- डॉ. दीपक पाचपोर
चहुंतरफा प्यार व समर्थन का ही यह प्रतिफल है कि राहुल इतने ताकतवर हो उठे हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर भाजपा व संघ से जुड़े लोगों की ट्रोल आर्मी व आईटी सेल द्वारा बनाई गई उनकी नकारात्मक छवि उनके कुछ ही कदमों की धमक से पूर्णत: ध्वस्त हो गई है। वे खुद कह रहे हैं कि 'वे जानते हैं कि वे क्या थे और क्या नहीं।'
राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा' जैसे-जैसे समापन (30 जनवरी को श्रीनगर के लाल चौक पर ध्वजारोहण) की ओर बढ़ रही है, भारत के लोकतंत्र के दुश्मनों की वह न केवल बेहद साफगोई से शिनाख्त कर रही है, वरन पिछले 8-9 वर्षों से जो जन विमर्श हाशिये पर रख दिया गया था, वह भी अब शनै: शनै:भारतीय राजनीति में लौटता हुआ दिख रहा है। देश की सियासत द्वारा भुला-बिसरा दिये गये जन सरोकार के मुद्दों पर अब फिर से चर्चा होने लगी है, जो अच्छी बात है; और अवाम के लिए शुभ संकेत भी। अब यह जनता पर है कि वह राहुल की जनपक्षधारिता की राजनीति को स्वीकारती हैं या अमूर्त व भावनात्मक मुद्दों को ही बेहतर समझती है।
राहुल का पैदल मार्च अपने कदमों से नापते अविश्वसनीय फासलों और पीछे चलने वाले आश्चर्यजनक जन समुदाय से राहुल जो शक्ति बटोर रहे हैं वह एक ओर उन्हें किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए होने वाली हैरत भरी हिम्मत प्रदान कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ लोगों को नये सिरे से काफी कुछ सोचने पर मजबूर कर रहे हैं। 3570 किलोमीटर की धुर दक्षिण से एकदम उत्तर तक का यह फासला इसलिये नामुमकिन सा है क्योंकि लम्बे समय से नेताओं ने सड़कों पर चलना छोड़ दिया है।
जन समुदाय की विशालता इसलिए हतप्रभ करने वाली है क्योंकि हालिया दौर में चंद लोगों को भी धन का प्रलोभन दिये बिना एकत्र करना मुश्किल हो गया है- किसी भी नेता या राजनैतिक दल के लिए। यहां तक कि देश के सबसे लोकप्रिय कहे जाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और सबसे ताकतवर कहे जाने वाले उनके प्रमुख सेनापति यानी गृहमंत्री अमित शाह के लिये भी भीड़ का इंतजाम करना पड़ता है। ऐसे में स्वत-स्फूर्त होकर न केवल आम जन उनके पीछे चल रहे हैं वरन अनेक प्रमुख नेता व जाने-पहचाने चेहरे उनका साथ बिना बुलाए दे रहे हैं- केन्द्रीय जांच एजेंसियों के डर को धता बतलाते हुए।
लोगों का साथ और जनता के मुद्दों को लेकर मैदान में उतरने वाले राहुल नये सिरे से प्रतिरोध के महत्व को प्रतिपादित कर रहे हैं तथा विपक्ष को पुनर्जीवित कर रहे हैं। इस प्रक्रिया के लिये जो कुछ अनिवार्य व वांछनीय है, वह सब कुछ राहुल कर रहे हैं। इनमें सबसे प्रमुख है लोकतंत्र के विरोधियों की शिनाख्त करना और बिन लाग-लपेट के उन पर निर्मम हमला करना। वह भी डरे बगैर तथा परिणामों की चिंता किये बिना।
देश-दुनिया गवाह है कि पिछले चार महीनों के दौरान राहुल व कांग्रेस की ओर से भारतीय जनतंत्र की कब्र खोदने पर आमदा इन शक्तियों पर सीधे व बेखौफ़ होकर हमले हो रहे हैं; जो बेहद जरूरी है। जब से मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सत्ता केन्द्र व विभिन्न राज्यों में निर्वाचित या अनैतिक तरीकों से काबिज हुई है, ऐसा विरोध देखने को नहीं मिल रहा था। विरोध के नाम पर आधे-अधूरे प्रयास होते थे, केन्द्र-भाजपा-मोदी की दबे या घबराये स्वरों में आलोचना होती थी।
सड़कों पर से विपक्ष नदारद था। इसलिये जब राहुल सड़कों पर उतरे हैं तो सरकार पर उनके इस आक्रमण में छात्र, युवा, अर्थशास्त्री, सिने कलाकार, बुद्धिजीवी, पूर्व सैनिक आदि भी शामिल हो रहे हैं क्योंकि सभी के मन में गुबार भरा है और सारे वर्ग गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा के गिरते स्तर, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली से त्रस्त हैं। यही कारण है कि जो सिविल सोसायटियां 2014 के पहले कांग्रेस पर हमेशा आक्रामक रहती थी, आज उनके साथ हैं। यूपी में किसानों ने उन्हें अपना समर्थन दिया और अपने गांवों तक उन पर फूल बरसाए, वहीं कई विपक्षी नेता इस यात्रा के प्रति अपना समर्थन जतला चुके हैं। इनमें तमिलनाडु के मुख्यमंत्री व डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार आदि। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव व बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने उन्हें शुभकामनाएं दी हैं।
