• जो गीत दिलों में क़त्ल हुए हर गीत का बदला मांगेंगे

    अच्छा है कि ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 'बॉस' कहा और यह भी अच्छा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने उनसे ऑटोग्राफ लेने की ख़्वाहिश की

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    - वर्षा भम्भाणी मिर्जा़

    आखिर क्यों ये सरकार देश के भीतर अक्सर देशवासियों से ही उलझती और भिड़ती देखी जाती है। शाहीन बाग, किसान आंदोलन और अब जंतर-मंतर पर एक महीने से न्याय मांग रही इन लड़कियों की शिकायत पर क्यों कोई कार्रवाई नहीं हो रही है? क्या केंद्र यही चाहता है कि ये लड़कियां हताश होकर अपनी अंधेरी और अत्याचार की दुनिया में लौट जाएं और फिर कोई बच्ची पहलवानी का जुनून लेकर अपने गांव से न चले?

    अच्छा है कि ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को 'बॉस' कहा और यह भी अच्छा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने उनसे ऑटोग्राफ लेने की ख़्वाहिश की। कोई उनके पैर छूने को ही लालायित है। सच तो यह है कि भारत की जनता भी उनसे कुछ उम्मीद रखती है। उन्हें यही कहना चाहती है या शायद कहती भी रही है लेकिन अक्सर देखा जाता है कि वे सरकार में मिलकर जनता के हित साधने में चूक कर जाते हैं। किसी भी लोकतंत्र में सरकार के मायने क्या होते हैं? यही कि उसके फैसलों से उसके नागरिकों की जिंदगी आसान हो, उनकी तकलीफ़ों की सुनवाई हो, वे सुरक्षित हों लेकिन क्या ऐसा है? तो फिर जंतर-मंतर पर देश के लिए मैडल लाने वाली पहलवानों की तकलीफ पर कोई क्यों कान नहीं धरता?

    दिल्ली पर जनता के विरुद्ध क्यों अध्यादेश आता है? और मणिपुर में 75 लोगों के प्राण जाने के बाद हिंसा का दोबारा भड़कना क्यों होता है? क्यों ऐसा होता है कि केंद्र की सरकार जिसका 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' में गहरा यकीन है वह महिला पहलवानों की पीड़ा को यूं अनदेखा कर देता है? 'सबका साथ सबका विकास' कहते-कहते मणिपुर में क्यों ऐसा फैसला लिया कि वह हिंसा की आग में जलने लगा? 'न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन' का भी नारा तो दिया लेकिन दिल्ली राज्य पर अपनी सरकार का कब्ज़ा सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद क्यों नहीं हटाया?

    विदेशों में बसे भारतीय अपने मेहमान प्रधानमंत्री के लिए पलकें बिछाए हुए रहते हैं। यह स्वाभाविक भी है और फिर भाजपा ने इसे बड़े इवेंट्स में तब्दील करने में कोई कसर भी नहीं छोड़ी है। खूब खर्च किया जाता है और फिर भारतीय मीडिया इसे दिखा-दिखाकर जनता के बीच अच्छी छवि गढ़ने के काम में जुट जाता है। अभी हाल ही में एनडीटीवी की एक पत्रकार पर ऐसा ही दबाव था जिसके चलते उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा। बेशक, नेता का सम्मान होता है क्योंकि उसका देश उसे यह शक्ति देता है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का भी होता था और डॉक्टर मनमोहन सिंह का भी, जिनके लिए तो अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने यहां तक कहा था कि 'उनका होना दुनिया के लिए फख़्र की बात है। लिहाजा उनका पूरा ध्यान रखा जाए।' यह सब अच्छा लगता है, लेकिन बात फिर वहीं लौटती है कि देश की जनता को क्यों भुला दिया जाता है। मुल्क में इन दिनों जो निर्णय लिए गए हैं उन पर भी गौर करने की जरूरत है, विचार की ज़रूरत है, बहस की ज़रूरत है। विदेश के लाल और खूबसूरत कालीन के नीचे इन फैसलों के कागजात दब नहीं जाने चाहिए। जंतर-मंतर पर पहलवानों का धरना, मणिपुर का धधकना, दिल्ली का अध्यादेश ऐसे तीन मुद्दे हैं जो देश में इस समय सुलग रहे हैं ।

