• अदालतों में लंबित हैं पांच करोड़ से अधिक मामले

    भारत ने दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश होने का गौरव वर्ष 2023 में हासिल किया

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    - डॉ.अजीत रानाडे

    हमने पिछले महीने ही एक और मील का पत्थर पार किया है जिस पर हम गर्व महसूस नहीं कर सकते। देश की सभी अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इस जानकारी के लिए हम डिजिटलीकरण को धन्यवाद दे सकते हैं। ई-कोर्ट वेबसाइट पर चल रहा टिकर यह जानकारी दे रहा है। 23 जुलाई की स्थिति के अनुसार उच्च न्यायालयों में 60.6 लाख मामले और जिला व तहसील अदालतों में 4.43 करोड़ मामले पेंडिंग थे।

    भारत ने दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश होने का गौरव वर्ष 2023 में हासिल किया और यदि यह छोटे-छोटे देशों में विभाजित नहीं होता तब तक शायद अगली शताब्दी और उससे आगे भी जनसंख्या के मामले में एक नंबर पर ही रहेगा। भाषा, धर्म, खानपान, नस्ल, जातीयता, संस्कृति और पंथ हर आयाम पर अपनी अविश्वसनीय विविधता के बावजूद भारत का एक टुकड़े में जीवित रहना अपने आप में आधुनिक दुनिया का एक चमत्कार है। सोवियत संघ दस देशों में विभाजित हो गया। दो-भाषा की विविधता- फ्रेंच और अंग्रेजी के कारण 1960 के दशक में कनाडा लगभग टूट गया। हमारा अपना पड़ोसी देश पाकिस्तान दो देशों में विभाजित हो गया। इसलिए 75 वर्षों तक एकीकृत राष्ट्र-राज्य के रूप भारत का अस्तित्व और प्रगति जश्न मनाने का एक प्रमुख कारण है। फिर भी, क्या हमें इस बात का भी जश्न मनाना चाहिए कि भारत विश्व की सबसे अधिक आबादी वाला देश भी है? यह मुद्दा दुधारी तलवार है। किसी देश के विकास के लिए सबसे महत्वपूर्ण संसाधन मानव पूंजी है। इसके लिए कौशल, शिक्षा, ड्राइव, उद्यमिता और अवसरों वाले लोग आवश्यक हैं लेकिन यदि मानव पूंजी को बढ़ाने में कोई निवेश नहीं किया जाता है और युवाओं के लिए कोई उत्पादक अवसर नहीं होते तो वही जनसांख्यिकीय लाभांश एक आपदा बन सकता है। यह आर्थिक चुनौती है।

    भारत की अर्थव्यवस्था ने चार साल पहले 3 ट्रिलियन डॉलर का आंकड़ा भी पार कर लिया था। यह विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक रहा है और इसलिए आगे बढ़ रहा है। 2023 में इसने यूनाइटेड किंगडम को पीछे छोड़ते हुए दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की उपलब्धि हासिल की और आने वाले वर्षों में इसकी रैंकिंग 3 तक पहुंचने की उम्मीद है। हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले महीने अमेरिकी कांग्रेस के समक्ष अपने भाषण में बड़े विश्वास के साथ यह बात कही थी। विकास की तेज गति जल्द ही हमें 5 ट्रिलियन डॉलर के प्रमुख मील के पत्थर तक ले जाएगी।

    हमने पिछले महीने ही एक और मील का पत्थर पार किया है जिस पर हम गर्व महसूस नहीं कर सकते। देश की सभी अदालतों में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। इस जानकारी के लिए हम डिजिटलीकरण को धन्यवाद दे सकते हैं। ई-कोर्ट वेबसाइट पर चल रहा टिकर यह जानकारी दे रहा है। 23 जुलाई की स्थिति के अनुसार उच्च न्यायालयों में 60.6 लाख मामले और जिला व तहसील अदालतों में 4.43 करोड़ मामले पेंडिंग थे। तीन साल पहले नालसार विश्वविद्यालय में एक भाषण में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए. बोबड़े ने कहा था कि कुल 32.45 लाख मामले लंबित हैं। यानी सालाना लगभग 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

    अर्थव्यवस्था 6 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है, जनसंख्या 0.8 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है लेकिन पेंडिंग मामलों का बैकलॉग 18 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। कुल केस लोड डेटा को इस तरह विभाजित किया जा सकता है कि कितने मामले एक वर्ष से कम समय से लंबित हैं, कितने 1 से 3 साल के बीच और इसी तरह आंकड़े हासिल किए जा सकते हैं। सभी लंबित मामलों के 25 प्रतिशत प्रकरण पांच साल से अधिक समय से पेंडिंग हैं। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार उच्च न्यायालयों के सभी मामलों में से एक चौथाई दस साल से अधिक समय से लंबित थे। आंकड़ों में बताएं तो यह संख्या दस लाख से अधिक है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय में सबसे अधिक 7 लाख से अधिक मामले लंबित थे। अब राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड के पास डिजिटल रूप में विस्तृत और व्यापक डेटा है। कोई भी डेटा का विश्लेषण कर सकता है और ऐसी कई जानकारियां प्राप्त कर सकता है।

