• थोड़े से लोगों को लाभ ज्यादातर को हानि पहुंचाएगी यह अराजकता

    धर्म-संस्कृति-परम्परा से जनित इस घृणा के पास चाहे जो कुछ हो लेकिन रोजगार, शिक्षा, पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य जैसे मसलों का हल नहीं है। यकीन न हो तो पूछकर देखिये!

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    धर्म-संस्कृति-परम्परा से जनित इस घृणा के पास चाहे जो कुछ हो लेकिन रोजगार, शिक्षा, पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य जैसे मसलों का हल नहीं है। यकीन न हो तो पूछकर देखिये! इसलिये कोई भी जब इन मुद्दों पर बात करता है तो उसके सवालों के संतोषजनक जवाब न देकर उन्हें या तो इतिहास के अंधेरे, सीलन भरे और जाले लगे गलियारों में सैर कराने ले जाया जाता है या फिर भावी समाज की असाध्य व कल्पित तस्वीर दिखलाई जाती है जिसके निर्माण की बुनियाद धार्मिक-साम्प्रदायिक-सांस्कृतिक भावनाएं हैं, न कि ठोस व वैज्ञानिक योजनाएं।


    धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं को लेकर देश में इस समय जो टकराव व अराजकता की स्थिति है वह किसी भी संवेदनशील को विचलित करेगी। वह इसलिये क्योंकि इससे नुकसान सिर्फ अधिसंख्य साधारण नागरिकों का होगा और बेहद थोड़े से बड़े लोग लाभान्वित होंगे (हो भी रहे हैं)। इससे अधिनायकवाद मजबूत व आमजन कमजोर होगा। झूठे गर्व की आड़ में समाज में नफरत व हिंसा का दायरा जिस तरह से फैल रहा है उससे निर्मित तबाही से कोई नहीं बच पायेगा- रसूखदारों को छोड़कर। अराजकता की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं उनमें युवा वर्ग की संलिप्तता अधिक चिंताजनक है। धर्म का सहारा इसलिए लिया जा रहा है ताकि लोग न केवल अधिक भड़कें व उग्र हों बल्कि संजीदा लोग चुप रह जाएं।


    युवा वर्ग को इससे इसलिए बचकर रहना होगा क्योंकि इससे उनका शिक्षा सम्बन्धी बड़ा नुकसान होगा एवं उनके लिये रोजगार भी खत्म हो जायेंगे। युवा वर्ग को इस अराजकता का उपकरण बनाने के लिये शिक्षा के केन्द्र निशाने पर हैं। जिन युवाओं का इन अराजक घटनाओं में इस्तेमाल हो रहा है, वे मध्य, निम्न मध्य व निम्न वर्गों के हैं। एक तरफ शिक्षा महंगी की जा रही है, तो दूसरी तरफ रोजगार सिमट रहे हैं। इसलिये इस अराजकता को समर्थन देने वाले स्वयं एवं अपने परिवारों को इससे बचाकर चल रहे हैं। हिन्दी, संस्कृत, गुरुकुल, परम्परागत शिक्षा आदि की बातें वे लोग करते हैं जो अपने बच्चों को आधुनिक शिक्षा दिलाते हैं। उनके बच्चे इन लपटों से दूर बड़े शहरों या विदेशों में रहते हैं। अराजकता इसलिये भी पूंजीपतियों, जमींदारों, शोषकों आदि के लिये सुखद होती है क्योंकि वे जानते हैं कि भूखी-नंगी जनता उनके आगे झुकेगी। उन्हें सस्ते में मजदूर व कर्मचारी मिलेंगे और वे अपने उत्पादों व वस्तुओं की कीमतें बढ़ाकर मनमाना मुनाफा पीटेंगे। युवा वर्ग उनके लिये भावी सस्ता मानव संसाधन है जो भूख व गरीबी से लाचार होकर उनके पास काम करने आयेगा।