    सितंबर में एशियाई खेल होने हैं। धरने पर बैठी विनेश फोगाट खुद 2018 में एशियाड में स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं। इस बार भी पहलवानों को तैयारी करनी है लेकिन वे आत्मसम्मान और स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रही हैं। मैट पर अपने विरोधी खिलाड़ी से दो-दो हाथ करने की बजाय उन्हें सरकार से लड़ना पड़ रहा है। विनेश फोगाट अपने एक लेख में लिखती हैं-'सच है कि हमें देश के लिए और मेडल लेने हैं लेकिन ये लड़ाई बड़ी है। उन पदकों का गले में होने का क्या मान जब आप अपने लिए ही न्याय की लड़ाई नहीं लड़ सकते।' दिन ढलते ही मच्छरों का हमला होता है और सड़कों पर दौड़ने वाले कुत्ते आसपास आ जाते हैं। सबसे बड़ी समस्या होती है साफ टॉयलेट्स की। भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण सिंह के ख़िलाफ़ सात पहलवानों ने, जिनमें से एक नाबालिग भी है, अपनी एफआईआर में कहा है कि इन्होंने उनका यौन शौषण किया है,उन्हें प्रताड़ित किया है। ये खिलाड़ी खेल मंत्री अनुराग ठाकुर से भी बहुत निराश हैं । सबने उन्हें अपने साथ हुई ज्यादतियों की घटनाएं सुनाई लेकिन बाद में फिर उन्होंने सबूत की बात कह डाली जबकि भारतीय दंड विधान आईपीसी केवल पीड़िता के बयान को बहुत महत्वपूर्ण मानता है।

    आखिर क्यों ख़ामोश हैं वे लोग जो कहते हैं कि इन खिलाड़ियों के जीतने पर जब भारत का झंडा लहराता है तो उनके शरीर में सिहरन दौड़ जाती हैं और आंखें अनायास बहने लगती हैं। अब जब ये पहलवान लड़कियां खुद पर हुए अन्याय की बात करती हैं तब क्यों किसी के रोंगटे नहीं खड़े होते? देश के गौरव के लिए दिन-रात पसीना बहाने वाली इन खिलाड़ियों के आंसू क्यों किसी को नहीं दिखाई दे रहे? बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे की यही हकीकत है? आखिर क्यों ये सरकार देश के भीतर अक्सर देशवासियों से ही उलझती और भिड़ती देखी जाती है। शाहीन बाग, किसान आंदोलन और अब जंतर-मंतर पर एक महीने से न्याय मांग रही इन लड़कियों की शिकायत पर क्यों कोई कार्रवाई नहीं हो रही है? क्या केंद्र यही चाहता है कि ये लड़कियां हताश होकर अपनी अंधेरी और अत्याचार की दुनिया में लौट जाएं और फिर कोई बच्ची पहलवानी का जुनून लेकर अपने गांव से न चले? जो ऐसा नहीं है तो अब तक न आरोपी का इस्तीफा ही लिया गया न यह कहा गया कि वह बेगुनाह है।

