- डॉ.अजीत रानाडे
इस वित्त वर्ष में उपभोग वृद्धि केवल 4.4 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है यानी जीडीपी वृद्धि दर से नीचे और पूंजीगत व्यय वृद्धि दर से काफी नीचे है। उपभोग खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 60 प्रतिशत से अधिक है तथा गति का बड़ा हिस्सा बनाता है। यह बदले में इस बात पर निर्भर करता है कि घरेलू आय कैसे बढ़ रही है और रोजगार वृद्धि एवं आजीविका आदि के लिए क्या संभावनाएं हैं।
पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान यानी अप्रैल 2022 से मार्च 2023 तक भारतीय अर्थव्यवस्था 7.2 प्रतिशत की दर से बढ़ी थी। उस समय अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) और विश्व बैंक दोनों का पूर्वानुमान था कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस वित्त वर्ष में और धीमी पड़कर करीब 7 प्रतिशत पर आ जाएगी। भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने नवीनतम आकलन में अभी भी यही दृष्टिकोण साझा किया है।
आश्चर्यजनक रूप से इस वित्तीय वर्ष के पहले छह महीनों के दौरान गति जबरदस्त रही है। यही कारण है कि 2023-24 के वित्त वर्ष की पहली छमाही के लिए विकास दर प्रभावशाली 7.7 प्रतिशत है जो आईएमएफ और विश्व बैंक के अनुमानों से बहुत अधिक है। यह बड़े पैमाने पर सरकार और निजी क्षेत्र दोनों द्वारा पूंजीगत व्यय में 31 प्रतिशत की वृद्धि (नाममात्र, मुद्रास्फीति असमायोजित शर्तों में) से प्रेरित था। पूंजीगत व्यय की यह मजबूत दर सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर पिछले वर्ष देखी गई 11 प्रतिशत की गति से कहीं अधिक थी। चूंकि पूंजीगत व्यय, सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक तिहाई है और यदि यह हिस्सा 31 प्रतिशत की दर से बढ़ता है तो निश्चित रूप से कुल सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि को तगड़ा प्रोत्साहन मिलता है। इस प्रकार पहली छमाही की गति अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और यहां तक कि आरबीआई के सतर्क आशावाद दोनों को चुनौती देती है।
अब सरकार ने पूरे साल के लिए अपने अग्रिम अनुमान प्रकाशित किए हैं जो 7.3 प्रतिशत है। इसका मतलब यह है कि सरकार को उम्मीद है कि विकास पहली छमाही में 7.7 से धीमा होकर दूसरी छमाही के दौरान लगभग 6.9 हो जाएगा जो औसतन 7.3 है। यह आंकड़ा अभी भी काफी प्रभावशाली है और आरबीआई के अनुमान से ज्यादा है। क्या यह बहुत अधिक आशावादी है? हमें इस बारे में जल्द ही पता लग जाएगा। यह आकलन सरकार के पास उपलब्ध विस्तृत डेटा बिंदुओं पर आधारित है जिसे 'उच्च आवृत्ति डेटा' कहा जाता है।
इसमें जीएसटी सहित कर संग्रह, कार्गो की आवाजाही, पर्यटकों का आगमन, निर्यात डेटा, तेल और ऊर्जा खपत का झुकाव आदि शामिल हैं। हालांकि कोई नहीं जानता कि गति कितनी जल्दी धीमी हो सकती है क्योंकि अंतत: यह उपभोक्ता और निवेशक मनोविज्ञान और भावना है जो विकास को चलाता है। इसलिए अच्छे से अच्छा अर्थशास्त्री भी इसका विश्लेषण नहीं कर पाता है। इस वित्त वर्ष में उपभोग वृद्धि केवल 4.4 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है यानी जीडीपी वृद्धि दर से नीचे और पूंजीगत व्यय वृद्धि दर से काफी नीचे है। उपभोग खर्च सकल घरेलू उत्पाद का 60 प्रतिशत से अधिक है तथा गति का बड़ा हिस्सा बनाता है। यह बदले में इस बात पर निर्भर करता है कि घरेलू आय कैसे बढ़ रही है और रोजगार वृद्धि एवं आजीविका आदि के लिए क्या संभावनाएं हैं।
इसलिए स्पष्ट रूप से सरकारी अनुमान के अनुसार इस वित्त वर्ष की अक्टूबर से मार्च तक की दूसरी छमाही में मंदी का दौर रहेगा। इसका आंशिक कारण यह भी है कि पूंजीगत व्यय के लिए सरकार द्वारा वित्त पोषित राजकोषीय प्रोत्साहन अनिश्चितकाल तक जारी नहीं रह सकता है। यह राजकोषीय घाटे को नुकसान पहुंचाता है जिसे अगर नियंत्रण में नहीं रखा गया तो ऋ ण-जीडीपी अनुपात 100 प्रतिशत तक बढ़ सकता है जिसके बारे में आईएमएफ ने चेतावनी दी है। इसलिए अगर सरकार अपनी कमर खुद ही कस लेती है तो विकास की रफ्तार कहीं और से आनी चाहिए।