    वर्तमान दौर में कुछ पड़ोसी मुल्कों में भी अराजकता फैली हुई है जिसके बीच वहां के राजनीतिज्ञ, पूंजीपति, कारोबारी, उद्योगपति आदि ही समृद्ध हो रहे हैं- हमारे देश की तरह। श्रीलंका में ही देखिये, तो असंख्य गरीब लोग आज वहां सड़कों पर हैं। वैसे अब काफी देर हो चुकी है। सरकार जनता का दमन कर रही है जिससे वे अधिक लाचार होते जायेंगे। यही कारण है कि पूंजीवादी, निवेशक, व्यवसायी घृणा व हिंसा को बढ़ावा देते हैं। उन्हें अपने देश में अराजकता की चिंता कभी नहीं होती क्योंकि वे विदेशों में आराम से रह सकते हैं। हमारे यहां ही देखिये, पांच लाख से अधिक कारोबारी भारत छोड़कर पहले ही जा चुके हैं। उनके व्यवसाय उनके नौकर सम्हालते हैं।


    उच्च व उच्च मध्य लोगों के वर्गीय हित इस अराजकता में छिपे हैं। यह खाया-पिया अघाया वर्ग है जो 1990 के दशक में आई सम्पन्नता से निहाल हुआ पड़ा है। अच्छी नौकरी, कार-फ्लैट, बंगले, दहेज में मिली अतिरिक्त दौलत, ब्लू चिप कंपनियों के इक्विटी शेयर, क्लब की सदस्यता, महंगे होटलों में जाने का शौक, बीवी को साड़ियों व जेवरों से लादने के बाद बच्चों को डोनेशन देकर आलीशान स्कूलों में पढ़ाने व हर साल नये डेस्टिनेशन पर छुट्टियां मनाने वाला यह ऐसा वर्ग है जिसके लिये सरकारी संस्थानों में काम करने वाले लोग भ्रष्ट व सुस्त हैं और देश का निर्माण केवल कार्पोरेट इंडिया कर रहा है। यही वह वर्ग है जो कोविड-काल में पैदल चलते मजदूरों या नोटबंदी की लम्बी कतारों को देखकर मुदित होता था। उसकी यह जो मूल्य प्रणाली है, वह उसकी अगली कई पीढ़ियों को प्रतिस्पर्धा एवं चुनौतियों से निरापद रखने की रणनीति है। इनमें सवर्ण हैं, बड़ी जमीनों के मालिक हैं, नव धनाढ्य हैं, उच्च मध्य वर्ग के लोग हैं, जो चाहते ही हैं कि निम्न, निम्न मध्य एवं मध्य वर्ग के लोग उनके बच्चों के लिये शिक्षा एवं नौकरियों के अवसर छोड़ दें।

    कल्याणकारी योजनाओं के तहत लोगों को मिलने वाली सुविधाओं, छूटों व रियायतों से उन्हें देश की अर्थव्यवस्था हिलती हुई न•ार आती है जबकि करोड़ों रुपये लेकर देश से भागने वाले मोदियों, माल्याओं और चौकसियों से उन्हें दिक्कत नहीं है और न ही अंबानी-अडाणी को मिलने वाली कर्ज माफी से उन्हें आपत्ति है।


    राजनैतिक दल इसका पूरा लाभ लेने के लिये तत्पर बैठे हुए हैं। वे चाहते हैं कि यह अराजकता खूब फैले। इसलिये जरूरी है कि इस मुद्दे को राजनैतिक दलों पर न छोड़ा जाये। यह हम सबका देश है। जनता को चीन और पाकिस्तान के नाम पर भड़काने वाले राजनीतिज्ञ, उद्योगपति, कारोबारी, रईस, उच्च शिक्षित, डॉक्टर-इंजीनियर तो विदेशों में बस जायेंगे (और खूब बस रहे हैं), लेकिन साधारण नागरिक कहीं नहीं जा पायेंगे। देश एक तालाब की तरह है। उसके किनारे पेड़ों पर रसूखदार लोग पक्षी की तरह बैठे हैं जबकि साधारण नागरिक मछलियां हैं। तालाब के सूखने पर उच्च वर्ग के लोग उड़ जायेंगे लेकिन जनता को इसके दलदल में तड़फकर मर जाना होगा।

    खुशहाली, सम्पन्नता एवं विकास उसी समाज में सम्भव है जहां सामाजिक संघर्ष न हों। धर्म, जाति, सम्प्रदाय, नस्लों के आपसी टकरावों ने दुनिया को जैसा नुकसान पहुंचाया है, उसके अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। वहीं दूसरी तरफ उन मसलों को हल करने वाले देशों ने कैसी तरक्की की है- यह भी सबके समक्ष है। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर आज तक का हमारा, पड़ोसी मुल्कों, तीसरी दुनिया, विकसित कहे जाने वाले यूरोपीय, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड जैसे देशों का इतिहास दोनों ही तरह के दृष्टांत पेश करते हैं।


    निम्न व मध्य वर्ग को चाहिए कि राजनीतिज्ञों, धार्मिक नेताओं, उद्योगपतियों, कारोबारियों एवं पैसे वालों के इस खेल को समझें और इससे दूर रहें। धर्म के नाम एक नयी पीढ़ी को इसलिये नफरत के अंधे कुएं में ढकेलकर हिंसक बनाया जा रहा है ताकि उनकी सत्ता व हित बरकरार रहें। धर्म-संस्कृति-परम्परा से जनित इस घृणा के पास चाहे जो कुछ हो लेकिन रोजगार, शिक्षा, पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य जैसे मसलों का हल नहीं है। यकीन न हो तो पूछकर देखिये! इसलिये कोई भी जब इन मुद्दों पर बात करता है तो उसके सवालों के संतोषजनक जवाब न देकर उन्हें या तो इतिहास के अंधेरे, सीलन भरे और जाले लगे गलियारों में सैर कराने ले जाया जाता है या फिर भावी समाज की असाध्य व कल्पित तस्वीर दिखलाई जाती है जिसके निर्माण की बुनियाद धार्मिक-साम्प्रदायिक-सांस्कृतिक भावनाएं हैं, न कि ठोस व वैज्ञानिक योजनाएं।


    अराजकता में लिप्त होकर, इसे बढ़ावा देकर या इसको तार्किक बतलाकर नागरिक तो वही कर रहे हैं जो सत्ता उनसे करवाना चाहती है। शासन की विकसित की गई आधुनिक प्रणाली में सामजिक संघर्षों व तनावों को शह देने की प्रवृत्ति में लगातार इजाफा हो रहा है, न कि उनके निराकरण में किसी की रुचि है। जैसे-जैसे समाज में अराजकता बढ़ेगी अधिनायकवाद, पूंजीवाद तथा कारोबार जगत मजबूत होता जायेगा एवं नागरिक कमजोर। इसलिये तो सत्ताधारी चुप है; और साथ ही ज्यादातर विपक्षी दल भी। पीड़ितों के साथ कोई नहीं खड़ा है। किसानों, मजदूरों, अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं आदि को अपनी लड़ाइयां खुद लड़नी पड़ रही हैं। समाज के अग्रणी लोग अराजकता को बढ़ावा दे रहे हैं। दूसरी तरफ जिन निम्नवर्गियों-निम्न मध्यवर्गियों, दलितों, ओबीसी या कमजोर वर्गों को सदियों से प्रताड़ित किया गया, वे भी आज अराजकता का न केवल समर्थन कर रहे हैं बल्कि ऐसे कृत्यों में शामिल तक हो रहे हैं। यह अंतत: समाज, देश व लोकतंत्र सभी के लिये नुकसानदेह साबित होगा।
    (लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)

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