    जिस दूसरे मसले ने देश को हैरान किया और तकलीफ पहुंचाई वह सात बहनें कहे जाने वाले उत्तर पूर्व के 7 राज्यों में से एक मणिपुर से जुड़ी है। मार्च, 2022 में ही भारतीय जनता पार्टी ने वहां लगातार दूसरी बार सरकार बनाई थी। 60 में से 37 विधायक भाजपा के ही हैं। लंबे समय से डबल इंजन की सरकार है लेकिन फिर क्यों मणिपुर हिंसक आग में जलने लगा? मिज़ोरम, असम, नगालैंड और म्यांमार से घिरा हुआ मणिपुर बेहद खूबसूरत प्रदेश तो है ही, देश को बड़ी प्रतिभाओं से भी रूबरू कराता आया है। बॉक्सर मेरी कोम, डिंको सिंह, वेटलिफ्टर मीराबाई चानू, कुंजू रानी जैसे दिग्गज खिलाड़ियों के प्रदेश में कुछ ठीक नहीं है। एक्टिविस्ट इरोम शर्मीला, जिन्हें देश 'आयरन लेडी' के नाम से जानता है, उन्होंने एक कानून के खिलाफ 16 साल तक अपना अनशन जारी रखा था उस प्रदेश को सेना के हवाले करना पड़ा है। बेहतरीन शेफ और कलाकार मणिपुर की बड़ी पहचान बन रहे थे कि प्रदेश में माहौल बिगड़ गया। भारत सरकार को इसकी चिंता होनी चाहिए क्योंकि सीमावर्ती इलाकों में जहां चीन जैसा दुश्मन अपनी गिद्ध दृष्टि डाले हुए है वहां के लिए सरकार यूं अनजान कैसे रह सकती है?

    मार्च 2023 में मणिपुर उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार से कहा था कि वह राज्य की आबादी में 53 प्रतिशत हिस्सा रखने वाले मैतई समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए चार हफ़्तों में केंद्र को सिफारिश भेजे। इसके बाद आदिवासी स्टूडेंट यूनियन का बड़ा प्रदर्शन हुआ। हालात इतने हिंसक हो जाएंगे, इसका आभास सरकार को होना चाहिए था क्योंकि 75 से ज़्यादा जानें जा चुकी हैं। तृणमूल कांग्रेस की राज्यसभा सांसद सुष्मिता देव का कहना है कि पूर्वोत्तर बहुत संवेदनशील क्षेत्र है जहां विभिन्न जातीय समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। चुनाव जीतना और सुशासन दो अलग-अलग पहलू हैं। सांसद का आरोप था कि भाजपा पूर्वोत्तर के डीएनए को नहीं समझती है जबकि मोदी का नारा था कि पूर्वोत्तर अष्टलक्ष्मी है, उसे भाजपा के कमल की ज़रूरत है।

    तीसरा मसला दिल्ली का है जहां केंद्र की सरकार एक चुनी हुई सरकार के हक़ लेने पर तुली हुई है। सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले को, जिसमें दिल्ली सरकार को अपने अधिकारियों को चुनने, बदलने का हक़ होगा उसे एक अध्यादेश से पलट दिया है। क्या भाजपा को यही लगता है कि ऐसा कभी नहीं होगा कि उनकी पार्टी की भी दिल्ली राज्य में सरकार होगी और कभी केंद्र में उनकी सरकार नहीं भी होगी। क्या तब भी वे दिल्ली की चुनी हुई सरकार को उसके बुनियादी हक़ देने में इतने ही अनुदार होंगे? ऐसा तो कोई तानाशाह ही सोच सकता है। ऐसे अध्यादेश सरकार के नहीं नागरिक के हक़ छीनते हैं। वह अध्यादेश ही था जिसने इंदौर की शाहबानो को गुज़ारा भत्ता देने से इंकार कर दिया था। तलाक के बाद अदालत ने उनके शौहर को गुज़ारा भत्ता देने के लिए कहा था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने भी अध्यादेश थमा दिया। शायद जनता के लिए अभी भी अच्छा वक्त आया नहीं है। शायर फैज़ अहमद फैज़ ने लिखा है-

    जो ख़ून बहा जो बाग़ उजड़े जो गीत दिलों में क़त्ल हुए।
    हर कतरे का हर गुंचे का हर गीत का बदला मांगेंगे।।
    (लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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