• नए भारत के तीन रंग

    पिछले दिनों दो ऐसी खबरें सामने आईं, जो न केवल निराशाजनक और दुख पहुंचाने वाली हैं

    - सर्वमित्रा सुरजन

    निशांक ने जिस तरह शेयर बाजार या क्रिप्टो करेंसी में निवेश किया, उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे जल्द से जल्द अधिक दौलत कमाने की चाह रही होगी। क्या इसे बाजारवाद और भूमंडलीकरण का स्याह पक्ष माना जाए, जो हमारे नौजवानों को पढ़ने और जीवन संवारने की उम्र में दौलत कमाने के लिए उकसा रहा है। क्या यह परिवार संस्था के लिए चुनौती है

    पिछले दिनों दो ऐसी खबरें सामने आईं, जो न केवल निराशाजनक और दुख पहुंचाने वाली हैं, बल्कि इन खबरों में भविष्य खराब होने वाले खतरनाक संकेत भी छिपे हुए हैं। एक खबर मध्यप्रदेश से है, दूसरी उत्तरप्रदेश से। दोनों राज्यों में इस वक्त भाजपा की सरकार है। लेकिन इन खबरों का वास्ता पूरे देश से जुड़ा है, इसलिए यह बात गौण है कि सरकार किस दल की है, महत्वपूर्ण यह है कि इस वक्त समाज किस दिशा में बढ़ रहा है, किस मानसिकता के तहत जी रहा है। पहले बात करते हैं मध्यप्रदेश से आई खबर की। भोपाल में बी.टेक की पढ़ाई कर रहे 21 बरस के निशांक राठौड़ की लाश औबेदुल्लागंज के पास एक रेलवे ट्रैक पर मिली थी। उसके फोन से उसके पिता को एक संदेश भी मिला था, जिसमें लिखा था गुस्ताख ए नबी की इक सजा, सर तन से जुदा। देख लो अगर नबी के बारे में गलत बोलोगे, तो यही हश्र होगा। इस संदेश के साथ कुछ ऐसे चित्र भी थे, जिन्हें देखने पर यही लगे कि यह साफ तौर पर हत्या की धमकी है, जो ईशनिंदा के कारण दी गई है।

    देश में इस वक्त जिस तरह सोशल मीडिया पर इतिहास, धर्म और संस्कृति के अधकचरे ज्ञान से भरी पाठशालाएं चल रही हैं, उनका मकसद लोगों को धर्म के नाम पर गुमराह करके एक दूसरे के खिलाफ भड़काना ही होता है। इसलिए निशांक राठौड़ के फोन से मिले संदेश के बाद अगर उसके परिजनों या समाज के बहुत से लोगों ने यही समझा हो कि उनके बेटे की धार्मिक उन्माद में हत्या की गई है, तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन पत्रकारों का काम खबर को प्रस्तुत करने से पहले हर पहलू को जांचना-परखना होता है। अगर वे भी बिना पड़ताल के निष्कर्ष पर पहुंचने लगें तो उन्हें फिर पत्रकार कहलाने का हक नहीं है। मगर ये इस समय की सबसे बड़ी विडंबना है कि ऐसे पत्रकार, संपादक और न्यूज़ चैनल ही नंबर वन और सेलिब्रिटी बन रहे हैं, जो सांप्रदायिकता की आग को बुझाने की जगह उसमें घी डालने का काम कर रहे हैं।

