शुक्रवार को संसद का बजट सत्र शुरू होने जा रहा है। जो 31 जनवरी से 13 फरवरी तक और फिर 10 मार्च से 4 अप्रैल, 2025 तक चलेगा।
केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण शनिवार को लोकसभा में केन्द्रीय बजट प्रस्तुत करेंगी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पिछले 11 वर्षों से चल रही भारतीय जनता पार्टी की सरकार का अगर पिछला रिकॉर्ड देखा जाये तो अनुमान है कि यह बजट जनसामान्य को शायद ही कोई राहत पहुंचाने वाला होगा। बल्कि 2025-26 के लिये प्रस्तुत होने वाला यह वित्तीय प्रतिवेदन 'कार्पोरेट फ्रेंडलीÓ हो, तो भी आश्चर्य नहीं। इसके बावजूद उम्मीद की जानी चाहिये कि सरकार ऐसा बजट लाये जिससे सामान्य जनता को राहत मिले। महंगाई घटे, रोजगार के अवसर बनें, किसानों, मजदूरों, निम्न, मध्यम तथा वेतनभोगियों जैसे वर्गों की आय में इज़ाफ़ा हो- यह सरकार को सुनिश्चित करना होगा। जिन वस्तुओं का इस्तेमाल सामान्य लोग करते हैं उन पर किसी तरह की टैक्स बढ़ोतरी न हो। प्रयास तो ऐसे हों कि उनकी कीमतें घटें ताकि लोगों की जेब पर बढ़ता दबाव कम हो सके। हाल-फिलहाल में भाजपा को कोई चुनाव लड़ना नहीं है इसलिए वो नफे-नुकसान की चिंता से मुक्त होकर मन की बात वाला बजट पेश कर सकती है।
पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा की स्थिति कमजोर थी, धन्ना सेठों और सत्तालोलुप नेताओं की मदद से भाजपा की नैया पार तो हो चुकी है परन्तु उसे केन्द्र की सरकार बचाने के ऐवज में व्यवसायिक लॉबी के लिये बहुत कुछ करना होगा। उनके लिये कम दरों में ब्याज देने या सरकारी बैंकों को घाटे में डालकर भी ऋ ण देने के लिये पूंजी जुटानी होगी। ऐसा वह मध्य वर्ग, नौकरीपेशा तथा तमाम टैक्स पटाने वालों के बल पर ही करेगी।
केन्द्र सरकार की संरचना देखें तो साफ है कि वह कई दलों के सहयोग पर टिकी है। खासकर, बिहार के जनता दल यूनाइटेड एवं आंध्रप्रदेश की तेलुगु देसम पार्टी को संतुष्ट रखना उसके लिये ज़रूरी है। इन दोनों के ही नेता, क्रमश: नीतीश कुमार एवं चंद्रबाबू नायडू अपनी मांगें रखने और मनवाने के उस्ताद माने जाते हैं। आंध्रप्रदेश को अपनी नयी राजधानी बनाने तथा बिहार को विशेष पैकेज के नाम पर बड़ी राशियां चाहिये होंगी जिसे पूरा करना मोदी सरकार की सियासी मजबूरी होगी। फिर, देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई जिस महाराष्ट्र में स्थित है, वह राज्य भी भाजपा की झोली में है। यहां एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना तथा अजित पवार धड़े की नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी भाजपा की सहयोगी हैं जिनके साथ मिलकर सरकार चल रही है। इन दो क्षत्रपों को भी लाभ पहुंचाना सरकार को बचाये रखने के लिये लाजिमी होगा।
भाजपा के इन तमाम राजनीतिक खर्चों के लिये राशि जुटाने का काम मोदी के कारोबारी मित्रों के जरिये ही होगा। उद्योग-व्यवसाय के विकास के नाम पर पेश होने वाले तमाम बजटीय प्रावधानों को सूक्ष्मता से देखना होगा कि वे वाकई किसके हक में जायेंगे। वैसे मोदी सरकार पूंजीपतियों को मदद पहुंचाने का काम कोई चोरी-छिपे नहीं करती, फिर भी इस बार की परिस्थितियां उपरोक्त कारणों से पहले के मुकाबले कुछ भिन्न हैं। बजट के लक्ष्य आर्थिक कम और राजनीतिक अधिक होने के कारण वे कतिपय आवरणों में पेश किये जायेंगे। इलेक्टोरल बॉन्ड्स पर रोक के बाद मोदी सरकार के प्रमुख पोषक औद्योगिक समूहों को हिंडनबर्ग रिपोर्ट तथा अमेरिका में दायर मुकदमे के बाद बड़ा नुकसान हुआ है। देखना तो यह है कि बजट के माध्यम से ऐसी कौन सी तरकीबें भाजपा सरकार जुगाड़ लगाती है ताकि सहयोगी व्यवसायियों के नुकसान की भरपाई पूरी हो सके।
यह समझने के बावजूद कि, पूंजावादी विचारधारा का अनुसरण करने वाली भाजपा की वित्त मंत्री की टोकरी से साधारणजनों के लिये बहुत कुछ नहीं निकलने वाला, फिर भी उम्मीद की जाती है कि बढ़ती महंगाई के मद्देनज़र सरकार ऐसे कदम उठाये जिनसे उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें घटें। बहुत सी ऐसी सामग्रियां एवं सेवाएं हैं जिन पर लादी गयी भारी-भरकम जीएसटी से वे बेतरह महंगी हो गयी हैं। खाद्य पदार्थ, सब्जियां, दवाइयां, कपड़े, निर्माण सामग्रियां, जीवनोपयोगी वस्तुएं और यहां तक कि शिक्षा सामग्री, किताबें आदि सब कुछ बेहद महंगी हो गयी हैं। इस सरकार का दावा है कि भारत विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओँ में से एक है तो उसका लाभ जनता तक पहुंचना चाहिये।
रोजगार लोगों की पहली ज़रूरत है। कभी मोदी ने दावा किया था कि सरकार हर वर्ष दो करोड़ लोगों को रोजगार देगी। भारत उस लक्ष्य से कोसों दूर है। शासकीय उपक्रमों में बड़े पैमाने पर पद रिक्त हैं। इनमें रेलवे और सेना तक शामिल है। हर साल लाखों युवाओं को प्रमुख 100 कम्पनियों में इंटर्नशिप के जरिये काम देने वाली पिछले बजट में घोषित योजना फ्लॉप हो चुकी है।
अमेरिका में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद ट्रंप सरकार जो फैसले ले रही है उसके परिणाम भी भारत पर प्रतिगामी पड़ सकते हैं, इसका सामना करने की तैयारी भी बजट में होनी चाहिए।
देश की अर्थव्यवस्था सुधारनी है तो किसानों, श्रमिकों, ग्रामीणों, आदिवासियों, महिलाओं आदि की आय बढ़ानी होगी। बजट के केन्द्र में चंद पूंजापति नहीं बल्कि आमजन होने चाहिये। सामान्य लोगों के सशक्तिकरण से देश मजबूत और खुशहाल बनेगा।