- जगदीश रत्तनानी
वर्तमान सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र के खेड़ में एक बैठक में इस मुकदमे की जटिलताओं को एक बार फिर से सामने लाते हुए इस मामले को याद किया है लेकिन इस बार उन्होंने इस मामले के समाधान के लिए भगवान की ओर रुख किया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि, अक्सर हमारे पास निर्णय के लिए मामले होते हैं लेकिन हम समाधान तक नहीं पहुंच पाते।
9 नवंबर, 2019 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1,045 पन्नों का एक महत्वपूर्ण फैसला दिया था जिसने एक ऐसे स्थान पर भव्य राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया जहां बनी बाबरी मस्जिद को विश्व हिन्दू परिषद और भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले प्रदर्शनकारियों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था। यह फैसला भारत के इतिहास में एक राजनीतिक-कानूनी मील का पत्थर है जो एक अभूतपूर्व, अहस्ताक्षरित, अस्पष्टत: 'परिशिष्ट' के साथ आया था और जो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई (जो बाद में उसी महीने सेवानिवृत्त हुए), जस्टिस एसए बोबडे, डीवाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण और अब्दुल नज़ीर की पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनाया गया था।
अदालतों के सामने इससे अधिक जटिल मामला पहले कभी नहीं आया था जिसमें कई शताब्दियों से जुड़ी सामग्री थी। इसमें भूमि विवाद, आस्था के मुद्दे, पुरातात्विक कलाकृतियां और बाबरी मस्जिद का हिंसक और अवैध विध्वंस शामिल था जिसने स्वतंत्र भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को तोड़ दिया था। फैसले के इन शब्दों ने मामले के महत्व पर प्रकाश डाला- 'इस न्यायालय को एक ऐसे विवाद के समाधान का काम सौंपा गया है जिसकी उत्पत्ति उतनी ही पुरानी है जितना पुराना है भारत का विचार। इस विवाद से जुड़ी घटनाएं मुगल साम्राज्य, औपनिवेशिक शासन और वर्तमान संवैधानिक शासन तक फैली हुई हैं।'
वर्तमान सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने महाराष्ट्र के खेड़ में एक बैठक में इस मुकदमे की जटिलताओं को एक बार फिर से सामने लाते हुए इस मामले को याद किया है लेकिन इस बार उन्होंने इस मामले के समाधान के लिए भगवान की ओर रुख किया। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि, 'अक्सर हमारे पास निर्णय के लिए मामले होते हैं लेकिन हम समाधान तक नहीं पहुंच पाते। अयोध्या के रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान भी कुछ ऐसा ही हुआ था जो तीन महीने से मेरे सामने था। मैं भगवान के सामने बैठा और मैंने उनसे (भगवान से) कहा कि उन्हें समाधान खोजने की जरूरत है।'
यह एक अत्यंत निहीत अर्थ वाला वक्तव्य है। कानून के मामलों में विद्वान और प्रतिष्ठित मुख्य न्यायाधीश को निश्चित रूप से पता होगा कि इस तरह की टिप्पणी से कई सवाल उठेंगे और फैसले पर नए विवाद पैदा होंगे; और यह कि अगर पांच न्यायाधीशों की पीठ में से कम से कम एक न्यायाधीश भी भारत के संविधान से परे सत्ता की बात को सुन रहा था तो पीठ आखिर आम सहमति पर कैसे पहुंची? हम अभी भी आधिकारिक तौर पर नहीं जानते हैं कि अंतिम फैसला किसने लिखा था जिसे सर्वसम्मति से 'अदालत की आवाज' के रूप में प्रस्तुत किया गया था लेकिन यह अनुमान लगाया गया है कि इसे न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने लिखा था। यह महत्वहीन नहीं है कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने मामले की जटिलताओं के संबंध में मार्गदर्शन पाने और न्यायदान हेतु सक्षम बनाने के लिए संकल्प, शक्ति या ज्ञान मांगने के बजाय समाधान के लिए भगवान की ओर रुख किया। इस प्रकार पीठ से आए फैसले की किताब को अब 'भगवान की लिखी किताब' के रूप में देखा जा सकता है एवं यह किसी और नहीं बल्कि स्वयं मुख्य न्यायाधीश द्वारा सत्यापित तथा स्पष्ट किया जा रहा है। यह अब ईश्वर द्वारा ईश्वर के घर से जुड़े एक मामले पर निर्णय लेने का अनोखा मामला बन गया है और इसकी वजह से कई प्रश्न तुरंत उठते हैं।