    निशांक राठौड़ की मौत को बहुत से टीवी चैनलों ने भड़काऊ शीर्षकों के साथ प्रस्तुत किया, जैसे मुसलमानों ने हिंदू लड़के का काटा गला। सिर तन से जुदा, कितनों को सजा। एक चैनल में शीर्षक था, नबी का नाम कब तक कत्लेआम और उसके नीचे लिखा था देशहित। यानी देशहित नाम के किसी कार्यक्रम में यह शीर्षक लगाया गया था। हालांकि ऐसे शीर्षक से कौन सा देशहित साधा जा रहा है, यह समझ से परे है। क्या इन चैनलों में बैठे लोग कत्लेआम जैसे शब्द का अर्थ और गंभीरता समझते हैं या उनके लिए टीआरपी का बढ़ना ही देशहित है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब देश के प्रधान न्यायाधीश ने समाचार चैनलों पर गंभीर टिप्पणी करते हुए उन्हें आईना दिखाया था। लेकिन सच देखकर भी आंख मूंद लेने की प्रवृत्ति जब देश पर हावी हो चुकी हो, तो कोई भी तल्ख टिप्पणी या आलोचना कारगर नहीं होगी। सोते हुए को जगाया जा सकता है, लेकिन जो सोने का नाटक करे उसे किसी हाल में जगाया नहीं जा सकता। इस वक्त समाज, सरकार, और स्वयंभू मीडिया का हाल ऐसा ही है।

    मीडिया जानता है कि वह किस एजेंडे के तहत, किन राजनेताओं को फायदा पहुंचाने के लिए कार्यक्रम दिखा रहा है। समाज भी जानता है कि टीवी के पर्दे पर एक-दूसरे पर चीख-चिल्ला कर की जाने वाली चर्चाएं प्रायोजित हैं, फिर भी खबरों के नाम पर वह ऐसे जहर का सेवन रोज कर रहा है। और सरकार भी जानती है कि ऐसी चर्चाओं से उसे अपने मकसद को साधने में मदद मिलती है, तो वह भी इस जहर को रोकने के लिए जुबानी जमा खर्च से अधिक कुछ नहीं करती। वर्ना देश का माहौल बिगाड़ने वाली प्रायोजित खबरों और चर्चाओं पर रोक लगाना सरकार के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। तो फिलहाल समाज को बांटने के खेल का सच समझते हुए भी सब अनजान बन रहे हैं और इसमें नुकसान नयी पीढ़ी का हो रहा है।

    निशांक राठौड़ के फोन से जिस तरह का संदेश मिला, वह चिंगारी भड़का सकता था। गनीमत ये रही कि मध्यप्रदेश पुलिस ने टीवी चैनलों की तरह सीधे निष्कर्ष पर पहुंचने की जगह पूरी पड़ताल की और अब ये खुलासा हुआ है कि निशांक ने खुद ही ये संदेश भेजा था। इस मामले की जांच कर रही एसआईटी ने पड़ताल में ये भी पाया कि सर तन से जुदा वाले संदेश को उसने कई बार इंटरनेट पर तलाशा था। निशांक की हत्या की आशंकाएं भी निराधार साबित हुईं, क्योंकि उसके हाथ-पैर बंधे होने के निशान नहीं मिले हैं। बल्कि ये पता चला है कि निशांक ने काफी सारा कर्ज लिया हुआ था, शेयर बाजार और क्रिप्टो करेंसी में निवेश भी किया था। लेकिन कर्ज न चुका पाने के कारण उसने आत्महत्या का रास्ता चुना। यानी जिस मामले को सांप्रदायिक हत्या करार देकर दो समुदायों को आपस में भिड़ाने की सारी तैयारी हो चुकी थी, वो कर्ज के कारण आत्महत्या का मामला साबित हुआ। इस मामले का सबसे बड़ा दुखदायी पहलू यह है कि एक नौजवान बेटे की मौत का बोझ उसके परिजनों को ताउम्र उठाना पड़ेगा। निशांक मौत से पहले जिन हालात से गुजर रहा था, वो भी समाज के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।

    निशांक ने जिस तरह शेयर बाजार या क्रिप्टो करेंसी में निवेश किया, उससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसे जल्द से जल्द अधिक दौलत कमाने की चाह रही होगी। क्या इसे बाजारवाद और भूमंडलीकरण का स्याह पक्ष माना जाए, जो हमारे नौजवानों को पढ़ने और जीवन संवारने की उम्र में दौलत कमाने के लिए उकसा रहा है। क्या यह परिवार संस्था के लिए चुनौती है कि वह अपने बच्चों के भीतर उमड़ रहे सवालों और मनोभावों को समझने में नाकाम हो रही है।

