महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करने की कोशिशें बीते कुछ बरसों में तेज हो गई हैं। कट्टर हिंदुत्व की सीढ़ियों पर चढ़कर जो लोग सत्ता के शिखर पर पहुंचे हैं, उनकी छत्रछाया में यह काम आसानी से हो सकता है, ऐसा गोडसे समर्थकों को लगता है। बीते आम चुनाव में प्रज्ञा ठाकुर ने सरेआम गोडसे को देशभक्त ठहराया था, आज वे लोकसभा सांसद हैं।
हाल ही में ग्वालियर में हिंदू महासभा ने गोडसे ज्ञानशाला खोली, जिसका उद्देश्य था गोडसे के विचारों का प्रसार और इस तरह शायद अंतत: गांधी की हत्या को सही ठहराना। आज जैसा माहौल है, उसमें यह साबित भी हो जाए कि गांधी के सीने पर गोलियां दाग कर गोडसे ने सही किया, तो कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि देश में जो बातें कभी लगभग असंभव लगती थीं, जो बातें डरावनी लगती थीं, वे सारे डर एक-एक कर व्यवस्थागत तरीके से सच किए जा रहे हैं।
दरअसल गोडसे तो एक प्रतीक मात्र है कट्टरता और धर्मांधता का। गोडसे के बहाने फिर से इस कट्टरता को परवान चढ़ाने की कोशिशें की जा रही हैं। इस कोशिश में गांधी, पटेल, नेताजी और विवेकानंद सबका इस्तेमाल हो रहा है। बहरहाल, गोडसे ज्ञानशाला पर दो दिनों में ही पुलिस ने ताला लगवा दिया और लाइब्रेरी की किताबें जब्त कर लीं। लेकिन सवाल यही है कि जिस ज्ञानशाला के खुलने का विचार सामने आते ही, उस पर रोक लग जानी चाहिए थी, उसके लिए 48 घंटे का वक्त कैसे लगा और क्यों लगा।
हिंदू महासभा के उपाध्यक्ष का कहना है कि इसका मकसद ज्यादा से ज्यादा लोगों तक संदेश पहुंचाना था, वह पूरा हो गया। हम किसी कानून का उल्लंघन नहीं करना चाहते थे, इसलिए लाइब्रेरी को बंद कर दिया गया। इस बयान के बाद संदेह की कोई गुंजाइश नहीं बचती कि प्रायोजित तरीके से गोडसे यानी कट्टर हिंदुत्व की विचारधारा को भारत में फैलाया जा रहा है। यानी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों को तेजी से मिटाने की मुहिम चल पड़ी है। क्योंकि गांधी और गोडसे दोनों एक साथ कैसे हो सकते हैं। किसी एक को तो मरना ही है, और आज के भारत में गांधी को मारने की पैरवी हो रही है। क्या इस भयावह सच को जानने के बाद भी हम विकास, राष्ट्रवाद, आत्मनिर्भरता, जैसे जुमलों पर यकीन कर सकते हैं।
गौरतलब है कि 2017 में हिंदू महासभा ने गोडसे की मूर्ति लगवाई थी, जिसकी पूजा का इरादा व्यक्त किया गया था। हालांकि इस पर भी रोक लगी और बाद में हिंदू महासभा के कुछ लोगों पर एफआईआर दर्ज हुई थी। लेकिन इस बार कोई मामला दर्ज नहीं हुआ। मध्यप्रदेश पुलिस का कहना है कि उस वक्त एमपी फ्रीडम ऑफ रिलिजन एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया था। इस बार भी मूर्ति लगाने की बात चल रही थी, लेकिन उससे पहले ही लाइब्रेरी को बंद करवा दिया गया। अगर कुछ भी गलत किया जाता है तो पुलिस कार्रवाई करेगी। इस स्पष्टीकरण से यही समझ आता है कि गांधी के हत्यारे के विचारों का प्रचार-प्रसार भाजपा राज की पुलिस को गलत नहीं लगता। कितनी अजीब बात है कि सरकार के विचारों का विरोध करने वाले एक स्टैंडअप कामेडियन को बिना किसी सबूत के कई दिनों तक हिरासत में रखा जाता है, लेकिन खुलकर गोडसे का समर्थन करने वालों पर कार्रवाई के लिए पुलिस गलत होने की कानूनी परिभाषाएं तलाशती है। यही आज के स्वनामधन्य देशभक्तों का असली चेहरा है।