चहुंतरफा प्यार व समर्थन का ही यह प्रतिफल है कि राहुल इतने ताकतवर हो उठे हैं। करोड़ों रुपये खर्च कर भाजपा व संघ से जुड़े लोगों की ट्रोल आर्मी व आईटी सेल द्वारा बनाई गई उनकी नकारात्मक छवि उनके कुछ ही कदमों की धमक से पूर्णत: ध्वस्त हो गई है। वे खुद कह रहे हैं कि 'वे जानते हैं कि वे क्या थे और क्या नहीं।' उनकी स्पष्टवादिता ने उनके खिलाफ चलते अभियान को तो नेस्तनाबूद कर ही दिया, स्वयं राहुल ने देश के तीन प्रमुख लोकतंत्र विरोधियों पर सीधे हमले शुरु कर दिये। ये हैं- भाजपा व केन्द्र की सरकार, दो चर्चित उद्योगपति तथा मीडिया। राहुल का यह हमला न केवल अनिवार्य है, वरन सामयिक भी। नफऱत खत्म करने के नाम पर निकली यह यात्रा देशव्यापी घृणा के माहौल की जड़ों तक पहुंच गयी है।
भाजपा और मोदी सरकार पर उनके हमले हर रोज तीक्ष्णतर होते जा रहे हैं। नोटबंदी, जीएसटी, चीन के अतिक्रमण आदि पर तो वे पहले ही दिन से बोल रहे हैं। वे साफ कहते हैं कि मोदी ने नोटबंदी के जरिये जनता का सारा पैसा निकलवा कर अपने मित्रों को दे दिया है। वे यह भी कहते हैं कि जो मोदी की पूजा करेगा वह सब कुछ पायेगा। राहुल इसी तारतम्य में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी जमकर आलोचना करते हैं। ऐसे वक्त में जब देश के ज्यादातर विपक्षी नेता केन्द्रीय जांच एजेंसियों (आयकर, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई) के भय से दुम दबाकर बैठ गये हैं, राहुल सीधे-सीधे मोदी से टकरा रहे हैं। फिर, वे यह दुश्मनी तब पाल रहे हैं जब स्वयं उनसे, उनकी माता सोनिया गांधी और प्रियंका के पति रॉबर्ट वाड्रा से आये दिन जांच एजेंसियों द्वारा पूछताछ होती रहती है।
जिन दो उद्योगपतियों की बात हो रही है, वे हैं गौतम अदानी और मुकेश अंबानी, पिछले 8 वर्षों में वे तेजी से गरीब होते देश के ही नहीं, दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में शामिल हो गये हैं। अदानी तो दूसरे क्रमांक तक पहुंच गये। सामान्यत: कोई भी राजनैतिक दल व नेता बड़े उद्योगपतियों व कारोबारियों की आलोचना करने से डरते हैं, परन्तु राहुल ही नहीं, उनकी बहन प्रियंका भी दोनों पर जमकर निशाना साध रही हैं। सम्भवत: यही डर है कि अदानी ने सरकार विरोधी समझे जाने वाले एक चैनल को ही खरीद लिया और बाकायदे अपना एक साक्षात्कार भी प्रसारित कर बतलाया कि उनकी तरक्की में सिर्फ मोदी नहीं वरन पूर्ववर्ती सभी सरकारों का हाथ है। सम्भवत: वे कांग्रेस से अपने सम्बन्ध बेहतर बनाने की कवायद कर रहे हैं ताकि अगर वह सत्ता में लौटी तो उनके व्यवसायिक हितों पर आंच न आये। एक सभा में प्रियंका गांधी ने तो साफ कहा कि 'इन उद्योगपतियों ने मीडिया को खरीद लिया, चैनल खरीद डाला पर उनके भाई राहुल को नहीं खरीद पाये और न ही खरीद पायेंगे।'
राहुल की इस यात्रा का एक और महत्वपूर्ण पक्ष है कि उन्होंने उस मीडिया को बेपर्दा कर दिया है, जिसके बल पर मोदी ने देश की दुर्दशा की है। हर जनविरोधी कामों को मोदी व भाजपा का मास्टर स्ट्रोक कहकर सत्ता की भाटगिरी करने वाली मीडिया को राहुल अपनी हर सभा व प्रेस कांफ्रेंस में खूब आड़े हाथों ले रहे हैं। वे बेखौफ दरबारी पत्रकारों व सत्तोन्मुखी मीडिया को खरी-खोटी सुना रहे हैं। प्रमुख चैनलों द्वारा उनकी उपेक्षा की काट में सोशल मीडिया पर उन्हें मिलता समर्थन राहुल को लोकतंत्र विरोधी चेहरों को बेनकाब करने की हिम्मत दे रहा है। इसके साथ ही समांतर विमर्श के रूप में जन सरोकार के मुद्दे सड़क पर उतर रहे हैं। यही इस यात्रा का सर्वोत्तम फलादेश है।
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)