    बहरहाल, दूसरी खबर उत्तरप्रदेश के कानपुर से है, जहां फ्लोरेट्स इंटरनेशनल स्कूल के निदेशकों के खिलाफ पुलिस ने भारतीय दंड संहिता की धारा 295ए और यूपी धर्मांतरण निषेध अधिनियम-2021 की धारा 5(1) के तहत मामला दर्ज किया है। ये धाराएं कुछ हिंदुत्ववादी संगठनों की इस शिकायत के बाद लगाई गई हैं कि इस स्कूल में धर्मांतरण की कोशिश हो रही है। स्कूल 'शिक्षा जिहाद' को आगे बढ़ा रहा है, क्योंकि छात्रों से इस्लामिक प्रार्थना पढ़वाई जा रही है। जबकि साल 2003 में स्कूल की स्थापना के बाद से बहु-धार्मिक प्रार्थनाएं सुबह की सभा का हिस्सा थीं, लेकिन कुछ अभिभावकों द्वारा इस्लामिक प्रार्थनाओं के होने पर आपत्ति जताने पर प्रबंधन ने केवल राष्ट्रगान करवाने का फैसला लिया। यह बात यहीं खत्म हो सकती थी। जिन लोगों को कई धर्मों की प्रार्थनाओं से आपत्ति थी, वे अपनी शिकायत दर्ज कराते या अपने बच्चों को वहां नहीं पढ़ाते।

    लेकिन अब बात शिक्षा जिहाद तक पहुंच गई है। न्यू इंडिया में शिक्षा जिहाद जैसा शब्द उपलब्धि माना जाए या वैचारिक शून्यता, इस पर भी मंथन की जरूरत है। वैसे स्कूल की प्रार्थना पुस्तक में गायत्री मंत्र, सांची वाणी और भारत से संबद्धता से जुड़ी शपथ हैं। लेकिन कुछ हिंदूवादी नेताओं ने दावा किया है कि अभिभावक चिंतित हैं कि उनके बच्चे इस्लामिक प्रार्थना पढ़ रहे हैं।

    हिंदुत्ववादी संगठनों ने अपना विरोध दर्ज कराने के लिए स्कूल में कथित तौर पर एक 'शुद्धिकरण अनुष्ठान' भी किया। कितने कमाल की बात है कि देश के सैकड़ों सरकारी स्कूलों में पीने के लिए साफ पानी या लड़कियों की सुविधा के लिए शौचालय नहीं है।मध्याह्न भोजन सही तरीके से नहीं मिल पा रहा है। बहुत से स्कूल संसाधनों और शिक्षकों के अभाव में चल रहे हैं, लेकिन धर्म के रक्षक संगठन कभी इन सब कमियों के लिए कोई अनुष्ठान करते नहीं दिखते। हैरानी की बात ये भी है कि अभिभावकों की पहली चिंता उनके बच्चों को मिल रही शिक्षा के स्तर पर होनी चाहिए। मगर वे एक धर्म की प्रार्थना से भय महसूस कर रहे हैं। क्या उनकी परवरिश इतनी कमजोर है कि एक प्रार्थना से उनके बच्चों का अपने धर्म से विचलन हो जाएगा।

    बहुधर्मी प्रार्थना के लिए स्कूल का नाम पुलिस की फाइलों में आना, शिक्षा जिहाद जैसे शब्द की उत्पत्ति और एक नौजवान का धर्म और बाजार की मृग मरीचिका में भटक कर मौत को गले लगा लेना, नए भारत के इन तीन रंगों के बीच देश को हर घर तिरंगा अभियान मुबारक हो।

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