- सर्वमित्रा सुरजन
कुछ बरसों पहले तक छात्र पढ़ाई पूरी करते थे, फिर सरकारी नौकरी के लिए परीक्षाएं देते थे और उसमें सफलता न मिले तो निजी क्षेत्रों में भी काम के लिए तैयार रहते थे। लेकिन अब पढ़ाई के साथ-साथ ही नौकरी तलाशने की कोशिशें शुरु हो जाती हैं। सरकारी नौकरियों में तो नाउम्मीदी है ही, निजी क्षेत्रों में भी नौकरियों के लिए कठिनाइयां बढ़ी हैं। इसलिए अब छात्र प्रशिक्षु के तौर पर काम करके पहले ही आमदनी के रास्ते तैयार करना चाहते हैं, ताकि परिवार का बोझ बांट सकें।
घर में कई दिनों तक गहमागहमी का माहौल रहा। नयी पीढ़ी के युवा सदस्य ने बाहर जाकर पढ़ने और बढ़ने का फैसला लिया। विदेश जाने की सारी औपचारिकताओं के साथ ही घरेलू स्तर पर भी तैयारियां शुरु हुईं। एक कमरे में ढेर सारा सामान जमा होने लगा। विदेश जाने पर मौसम के अनुकूल कपड़ों, जूतों से लेकर दवाइयों, मसालों और रोजमर्रा के इस्तेमाल की सारी चीजें याद कर-कर के जुटाई गईं। घर के बने लड्डू-मठरी-नमकीन तो अनिवार्य होते ही हैं। वैसे आज कल विदेशों में भी भारतीयों के हिसाब से सारा सामान मिल ही जाता है।
लेकिन 2 सौ रुपए में एक लीटर तेल देश में खरीदने के बावजूद विदेश में इन्हीं चीजों के लिए यूरो या डॉलर में भुगतान करना खल जाता है। बहरहाल, रवानगी का दिन आ गया और पूरा परिवार विदाई के लिए एयरपोर्ट पहुंचा। घर की सुख-सुविधाओं में रहने के बाद विदेश में अकेले सब कुछ कैसे संभाला जाएगा, वहां किस तरह के लोग मिलेंगे, जरूरत पड़ने पर कौन मदद करेगा, इस तरह के कई सवाल सभी के मन में थे। एयरपोर्ट पहुंचने पर जो नजारा दिखा तो लगा कि मन में खुशी, घबराहट, बिछड़ने का दुख, बेहतर भविष्य की उम्मीदें ऐसी मिश्रित भावनाओं और कई सारे सवालों के साथ केवल हम ही नहीं पहुंचे, हमारी तरह और भी बहुत से लोग इसी मन:स्थिति में दिखे।
आमतौर पर घरेलू उड़ानों के लिए भारतीयों की भीड़ रहती है और विदेशी उड़ानों के लिए देशी और विदेशी दोनों तरह के यात्री नजर आते हैं। लेकिन मंगलवार शाम का नजारा कुछ अलग नजर आया। दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर विदेशी तो इक्का-दुक्का ही थे, लेकिन भारतीय यात्रियों की भारी भीड़ थी। और यात्रियों से अधिक संख्या उन्हें विदा करने वालों की थी। ऐसा लग रहा था मानो किसी कस्बे के बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन आए हों। पढ़ाई के लिए बाहर जाते युवक-युवतियों के साथ ही काम के लिए बाहर जाने वाले लोग भी बड़ी संख्या में दिखे। विमानतलों पर अक्सर लैपटॉप बैग पीछे लटकाए और हाथ में स्मार्टफोन और एकाध बैग के साथ आईटी सेक्टर के नौजवान दिख जाते हैं। मगर इस बार नजारा थोड़ा अलग था। मध्यम या निम्न मध्यमवर्ग के लोग बहुतायत में दिखे, जो अपने किसी परिजन को पढ़ने या काम के लिए विदेश भेजने आए थे। एयरपोर्ट की चकाचौंध के बीच उनकी थोड़ी घबराहट, असमंजसता, और आश्चर्यमिश्रित भाव साफ पढ़े जा सकते थे।
रोजगार के लिए भी जो लोग बाहर जा रहे थे, वे कामगार समुदाय के ही ज्यादा नजर आए। विदेशों में मिस्त्री, नलसाज़, बिजली के काम करने वालों या इसी तरह के शारीरिक श्रम करने के लिए बहुत से भारतीय जाते ही हैं। कोरोना के दो सालों में जब हर जगह से रोजगार में कटौती हुई, तो विदेश में कार्यरत भारतीयों पर भी इसका असर पड़ा। बहुत से भारतीयों को वापस लौटना पड़ा था। लेकिन अब धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं। बाहर जाकर पढ़ने और काम करने के रास्ते फिर खुलते दिख रहे हैं। जबकि अपने देश में इन दोनों ही मोर्चों पर हालात अच्छे नहीं हैं।
