समाजवादी परिवार का हिस्सा रहने के कारण बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की छवि समतावादी और सुशासन की रही है लेकिन इन दिनों जो उनका व्यवहार और नीतियां सामने आ रही हैं, वे इस बात को उजागर करने के लिये काफी हैं कि भीतर से वे नारी विरोधी हैं और रुढ़िगत पितृसत्तात्मक समाज की मानसिकता से खुद को बहुत अलग नहीं कर पाये हैं। कुछ ही महीनों में उनके राज्य में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, उसमें उनकी जनता दल यूनाइटेड पर जिस प्रकार भारतीय जनता पार्टी हावी हो रही है और आगामी सरकार बनाने के लिये जैसी महत्वाकांक्षाएं न सिर्फ पाले बैठी है वरन उसका खुलकर इज़हार भी कर रही है, वह भी नीतीश बाबू की परेशानी का एक कारण हो सकता है। इतना ही नहीं, उनके मानसिक स्वास्थ्य को लेकर भी कई तरह की चर्चाएं जारी हैं। यदि उनके बारे में बन रही इस आशय की धारणाएं सही हैं कि उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है, तो यह भी देखा जाना चाहिये कि क्या उनका स्त्री विरोध इस मानसिकता का परिणाम तो नहीं है?
हाल ही में वे प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के लिये विधान परिषद में जिस भाषावली का उपयोग कर रहे हैं वह उनके पद की गरिमा के प्रतिकूल और प्रजातंत्र के खिलाफ है। इन बयानों ने यह भी साबित किया है कि नीतीश कुमार का चेहरा चाहे प्रगतिशील नेता का हो लेकिन भीतरी तौर पर वे उस व्यापक भारतीय समाज का हिस्सा हैं जो अमूमन महिलाओं के प्रति वास्तविक सम्मान नहीं रखता। नीतीश कुमार अपने नारी विरोधी नज़रिये का कई बार परिचय दे चुके हैं। याद हो कि जब कुछ समय के लिये जेडीयू तथा राष्ट्रीय जनता दल की सरकार में वे मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने प्रजनन प्रक्रिया को लेकर बेहद आपत्तिजनक बयान दिया था। हालांकि उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया था। उन्होंने इसके लिये खेद जताते हुए खुद की ही भर्त्सना की थी। भरे सदन में उनके इस बयान पर विपक्ष, खासकर भाजपा की महिला विधायकों ने काफी विरोध किया था, जो हर तरह से वाजिब था। तब और अब में दो साल से ज्यादा का समय गुजर चुका है। कहते हैं कि तभी से नीतीश कुमार का व्यवहार असंतुलित सा हुआ दिखता है। हाल ही में एक कार्यक्रम में जब राष्ट्रगान हो रहा था, तो वे अपने बाजू में खड़े मुख्य सचिव से बात करने लगे और उनके टोकने पर भी सीधे खड़े न होकर सामने किसी का अभिवादन करते नज़र आये। उनका यह वीडियो देश भर में वायरल हुआ है जिसे देखकर लोगों का कहना था कि उनके खिलाफ राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान का मामला दर्ज होना चाहिये।
विधान मंडल के जारी बजट सत्र में उनकी राबड़ी देवी से कई बार बहस हुई है। यह कोई नयी बात नहीं लेकिन जिस भाषा का इस्तेमाल उन्होंने किया, वह आश्चर्यजनक है। जिन शब्दों का प्रयोग उन्होंने किया वह असंसदीय तो हैं ही, अमर्यादित भी। पिछले दिनों नीतीश ने राबड़ी देवी पर कटाक्ष करते हुए कहा था- 'इनके पति को इस पद से हटाया गया, इसलिए ही वह मुख्यमंत्री बन पाई थीं।' उल्लेखनीय है कि जब राबड़ी देवी के पति लालू प्रसाद यादव को भ्रष्टाचार के मामले पर मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा था तो राबड़ी देवी ने वह पद सम्हाला था। फिलहाल वे विधान परिषद की सदस्य हैं। मंगलवार को सदन की कार्यवाही के दौरान आरक्षण पर गर्मागर्म बहस हो रही थी। राबड़ी देवी जब कुछ कहने के लिये उठीं, तो नीतीश कुमार ने उन्हें डपटते हुए कहा- 'अरे बैठो अपनी कुर्सी पर! पार्टी तोहरे हसबैंड का है, तोहरा कुछ नहीं। बैठा तू!' राबड़ी देवी ने विरोध जताते हुए कहा कि मुख्यमंत्री के रूप में वह अपने 8 वर्षों के कार्यकाल की उपलब्धियों पर बोल सकती हैं, तो नीतीश ने मगही भाषा में बेहद अशिष्ट भाषा का प्रयोग करते हुए कहा, 'छोड़ा ना, तोहरा कुछ मालूम है?' मुख्यमंत्री ने आगे उन्हें अपमानित करते हुए कहा कि 'पार्टी इसके हसबैंड का है, इ बेचारी तो ऐसे ही आ गई है।'
नीतीश कुमार की इस तरह की अशालीन भाषा का कारण उन पर पड़ रहा दबाव भी बतलाया जाता है। वे शायद इस खौफ़ में जी रहे हैं कि अगले विधानसभा चुनाव में उनका हश्र वैसा ही न हो जाये जैसा कि महाराष्ट्र के एकनाथ शिंदे का हुआ है। पहले समर्थन देकर भाजपा ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया लेकिन उनके बल पर चुनाव जीतकर भाजपा के देवेन्द्र फडणवीस मुख्यमंत्री बन गये। वैसे भी भाजपा की प्रदेश इकाई तो कह ही चुकी है कि 'पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को तभी सच्ची श्रद्धांजलि होगी जब बिहार में भाजपा की अपनी सरकार बनेगी।' इसलिये हाल ही में नीतीश कुमार राज्य भर का अकेले दौरा कर रहे हैं जबकि जेडीयू नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस का हिस्सा है। वे यह तैयारी कर रहे हैं कि भाजपा द्वारा धोखा मिलने पर वे अकेले चुनाव लड़ें। यह टास्क अपने आप में किसी को डराने या परेशान करने के लिये काफी होना चाहिये। इसके अलावा अनेक मामले हैं जिन्हें लेकर नीतीश घिरते जा रहे हैं। पहला तो है विशेष राज्य का दर्जा न मिलना जिसके आकर्षण में वे राजद के साथ गठबन्धन तोड़कर एनडीए में वापस चले गये थे। फिर, उनके कोर वोट बैंक दलितों, ओबीसी व मुसलमानों को भाजपा से दुश्वारियां मिलने के बावजूद उन्हें भाजपा के साथ जुड़े रहकर साथियों की नाराजगी व अपमान झेलना पड़ रहा है।
लेकिन सियासत की इन तमाम बातों से ऊपर उठकर सवाल यह है कि नीतीश कुमार या उनके जैसे कई और नेता किसी स्त्री के राजनीति में आगे बढ़ने पर सहज क्यों नहीं रह पाते हैं। राबड़ी देवी खुद से राजनीति में आईं या अपने पति के कहने पर आईं, यह किसी और की चिंता का विषय नहीं है। राबड़ी देवी के कार्यकाल की आलोचना नीतीश कुमार कर सकते हैं, लेकिन उनके राजनीति में होने पर कुछ कहना हर लिहाज से गलत है। नीतीश कुमार जब राबड़ी देवी पर कुछ न जानने का कटाक्ष कर रहे थे, तो वे एक स्त्री के साथ-साथ राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री को भी अपमानित कर रहे थे।