीं लगा सकते, क्योंकि पानी की कमी है। विशेषकर, यह इलाका सूखा है। यहां की नदियों में पानी उत्तर भारत की तरह ही नहीं हैं, जहां साल भर पानी रहता है। वहां वर्षा हो या न हो, बर्फ पिघलने के कारण नदियों में पानी बना रहता है। यानी हमारे यहां की नदियां हिम पुत्री नहीं है, वन पुत्री हैं। पानी का स्रोत वन हैं। इन नदियों में पानी तभी होगा, जब वन होंगे पर वन जब होंगे तब हम पानी की किफायत बरतेंगे।
अगर हम तीन-तीन, चार-चार पानी वाली फसलें लगाएंगे तो धरती शुष्क होगी। पेड़-पौधे सूख जाएंगे। जब वन नहीं होंगे तो बारिश नहीं आएगी। क्योंकि जैसे कोई हवाई जहाज बिना हवाई अड्डा के नहीं उतरता वैसी ही बिना वन के बादल भी नहीं उतरते। यानी बारिश नहीं होगी।
इसलिए धान की खेती को लंबे समय तक करना है तो वनों को बचाना जरूरी है और यह तभी हो सकता है जब धान की कम पानी वाली किस्में लगाएं।
कुल मिलाकर, बाबूलाल दाहिया ने देसी बीजों की खेती को बढ़ावा दिया है। उनका संरक्षण व संवर्धन किया है, बीजों की अदला-बदली के साथ संस्कृति व विरासत से जुड़े परंपरागत ज्ञान को बचाया है। जलवायु बदलाव व प्रतिकूल मौसम के इस दौर में देसी बीजों की विविधतापूर्ण, कम लागत वाली खेती के प्रति विश्वास जगाया है। इससे मिट्टी-पानी का भी संरक्षण होता है। यह रसायनमुक्त और कुदरती और आत्मनिर्भर खेती है।
उनके अनोखे संग्रहालय में श्रम संस्कृति की झलक मिलती है। खेती की अलग-अलग पद्धतियों के बारे में जान सकते हैं। हमारे किसानों ने परंपरागत खेती के औजार अपने लंबे अनुभव, कौशल व हुनर से बनाए थे। इससे खेती का इतिहास भी पता चलता है। इसलिए हमें इस श्रम संस्कृति का भी सम्मान करना चाहिए, और जिन्होंने इस संस्कृति को बनाया और आगे बढ़ाया, उन समुदायों के योगदान को भी याद रखा जाना चाहिए।
इसके साथ ही प्राकृतिक खेती पर जोर देना चाहिए। हरियाली के संरक्षण व पोषण के साथ ग्रामीण जीवन को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। आजीविका के साथ पर्यावरणरक्षक खेती की ओर बढ़ना चाहिए। और यह तभी संभव है जब हम देसी बीज, परंपरागत खेती और ग्रामीण कृषि संस्कृति की ओर आगे बढ़ेंगे? लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं?