• सेबी अध्यक्ष को पद छोड़ने के लिए कहना चाहिए

    सेबी की अध्यक्ष सुश्री माधबी पुरी बुच पर आई विपत्ति को समाप्त करने का समय आ गया है

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    - जगदीश रत्तनानी

    यह निर्विवाद है कि राजनीतिक कवर के बिना सुश्री बुच कथित तौर पर इस तरह से काम नहीं कर सकती थीं। यह वही राजनीतिक कवर है जो कुछ प्रमुख पदों पर लोगों की शक्ति को, उनके प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाता है तथा जो साहसिक, अत्यधिक उत्साही और समर्पित होते हैं एवं उनकी अहंकार की भावना को बढ़ावा देता है जिसे हम अंतत: देखते हैं कि हर बार कभी न कभी ढह जाता है।

    सेबी की अध्यक्ष सुश्री माधबी पुरी बुच पर आई विपत्ति को समाप्त करने का समय आ गया है। अगर उन्होंने पहले ही अपना इस्तीफा नहीं भेजा है तो समय आ चुका है कि उन्हें सेबी छोड़ने के लिए कह दिया जाए। वास्तव में यह उनके हित में है कि वे पद छोड़ दें और निष्पक्ष जांच का सामना करें, बजाय इसके कि एक महत्वपूर्ण नियामक संस्थान के शीर्ष पर बैठे रह कर खुद को और संस्था को उस तरह से कमजोर होते देखें जितना कमजोर सेबी पहले कभी नहीं रहा है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो उनके आचरण का बचाव कर रहे हैं और आरोपों को राजनीति या निहित स्वार्थों का खेल कह रहे हैं लेकिन वे केवल आधे-अधूरे मन से कह रहे हैं, किंतु मामला इस कदर उजागर हो गया है कि अब इसका किसी प्रकार बचाव करना संभव नहीं हो पाएगा।

    हम एक ऐसे चरण में पहुंच गए हैं जिसने सेबी की वह विश्वास और नैतिक प्रतिष्ठा छीन ली है जो उसके कार्य करने और यहां तक कि सबसे बुनियादी विनियामक कार्यों को पूरा करने के लिए जरूरी है। सेबी अधिनियम, 1992 की प्रस्तावना में इसका चार्टर निर्धारित किया गया है: ... प्रतिभूतियों में निवेशकों के हितों की रक्षा करना एवं प्रतिभूति बाजार के विकास को बढ़ावा देना और विनियमित करना तथा उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक मामलों के लिए नियामक व्यवस्था बनाना'। मौजूदा परिस्थितियों में यह सेबी से परे का कार्य है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि सेबी के अध्यक्ष ने सेबी को घुटनों पर ला दिया है।

    यह अप्रासंगिक है कि क्या उनके खिलाफ आरोप साबित होंगे और अंतत: वे दोषी पाई जाएंगी या नहीं। पहले से ही ऐसे पर्याप्त सबूत है जो ऐसे सवाल उठाते हैं जिन्हें आसानी से खारिज नहीं किया जा सकेगा। सेबी में आंतरिक विद्रोह से बाहरी दबाव बढ़ रहा है जिसे गंभीरता से लेने के बजाय खेदजनक और हास्यास्पद स्पष्टीकरण के साथ उसका मुकाबला किया जा रहा है। यह एक कथित विषाक्त संस्कृति की ओर इशारा करता है। सेबी के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि यह बताया जाना कि सेबी के श्रेणी क के अधिकारियों को बाहरी तत्वों द्वारा गुमराह किया गया था, सेबी के संपूर्ण कार्यबल का अपमान करना है।

    अधिकारी निश्चित रूप से जानते हैं कि वे किस बारे में बात कर रहे हैं। भारतीय प्रणाली कैसे काम करती है इस बात की जानकारी जिन लोगों को है, वे जानते हैं कि शक्तिशाली के खिलाफ बोलने के लिए एकजुट होने के लिए बहुत साहस और चरित्र बल और दृढ़ संकल्पित होने की आवश्यकता होती है। अडानी से संबंधित फंडों और हिंडनबर्ग के आरोपों में उलझी होने के बावजूद सुश्री बुच अछूती हैं क्योंकि वे सत्ताधीशों की करीबी मानी जाती हैं। अधिकारी ऐसे व्यक्ति का विरोध करने में कामयाब रहे हैं तो यह केवल सड़ांध की सीमा का संकेतक है जिसने असहनीय होने के कारण टारगेटेड होने के खतरे के बाद भी अधिकारियों को बोलने के लिए मजबूर किया है। सार्वजनिक क्षेत्र में पदानुक्रमित, शीर्ष-चालित, बॉस की जी हुजूरी करने की संस्कृति में विरोध दुर्लभ है और निजी क्षेत्र में असंतोष जाहिर करना आत्मघातक होता है, लेकिन सेबी एक हाइब्रिड की तरह लगता है जिसने कार्यस्थल पर दोनों तरह की सबसे खराब स्थिति सामने लाई है।

    राजनीतिक नजरिये से देखें तो यह महत्वपूर्ण है कि भाजपा सुश्री बुच का बचाव करना बंद कर दे और मामले की पूरी जांच के लिए तैयार हो। भाजपा के राजनीतिक रणनीतिकार यह पाएंगे कि हर गुजरते दिन के साथ बुच को पद पर बनाए रखने की राजनीतिक कीमत बढ़ती जा रही है। हालांकि यह एक बहुत छोटा सवाल है कि भाजपा अपनी छवि को खराब कर रही है तथा अपने संकटों का प्रबंधन कर रही है और खुद के द्वारा खड़े किए गए क्रोनिज्म की सड़ांध से नतीजों का जवाब दे रही है। बड़ा सवाल यह है कि आज भारत कहां खड़ा है और इस तरह के नेतृत्व में प्रमुख संस्थानों को कैसे कमजोर किया जा रहा है।

    यह निर्विवाद है कि राजनीतिक कवर के बिना सुश्री बुच कथित तौर पर इस तरह से काम नहीं कर सकती थीं। यह वही राजनीतिक कवर है जो कुछ प्रमुख पदों पर लोगों की शक्ति को, उनके प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाता है तथा जो साहसिक, अत्यधिक उत्साही और समर्पित होते हैं एवं उनकी अहंकार की भावना को बढ़ावा देता+ है जिसे हम अंतत: देखते हैं कि हर बार कभी न कभी ढह जाता है।

    आखिर सेबी के सर्वशक्तिशाली अध्यक्ष पर कौन प्रश्न उठा सकता है? पांच साल पहले यह सवाल था: आईसीआईसीआई बैंक के शक्तिशाली चेयरपर्सन से कौन सवाल पूछ सकता है? चंदा कोचर ने तब तक पद छोड़ने से इनकार कर दिया था जब तक बैंक कोई और कारण बता कर उन्हें रोक नहीं सकता था और अंतत: न्यायमूर्ति बीएन श्रीकृष्ण समिति द्वारा उनके खिलाफ दर्ज निष्कर्षों के आलोक में (बर्खास्तगी की वजह मिलने के कारण) उन्हें बर्खास्त करना पड़ा।

    दिलचस्प बात यह है कि दोनों मामलों में प्रबंधकों की जड़ें आईसीआईसीआई बैंक में निकलती हैं। वी कामथ के नेतृत्व में आईसीआईसीआई बैंक के दौरान बुच और कोचर की तेजी से तरक्की हुई। कामथ के नेतृत्व में सार्वजनिक क्षेत्र में एक परियोजना वित्त कंपनी के लिए आक्रामक तरीके अपनाए और देखा गया कि एचडीएफसी बैंक द्वारा पछाड़ने तक एक समय देश का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र का बैंक बन गया था । ये वो दिन थे जब कामथ और आईसीआईसीआई ने शीर्ष वैश्विक बैंक बनने की कल्पना की थी और आक्रामक व्यावसायिक तरीके अपनाकर नई ऊर्जा पैदा की, त्वरित विकास भी किया लेकिन ऐसी प्रथाएं भी लाई जो कई सवाल पैदा करने वाले थे। इसने प्रमुख बड़े अधिकारियों को करोड़पति में बदल दिया और कोचर और बुच (और कई अन्य अनाम) जैसे प्रबंधक दिए। बुच 1989 में आईसीआईसीआई बैंक में शामिल हुईं। 2006 में वे आईसीआईसीआई सिक्योरिटीज में शामिल हुईं और 2009 से 2011 तक उसके सीईओ के रूप में इसका नेतृत्व किया। बाद में आईसीआईसीआई बैंक और सेबी के आचरण के बारे में पूछे गए कई सवालों के बाद कंपनी को डिलिस्ट कर दिया गया। सेबी पर आईसीआईसीआई का पक्ष लेने का आरोप लगाया गया था क्योंकि नियमों का उल्लंघन करने के बावजूद उसने आईसीआईसीआई पर कार्रवाई नहीं की थी।

    एक अन्य कनेक्शन हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड का है जो कंपनी निष्ठावान प्रबंधकों का दावा करती है। यूनिलीवर को भारत में अपनी 100 साल की विकास यात्रा के दौरान उच्च नीतिगत मूल्यों को बनाए रखने के लिए जाना जाता है। यहां दो ऐसे लोगों की कहानी है जो कोचर और बुच मामलों में शामिल हैं। जब पहली बार चंदा कोचर के खिलाफ आरोप सामने आए तब यूनिलीवर के पूर्व वाइस चेयरमैन एमके शर्मा ने उनका बचाव किया था। माधबी पुरी बुच के पति धवल बुच यूनिलीवर में कार्यकारी निदेशक बने। यूनिलीवर बेशक इन आरोपों में से किसी में भी शामिल नहीं है लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद इसके दो वरिष्ठतम लोग ऐसी स्थितियों में उलझे हुए हैं जो कम से कम निर्णय की गुणवत्ता पर सवाल उठाते हैं।

    सामान्य तौर पर कहा जाए तो आरबीआई के विपरीत सरकार के नियंत्रण से खुद को बचाए रखने में सेबी कई तरीकों से असमर्थ रहा है। आरबीआई ने कम से कम अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने का प्रयास किया है। फिर भी दूसरों की तरह आरबीआई के प्रतिनिधि अब तक सेबी बोर्ड में चुप्पी साधे हुए हैं। सेबी और आरबीआई दोनों सांविधिक निकाय हैं। आरबीआई का यूआरएल ह्म्ड्ढद्ब.शह्म्द्द.द्बठ्ठ है; सेबी का यूआरएल ह्यद्गड्ढद्ब.द्दश1.द्बठ्ठ है- एक निकाय कम से कम सरकार से अलग होने की घोषणा करता है जबकि दूसरा खुद को सरकार के एक हिस्से के रूप में सुर्खियों में रखता है या कम से कम ऐसा दिखावा करता है। और इस तरह कई किस्से छिपे रहते हैं!
    (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)

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