शेष विश्व में जो कुछ हो रहा है, भारत उससे अछूता नहीं है। वैश्विक स्तर पर अधिकांश उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में मंदी का जिक्र हो रहा है। भू-राजनीतिक संघर्ष ने काले बादल छितरा दिए हैं और निवेशकों को जोखिम से आम तौर पर दूर कर दिया। यूक्रेन युद्ध दो साल से चल रहा है जिसका कोई अंत नजर नहीं आ रहा है। इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष के मध्य पूर्व के एक बड़े क्षेत्र में फैलने का खतरा है। लाल सागर से गुजरने वाले वाणिज्यिक जहाजों पर विद्रोही हौथी गुट द्वारा किए जा रहे हमले भी अत्यधिक चिंताजनक हैं। आमतौर पर आधे से अधिक वैश्विक व्यवसाय यातायात इस चैनल का उपयोग करता है किन्तु अब कई वाणिज्यिक कार्गो और यात्री लाइनर इस चैनल का उपयोग करने से बचेंगे। कोई भी भू-राजनीतिक संघर्ष, विशेष रूप से मध्य पूर्व में हुआ संघर्ष तेल की कीमतों को बढ़ाने की क्षमता रखता है जो भारत के लिए बहुत बुरी खबर है। मुद्रास्फीति, राजकोषीय घाटे, उपभोक्ता और निवेशक भावना और अंतत: विकास के लिए इसके परिणाम नकारात्मक होते हैं।
वैश्विक भू-राजनीति के अलावा विकास दृष्टिकोण को जो अन्य कारक प्रभावित कर सकता है वह है भारत में होने वाले राष्ट्रीय चुनाव। जैसे-जैसे हम आदर्श आचार संहिता की अवधि में प्रवेश करते हैं यह अनिवार्य रूप से विकास सम्बन्धी खर्चों पर ब्रेक लगाता है। लोकसभा चुनाव के अलावा कई राज्य ऐसे भी हैं जहां राज्य विधानसभाओं के चुनाव होने हैं। चुनावी वर्ष अर्थव्यवस्था को एक छोटा सा राजकोषीय प्रोत्साहन प्रदान करता है। वहां की मौजूदा सरकारें लंबित परियोजनाओं को तेजी से ट्रैक करती है, कई और फाइलों को मंजूरी देती है, सरकारी नौकरियों में रिक्तियों को भरती है एवं इसी तरह के कई काम करती हैं। ये भले ही राजकोषीय रूप से संदिग्ध हों लेकिन यह सब अर्थव्यवस्था के लिए सकारात्मक है। चुनाव पूर्व खर्च में तेजी का मतलब है कि चुनाव के बाद (जुलाई के पश्चात) हम खर्च की गति में कमी देख सकते हैं। बेशक, यदि मौजूदा सरकार को लगता है कि उसके फिर से निर्वाचित होकर आने की संभावनाएं बेहतर हैं तो इस वक्त वह राजकोषीय स्टेरॉयड डालकर खर्च में तेजी लाने का विकल्प नहीं चुनेगी।
मजबूत संरचना आर्थिक दृष्टिकोण के लिए सकारात्मक कारक हैं। इनमें युवा जनसांख्यिकी और श्रम शक्ति का विस्तार, तेजी से शहरीकरण, हरित अर्थव्यवस्था पर खर्च बढ़ाना तथा विशाल बुनियादी ढांचा खड़ा करने की महत्वाकांक्षा शामिल है। इसमें सबसे ऊपर सॉफ्टवेयर सेवाओं के निर्यात में निरंतर मजबूत गति है। नकारात्मक कारकों का पहले ही उल्लेख किया जा चुका है जिनमें कमजोर उपभोक्ता खर्च, वैश्विक अनिश्चितताएं, तेल कीमतों में वृद्धि की आशंका, अभी भी उच्च मुद्रास्फीति और कमजोर रोजगार वृद्धि की संभावनाएं प्रमुख हैं। इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि जब सभी आय वर्गों के उपभोक्ता अपनी मजदूरी, आय वृद्धि और रोजगार की संभावनाओं के संदर्भ में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हों तभी कुल उपभोक्ता खर्च में तेजी आएगी।
इसलिए यदि निम्न आय वर्ग अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहा है तो यह चिंता का विषय है। यह विकास के 'के-आकार प्रक्षेप वक्र' की निरंतर कहानी है जहां उच्च आय वर्ग के उपभोक्ता और जो महंगे उत्पाद, सेवाएं और लक्जरी सामान खरीदते हैं। वे बहुत अच्छा कमा रहे हैं लेकिन निम्न वर्ग के लोग संघर्ष कर रहे हैं। निचले स्तर पर विशेष रूप से कृषि, ग्रामीण क्षेत्रों और अनौपचारिक क्षेत्र में वास्तविक मजदूरी में वृद्धि बहुत कम रही है। यह एक गंभीर नीतिगत चुनौती है। 80 करोड़ भारतीयों के लिए पांच साल के लिए मुफ्त भोजन योजना का विस्तार उनकी आय वृद्धि की कमी की भरपाई के लिए एक आंशिक प्रतिक्रिया है। लंबी अवधि में, उच्च विकास को टिकाऊ बनाने के लिए इसे व्यापक तथा अधिक समावेशी होना चाहिए। कुल मिलाकर हम उम्मीद कर सकते हैं कि 2024-25 में वृद्धि दर इस वित्त वर्ष की तुलना में कम रहेगी।
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)