    सिविल और आपराधिक दोनों मामलों की सुनवाई में देरी होती है। निचली अदालतों में 70 से 80 फीसदी लंबित मामले आपराधिक हैं लेकिन ऊपरी अदालतों में यह अनुपात उल्टा हो जाता है। लंबित मामलों का घातक प्रभाव उन लोगों पर पड़ता है जो जेल में हैं और जिन्हें 'विचाराधीन कैदी' कहा जाता है। चूंकि ये दोषी साबित नहीं हुए हैं इसलिए ये सभी तकनीकी रूप से निर्दोष हैं। मतलब इस प्रकार कैद किए गए 5 लाख लोगों में से लगभग 4 लाख विचाराधीन हैं यानी जो बिना किसी दोष सिद्धि के जेलों में रखे गए हैं। उनकी स्वतंत्रता से इंकार कर दिया गया है क्योंकि न्यायिक प्रणाली उनके मामलों की सुनवाई और फैसला करने में असमर्थ है। एक और विचित्र बात यह भी है कि ऐसे लोग भी हैं जो अपनी सजा की अवधि से अधिक समय तक जेल में गुजार चुके हैं और उनके मामले की समय पर सुनवाई नहीं हुई। ये शर्मनाक उदाहरण हैं और लोकतंत्र पर धब्बा है।

    मामलों का बड़ी संख्या में लंबित रहना भी काला धब्बा है। न्याय में देरी का मतलब है न्याय से वंचित होना। केंद्रीय वित्त मंत्रालय द्वारा प्रकाशित 2019 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में मामलों को निपटाने में लगने वाला औसत समय 30 महीने है इसकी तुलना में यूरोपीय संघ में 6 महीने की अवधि में मामले का फैसला आ जाता है। विवाद के निराकरण की धीमी गति के कारण कामकाज में सुगमता के दावे का भारत का रिकॉर्ड खराब हो गया है।

    आखिर बकाया मामलों की संख्या बढ़ने के क्या कारण हैं? पहला कारण न्यायिक अधिकारियों की अपर्याप्त संख्या है। औसतन 20 प्रतिशत खाली रिक्तियां हैं और निचली अदालतों की तुलना में ऊंची अदालतों में बहुत अधिक हैं। सिर्फ इन पदों को भरने से नए केस लोड और मौजूदा केस लोड के निपटान दर के बीच का अंतर खत्म हो सकता है। दूसरा कारण बचकाना लगता है लेकिन गंभीर है और इसे भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई.चंद्रचूड़ द्वारा उद्धृत किया गया था। पिछले दिसंबर में एक भाषण में उन्होंने कहा कि 63 लाख मामलों में वकील की अनुपलब्धता के कारण देरी हुई है। किसी प्रकार के दस्तावेज़ या रिकॉर्ड का इंतजार करने के कारण और अन्य 14 लाख मामलों में देरी हो रही है। जब पूरी प्रणाली को डिजिटल बनाया जा रहा है तब यह अक्षमता अस्वीकार्य है।

    मामलों के बढ़ने का तीसरा कारण मुकदमेबाजी को गलत प्रोत्साहन है, खासकर उन हालतों में जब कोई सरकारी अधिकारी इसमें शामिल हो। उदाहरण के लिए यदि कोई निचली ट्रिब्यूनल सरकार के आयकर दावों के खिलाफ आदेश देती है तो इसमें शामिल अधिकारी लगभग निश्चित रूप से अपील करेगा भले ही यह एक स्पष्ट मामला हो। यह मुकदमेबाजी भ्रष्टाचार या मिलीभगत के आरोप लगने के डर से है। देरी का चौथा कारण मामलों के सूचीबद्ध करने के क्रम में मनमाना विवेकाधिकार हो सकता है। ऐसी धारणा है कि अभिजात वर्ग कतार तोड़कर मामले की तत्काल सुनवाई करा सकता है जबकि जनता को इंतजार करना पड़ता है। मामलों में देरी होने का पांचवां कारण पहले विकल्प के रूप में विश्वसनीय मध्यस्थता का अभाव है।

    वास्तव में संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे विकसित देशों में यदि कोई आपराधिक मामला मुकदमे में जाता है तो 90 प्रतिशत संभावना है कि प्रतिवादी दोषी पाया जाएगा और फैसला भी जल्दी होता है। इसलिए वहां कई मामलों की सुनवाई नहीं हो पाती है और अदालत के बाहर ही समझौता हो जाता है। भारत में सरकारी पक्ष द्वारा अक्सर मामले की घटिया तैयारी के कारण पचास प्रतिशत से अधिक मुकदमों में लोग बरी हो जाते हैं। समय की मांग है कि न्यायिक सुधार के जरिए न्याय प्रदान करने में तेजी लाई जाए। वह विवादों के निवारण के लिए अदालत के बाहर सार्थक निपटान का विकल्प दे सकता है और डिजिटल तथा कृत्रिम बुद्धिमत्ता(आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस) की शक्ति का पूरी तरह से उपयोग कर सकता है।
    (लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट : दी बिलियन प्रेस)

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