भारत में पढ़ने और नौकरी करने, दोनों के अवसर तेजी से घटे हैं। हाल ही में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग ऑफ इंडियन इकॉनॉमी (सीएमआईई) ने आंकड़े जारी किए हैं कि अप्रैल 2022 में देश की बेरोजगारी दर बढ़कर 7.83 प्रतिशत हो गई है। मार्च में यह 7.60 प्रतिशत रही थी। सीएमआईई के आंकड़े ये भी बताते हैं कि 2021-22 में 40.18 करोड़ लोगों के पास रोजगार है। जबकि 2019-20 में यह संख्या 40 करोड़ 89 लाख थी। इसका मतलब यह है कि 71 लाख लोग बीते दो साल में रोजगार से दूर हो गये। वहीं 2019-20 में बेरोजगारों की संख्या 3 करोड़ 29 लाख थी जो 2021-22 में बढ़कर 3 करोड़ 33 लाख हो गई। दो सालों में बेरोजगारों की संख्या चार लाख बढ़ी है। रोजगार में लगे लोगों का रोजगार से अलग होना और बेरोजगारों की संख्या बढ़ना, इनसे समझा जा सकता है कि देश में काम के अवसरों में कमी आई है और नौकरियां सीमित हो रही हैं।
कुछ बरसों पहले तक छात्र पढ़ाई पूरी करते थे, फिर सरकारी नौकरी के लिए परीक्षाएं देते थे और उसमें सफलता न मिले तो निजी क्षेत्रों में भी काम के लिए तैयार रहते थे। लेकिन अब पढ़ाई के साथ-साथ ही नौकरी तलाशने की कोशिशें शुरु हो जाती हैं। सरकारी नौकरियों में तो नाउम्मीदी है ही, निजी क्षेत्रों में भी नौकरियों के लिए कठिनाइयां बढ़ी हैं। इसलिए अब छात्र प्रशिक्षु के तौर पर काम करके पहले ही आमदनी के रास्ते तैयार करना चाहते हैं, ताकि परिवार का बोझ बांट सकें। लेकिन यह अस्थायी व्यवस्था, अस्थायी राहत ही दे सकती है। एक वक्त के बाद पक्की नौकरी की उम्मीद रहती है, लेकिन मौजूदा हालात उस उम्मीद को पूरा करने वाले नहीं हैं।
पिछले दो सालों में बहुत से लोगों के रोजगाऱ छूट गए हैं। अब देश में दो तरह के बेरोजगार हो गए हैं, एक वो जिसे कोई रोजगार मिला ही नहीं और एक वो जिन्हें कुछ वक्त का रोजगार मिला, अब वे अनुभवप्राप्त बेरोजगार हो गए हैं। रोजगार खोजते-खोजते थक कर, निराश होकर बैठने वालों की संख्या भी देश में बढ़ी है। देश से निराश, हताश लोगों में से जिन्हें बाहर जाकर किसी तरह का काम करने का मौका मिला, शायद एयरपोर्ट पर नजर आ रहे लोगों में ऐसे लोग भी शामिल थे।
उच्चशिक्षा के लिए विदेश जाने वाले छात्रों में दो श्रेणियां हैं। एक तो वो जिनकी स्कूली शिक्षा पांच-सात सितारा स्कूलों में हुई है और उन्हें पहले से इस बात के लिए तैयार किया जाता है कि वे विदेश जाकर आगे की पढ़ाई करेंगे। और दूसरे वो जो इसलिए विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ना चाहते हैं ताकि वहां उन्हें अपनी पसंद के विषय पढ़ने मिलें, इसके साथ ही अंशकालिक रोजगार की सुविधा हो और बेहतर जीवनशैली मिल सके। इस दूसरे वर्ग के छात्रों के लिए विदेश जाने का इंतजाम आसान नहीं होता।
मगर फिर भी मां-बाप ऋ ण लेकर या किसी अन्य तरह से इंतजाम करते हैं, ताकि देश में जिन उलझनों में उनका जीवन बीत रहा है, उस तरह उनके बच्चों का न बीते। अभी दो महीने पहले रूस-यूक्रेन जंग शुरु होने पर जब यूक्रेन में फंसे छात्रों को लाने की कवायद शुरु हुई थी, तब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि बाहर जाकर पढ़ाई करने की जगह अपने देश में ही पढ़ाई करें। उन्होंने निजी क्षेत्रों से आग्रह किया था कि वे छात्रों को बाहर जाने से रोकने के लिए आगे आएं।
लेकिन सरकार को ये समझना होगा कि सस्ती और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराना उसकी जिम्मेदारी है। अभी हालात ऐसे हैं कि दुनिया के सौ सबसे अच्छे विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय शामिल नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि के दर्जनों विश्वविद्यालय इस सूची में जगह बनाने के लिए संघर्ष करते हैं और हमारे यहां विश्वविद्यालयों को राजनीतिक लड़ाई का अड्डा बना दिया गया है। हमारे विश्वविद्यालय आज भी पुरानी लकीर पर चल रहे हैं, नवाचार के लिए उनमें जगह ही नहीं है। जिस तरह नौकरियों के लिए कौशल की जरूरत में बदलाव आया है, भारत में उस तरह पढ़ाई में बदलाव नहीं हो पाया है।
सरकार को शैक्षणिक संस्थानों की सुध लेनी चाहिए, क्योंकि इसी से देश का भविष्य तैयार होगा। फिलहाल तो देश का भविष्य एयरपोर्ट पर अगली उड़ान के इंतजार में है।