- डॉ.अजीत रानाडे
आधे किसानों को सब्सिडी नहीं मिलती है क्योंकि या तो वे भूमिहीन या पट्टेदार हैं और इस प्रकार उस भूमि से बंधे नहीं हैं जिस पर वे खेती करते हैं। कृषि नीति को लेकर जो जाल हमने बुना है उसने हमें उलझा दिया है जिसे सुलझाना बहुत मुश्किल हो गया है। बाजार बेहतर ढंग से कार्य कर सकें इसके लिए हमें बड़े पैमाने पर सुधार करने की आवश्यकता है। इसमें राज्य की बहुत कम घुसपैठ और किसान को बाजार प्रक्रिया में भाग लेने और इससे लाभ उठाने के लिए अधिक स्वतंत्रता की आवश्यकता है।
केंद्र सरकार ने घोषणा की है कि वह इस साल अतिरिक्त दो लाख टन प्याज खरीदेगी। इससे इस साल बफर स्टॉक का लक्ष्य तीन लाख टन से बढ़कर पांच लाख टन हो जाएगा। खास बात यह है कि यह घोषणा 40 फीसदी निर्यात शुल्क लगाए जाने के फैसले के एक दिन बाद आई है। सीधे शब्दों में कहें तो सरकार ने निर्यात को प्रभावी ढंग से घटाकर स्थानीय आपूर्ति में वृद्धि की जिससे कीमतें गिर गईं और फिर वह अपने बफर स्टॉक को बढ़ाने के लिए सस्ते प्याज का भंडारण कर रही है। क्या इससे बाजार तंत्र में दखलदांजी की बू नहीं आती? क्या ऐसा नहीं लगता कि इससे प्याज उत्पादक किसान सरकार को कम कीमत पर प्याज बेचने के लिए मजबूर हो रहे हैं? क्या यह सत्ता का दुरुपयोग नहीं है? एक पूर्व कृषि मंत्री ने यह कहकर निर्यात कर की आलोचना की है कि इससे निश्चित रूप से किसानों को नुकसान पहुंचेगा। ये पूर्व मंत्री एक ऐसे राज्य से आते हैं जो देश के एक तिहाई प्याज की आपूर्ति करता है। किसान पहले से ही निर्यात कर के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं लेकिन इस आंदोलन का फायदा नहीं हुआ।
वैसे कृषि उत्पादों के बाजार तंत्र में इस तरह के मनमाने हस्तक्षेपों की किसानों को आदत है। इस सप्ताह प्याज की महंगाई दर 19 प्रतिशत है। यह दर सरकार के लिए चिंताजनक है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि घरेलू बजट में प्याज का हिस्सा बहुत थोड़ा होता है पर प्याज की कीमतें नेताओं की आंखों में आंसू ला सकती हैं और इतिहास गवाह है कि प्याज की कीमतों की अनियमितता के कारण सरकारें गिरी हैं। मोदी सरकार द्वारा सितंबर 2020 में संसद में प्रस्तावित कृषि कानूनों को याद करें। इन तीन कानूनों में से एक में कीमतों को पूरी तरह से नियंत्रण मुक्त करने और स्टॉकिंग सीमा को हटाने का प्रस्ताव किया गया था। इसके अलावा, निर्यात या आयात पर मनमाने ढंग से प्रतिबंधों को नियंत्रण मुक्त करने की भी पेशकश थी। जब कृषि कानून पेश किए गए थे तो उसी सप्ताह बांग्लादेश में प्याज के निर्यात कार्गो ले जा रहे जाने वाले कई ट्रकों को सीमा पर रोक दिया गया था जिसके कारण किसानों को प्याज की कीमतों में वृद्धि का लाभ नहीं मिल सका। एक तरफ निर्यात रोकने और दूसरी तरफ कृषि बाजारों को नियंत्रण से मुक्त करने की मांग जैसी ये मिश्रित कार्रवाइयां बेईमानी के संकेत देती हैं।
अभी जब हम टमाटर की अत्यधिक बढ़ी हुई कीमतों से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं तो उन परिस्थतियों में शायद प्याज पर वर्तमान निर्यात कर एक निरोधक उपाय है। भारतीय राष्ट्रीय सहकारी उपभोक्ता संघ (एनसीसीएफ) और भारतीय राष्ट्रीय सहकारी विपणन संघ (नेफेड) अपने बफर स्टॉक में पहले ही 15 लाख टन से अधिक टमाटर खरीद चुके हैं। टमाटर की कीमत 200 रुपये प्रति किलो तक बढ़ने के कारण वे इन्हें रियायती दरों पर बेच रहे हैं। इस सब्सिडी का भुगतान कहां से किया जाता है? मुद्रास्फीति की भड़की आग को बुझाने के लिए भारत ने नेपाल और शायद अन्य देशों से भी टमाटर का आयात किया है। कितना टमाटर आयात किया है, इसके बारे में जानकारी नहीं है। खुदरा मुद्रास्फीति 7.5 प्रतिशत पर चल रही है जो भारतीय रिजर्व बैंक की उदार सीमा 6 प्रतिशत से काफी ऊपर है। मतलब टमाटर मुद्रास्फीति पैदा करने वाले मुख्य खलनायकों में से है। हालांकि सब्जियों के मूल्यों से उत्पन्न मुद्रास्फीति मौसमी और स्वभावत: चंचल होती है लेकिन यह जबरदस्त तरीके से मीडिया का ध्यान आकर्षित करता है।
एक और कृषि उत्पाद पर चर्चा करते हैं। भारत ने जुलाई में गैर-बासमती सफेद चावल और टूटे हुए चावल के निर्यात पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। सभी प्रकार के चावल निर्यात का यह कुल 45 प्रतिशत हिस्सा है। इस फैसले ने हमारे कई व्यापारिक भागीदारों को परेशान कर दिया है जिसके कारण भारत एक गैर भरोसेमंद आपूर्तिकर्ता की तरह नजर आता है। भारत से चावल के आयात पर निर्भरता अफ्रीका और एशिया में कुछ देशों की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकती है। क्या सरकार खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंतित थी? प्रकट रूप से नहीं। तब निर्यात पर प्रतिबंध लगाने का क्या कारण हो सकता है? प्रथम दृष्टया यह इथेनॉल निर्माताओं के हितों की रक्षा करने के बारे में लगता है।
अनुमानत: 30 लाख टन इथेनॉल बनाने के लिए 50 से 60 लाख टन टूटे हुए चावल का प्रयोग होता है। इसलिए निर्यात प्रतिबंध से कार इंजनों के लिए इथेनॉल की उपलब्धता बढ़ जाती है लेकिन यह उपलब्धता चावल उत्पादक किसान के मुनाफे की कीमत पर है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चावल की कीमतें पिछले 10 वर्षों के उच्च स्तर पर हैं और यह किसानों के लिए लाभ कमाने का एक अच्छा अवसर है, परन्तु जब कृषि उत्पादों पर निर्यात प्रतिबंध जैसे लाभ-विरोधी उपायों की बात आती है तो किसान हमेशा निशाने पर रहा है।
टमाटर, प्याज या चावल पर नीतिगत कार्रवाई संबंधी हाल की घटनाएं बताती हैं कि कृषि में सुधार बहुत कठिन और अधूरे क्यों हैं। सबसे पहले यह एक अंतर्निहित शहरी पूर्वाग्रह है जिसका मतलब है कि ये नीतियां किसानों के हित के बजाय शहरी उपभोक्ताओं (कम खाद्य मुद्रास्फीति) के कल्याण को उच्च प्राथमिकता देती हैं। इसलिए कृषि नीतियां जिनसे बाजार में सुधार होता हैं और जो किसान के पक्ष में विनियमन करती हैं, उन्हें हमेशा मनमाने ढंग से पलट दिया जाता है या कम किया जाता है। दूसरा, मूल्य नियंत्रण के कारण किसानों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए इनपुट सब्सिडी जारी है- उदाहरण के लिए मुफ्त पानी और बिजली, सस्ती खाद या कृषि आय पर कोई कर नहीं है। ये रियायतें (सब्सीडी) भारी और टाले जा सकने वाले राजकोषीय बोझ के कारण बनते हैं। तीसरा, राज्य के सख्त नियंत्रण को प्रति स्थापित करने के लिए वायदा बाजार जैसे बाजार तंत्र की तलाश नहीं की गई है।
वायदा बाजारों को सट्टेबाजी के रूप में देखा जाता है और उन पर कथित तौर पर कीमतों में अस्थिरता पैदा करने का आरोप है। यह एक अप्रमाणित परिकल्पना है इसलिए सरकार कृषि वस्तुओं की खरीद, भंडारण और व्यापार के माध्यम से बाजार में भारी हस्तक्षेप पर निर्भर है। ऐसा करने के लिए वह प्रतिस्पर्धा विरोधी एकाधिकार व्यवहार का उपयोग करने में संकोच नहीं करता है। प्रतिस्पर्धा विरोधी और प्रभुत्व के दुरुपयोग के लिए सरकार को अदालत में कौन घसीटेगा?
इस प्रकार मूल्य नियंत्रण, भंडारण सीमा, मनमाने आयात और निर्यात प्रतिबंध तथा बार-बार बदलती नीतियों से कृषि क्षेत्र को बांधा गया है। यद्यपि तकनीकी रूप से यह राज्य का विषय है फिर भी कृषि में राज्यों के अलावा केन्द्र का भी काफी हस्तक्षेप है। इसके बाद किसान को भारी और विचित्र सब्सिडी देकर फुसलाया जाता है। इस प्रकार की सब्सिडी न केवल ऋ ण माफी, गैर निष्पादित परिसंपत्तियों या राजकोषीय घाटे के माध्यम से राजकोषीय समस्याएं पैदा करती है बल्कि पर्यावरणीय संकट भी पैदा करने का कारण बनती है।
पंजाब में रासायनिक उर्वरकों पर भारी सब्सिडी दी जाती है जिसके कारण वहां रासायनिक खादों के अत्यधिक उपयोग के कारण मिट्टी का क्षरण और लवणता बढ़ गई है। इन सबसे ऊपर यह बात भी है कि आधे किसानों को सब्सिडी नहीं मिलती है क्योंकि या तो वे भूमिहीन या पट्टेदार हैं और इस प्रकार उस भूमि से बंधे नहीं हैं जिस पर वे खेती करते हैं।
कृषि नीति को लेकर जो जाल हमने बुना है उसने हमें उलझा दिया है जिसे सुलझाना बहुत मुश्किल हो गया है। बाजार बेहतर ढंग से कार्य कर सकें इसके लिए हमें बड़े पैमाने पर सुधार करने की आवश्यकता है। इसमें राज्य की बहुत कम घुसपैठ और किसान को बाजार प्रक्रिया में भाग लेने और इससे लाभ उठाने के लिए अधिक स्वतंत्रता की आवश्यकता है।
(लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: दी बिलियन प्रेस)