जिसमें सरकार की भक्ति ही असल में देशभक्ति है और सरकार से विरोध देशद्रोह है। दुख इस बात का है कि ऐसी देशभक्ति की घुट्टियां महापुरुषों का नाम ले लेकर रोज देश को पिलाई जा रही हैं। उनके विचारों को अपनी सुविधा के अनुसार पेश किया जा रहा है। स्वामी विवेकानंद भी ऐसे ही एक महापुरुष हैं, जिन्हें आरएसएस हिंदुत्व का प्रतीक बनाने की कोशिश 1960-70 के दशक से करती आई है, जब सरसंघचालक एमएस गोलवलकर हुआ करते थे। 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद की जयंती, अब उनके विचारों के प्रसार से अधिक अपनी राजनीति को साधने का जरिया बन गई है।
इस बार 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा संसद समारोह को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राजनीतिक वंशवाद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया और इसे जड़ से उखाड़ फेंकने की जरूरत बताई। लेकिन ऐसा कहते वक्त वे शायद ज्योतिरादित्य सिंधिया, वरुण गांधी, दुष्यंत सिंह, जयंत सिन्हा, और ऐसे दर्जनों नेताओं के नाम भूल गए, जो अपने मां-बाप, चाचा-ताऊ, बुआ-दादी आदि की राजनीतिक बेल को आगे बढ़ा रहे हैं। और इससे भी आश्चर्य की बात ये है कि विरोध के लिए कम होती गुंजाइश, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन, धर्मांधता, सांप्रदायिकता ऐसी कई बुराइयां जो लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं, उन्हें छोड़ प्रधानमंत्री ने वंशवाद को सबसे बड़ा दुश्मन बताया।
जबकि वंशवाद के कारण कोई पार्टी किसी को उम्मीदवार बनाती भी है तो उसकी जीत या हार तय करने का काम जनता करती है। इस तरह वंशवाद जनता की मंजूरी के बाद ही आगे बढ़ता है। खैर प्रधानमंत्री ने इस मौके पर एक बार फिर आध्यात्म, राष्ट्रवाद, राष्ट्र्रनिर्माण जैसे शब्दों के इर्द-गिर्द विवेकानंद को याद किया। जबकि इन मुद्दों पर स्वामीजी आज भी वही सब कहते तो जो उन्होंने आज से 126 साल पहले शिकागो की धर्मसंसद में कहे थे।
11 सितंबर 1893 को शिकागो के धर्म सम्मेलन में स्वामीजी ने हिंदू धर्म का उदारवादी चेहरा दुनिया के सामने रखा था। अपने प्रसिद्ध व्याख्यान 'कास्ट, कल्चर एंड सोशलिज़्म' में उन्होंने कहा था- 'कुछ लोग देशभक्ति की बातें तो बहुत करते हैं, लेकिन मुख्य बात है- हृदय की भावना। देश पर छाया अज्ञान का अंधकार क्या आपको सचमुच बेचैन करता है? ...यह बेचैनी ही आपकी देशभक्ति का पहला प्रमाण है।'
हिंदूधर्म में जाति व्यवस्था की कुरीतियों पर उन्होंने कहा था कि सैकड़ों वर्षों तक अपने सिर पर गहरे अंधविश्वास का बोझ रखकर, केवल इस बात पर चर्चा में अपनी ताकत लगाकर कि किस भोजन को छूना चाहिए और किसको नहीं, और युगों तक सामाजिक अत्याचारों के तले सारी इंसानियत को कुचलकर आपने क्या हासिल किया और आज आप क्या हैं?... आओ पहले मनुष्य बनो, अपने संकीर्ण संस्कारों की कारा तोड़ो, मनुष्य बनो और बाहर की ओर झांको। देखो कि कैसे दूसरे राष्ट्र आगे बढ़ रहे हैं। स्वामीजी के ये विचार सही अर्थों में धर्म और देशप्रेम की व्याख्या करते हैं, लेकिन गाय, गोडसे राममंदिर, स्त्री और दलित उत्पीड़न पर राजनीति करने वाले इन्हें कभी समझना ही नहीं चाहते।