फोर्डहम लॉ रिव्यू में प्रकाशित एक पेपर में ऐसे मामले में एक न्यायाधीश की स्थिति को सारगर्भित रूप से रखा गया है। प्रोफेसर एडवर्ड बी. फोले के 'जुरिस्प्रूडेन्स एंड थियालॉजी' शीर्षक वाले इस शोध पत्र में कहा गया है- 'जैसा कि आधिकारिक विधायी निकायों में सार्वजनिक रूप से प्रकाशित किया गया है, न्यायाधीशों के कर्तव्य कानून की पहचान करने तक सीमित होने चाहिए। न्यायाधीश विशेषज्ञ हैं और इस कौशल में प्रशिक्षित हैं। न्यायाधीशों को खुद को पुजारियों के साथ भ्रमित नहीं करना चाहिए जो (पुजारी) विशेषज्ञ भी हैं, जो भगवान की इच्छा को पहचानने और व्याख्या करने के बहुत अलग कौशल में प्रशिक्षित हैं।'
क्या जस्टिस चंद्रचूड़ ने अपने साथी जजों से कहा था कि वे भगवान की सुन रहे हैं और अगर ऐसा है तो इसका क्या प्रभाव पड़ेगा या जब बेंच में अन्य लोग भी इस पर फैसला देने वाले हैं तो इसका उनके निर्णय पर क्या असर पड़ेगा? यह माना जाएगा कि हिन्दू पक्ष द्वारा जीते गए इस मामले में समाधान के लिए एक हिन्दू मतावलंबी न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ हिन्दू भगवान की ओर देखेंगे।
अगर यह एक मुस्लिम जज होता जो मस्जिद में नमाज पढ़ता और अपने भगवान से मामले में फैसला लिखने के लिए कहता तो मामला कैसा दिखता? और इतिहास इस फैसले को कैसे देखेगा जिसे अब एक ऐसे स्रोत से निकलने वाले धार्मिक फरमान के न्यायिक लूट के रूप में देखा जा सकता है जो संविधान नहीं है? इसके अलावा यह फैसला किस तरह पद की शपथ के खिलाफ खड़ा होता है जिसमें कहा गया है कि सीजेआई देश के 'संविधान और कानूनों को बनाए रखेंगे' बजाय किसी ऐसी सत्ता की आवाज सुनने की जिसे वे उच्च अधिकारी के रूप में देख सकते हैं। इसके अतिरिक्त इस फैसले को 'रिस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज़ ऑफ ज्यूडिशिअल लाईफ' नामक दस्तावेज के विरुद्ध कैसे सही ठहरा सकते हैं जिसे 7 मई, 1997 को भारत के उच्चतम न्यायालय की पूर्ण बेंच की बैठक द्वारा स्वीकृत किया गया था। उस दस्तावेज में सबसे पहले कहा गया है- 'न्याय केवल किया ही नहीं जाना चाहिए बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। उच्चतर न्यायपालिका के सदस्यों के व्यवहार और आचरण से न्यायपालिका की निष्पक्षता में लोगों के विश्वास की पुष्टि होनी चाहिए।
तदनुसार, उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का कोई भी कार्य, चाहे वह आधिकारिक या व्यक्तिगत क्षमता में हो, जो इस धारणा की विश्वसनीयता को नष्ट करता है, उससे बचना होगा।' न्यायपालिका और कानून के शासन की पवित्रता को ठेस पहुंचाने और अयोध्या मामले के फैसले में बेंच में शामिल अपने साथी जजों की छवि खराब करने के अलावा ये टिप्पणियां सीजेआई को उस तरह के विवादों में भी उलझाती हैं जिनसे बचा जा सकता था और जिनका उन्हें हाल के दिनों में सामना करना पड़ा है। गणेश उत्सव के दौरान सोशल मीडिया पर सीजेआई के घर पर आरती के समय प्रधानमंत्री के साथ चंद्रचूड़ और उनकी पत्नी के खड़े होने के मामले में पहले ही सवाल उठ चुके हैं। कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच निकटता की यह धारणा कार्यपालिका को नहीं बल्कि न्यायपालिका को कमजोर करती है। जैसा कि 1997 के 'मूल्यों' के दस्तावेज़ में लिखा गया है- 'एक न्यायाधीश को अपने पद की गरिमा के अनुरूप अलगाव की सीमा का पालन करना चाहिए।'
सीजेआई ने हाल ही में अयोध्या में राम मंदिर तथा कई अन्य मंदिरों का दौरा किया था जिसे मीडिया में व्यापक प्रसिद्धि दी गई। इस ख्याति को देखते हुए सीजेआई के इस आचरण ने उनके प्रशंसकों को भी कुछ सवाल उठाने के लिए मजबूर कर दिया है और इस विशिष्ट धार्मिक झुकाव के उद्देश्यों पर एक नई बातचीत को जन्म दिया है जिसे सार्वजनिक बहस में खुले तौर पर लाया जा रहा है। यह कानूनी व्यवस्था और अयोध्या फैसले में दोनों पक्षों के लिए अच्छी खबर नहीं है- जीतने वाले पक्ष को इस संभावना के साथ रहना चाहिए कि फैसले पर पहले की तुलना में अधिक ताकतवर हमले किए जा सकते हैं जबकि मूल फैसले से निराश सभी लोग अब यह सशक्त तर्क दे सकते हैं कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ था। इसका मतलब है कि जो मामला सुलझा हुआ माना जाता है, भले ही त्रुटिपूर्ण ढंग से सुलझाया गया हो लेकिन वह अभी भी अनसुलझा है। यह मामले का सुखद अंत नहीं है या यह 10 नवंबर 2024 को सेवानिवृत्त हो रहे 50वें सीजेआई के उल्लेखनीय कैरियर की रेखांकित किये जाने योग्य समाप्ति नहीं हो सकती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)