• नमक के दारोगाजी

    अब सत्ता की थाली हथियाने के लिए जो नमक चुनावी व्यंजन में मिलाया जा रहा है, वो जनता की सेहत के लिए ठीक नहीं है।

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    अब सत्ता की थाली हथियाने के लिए जो नमक चुनावी व्यंजन में मिलाया जा रहा है, वो जनता की सेहत के लिए ठीक नहीं है। जनता चाहे तो पूछ सकती है कि एक चुटकी नमक की कीमत तुम क्या जानो, चौकीदार बाबू। लेकिन अभी चौकीदार बाबू नमक का दारोगा बनने में लगे हुए हैं। उन्हें उनकी पितृ संस्था ने समझाया है कि सत्ता में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर यानी चुनाव औऱ उसमें उठाए जा सकने वाले मुद्दों पर रखनी चाहिए। चुनाव में ऐसे मुद्दे ढूंढना जिससे हिंदू राष्ट्र बनाने की संभावनाएं बनती रहें, और उद्योगपतियों की दौलत बढ़ती रहे। सत्ता वैसे तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक बार हाथ लग जाएगी, और पांच सालों में घटते-घटते लुप्त हो जाएगी। चुनाव बहता हुआ स्रोत है जिससे हुकूमत की सदैव प्यास बुझती है।


    चुनावी देग चढ़ चुकी है और उसमें हिंदुत्व, सांप्रदायिकता, माफिया राज, बुलडोजर, पाकिस्तान, जिन्ना, अब्बाजान, निजाम, पलायन, विकास, रोजगार, किसान, गैस सिलेंडर जैसी तमाम सामग्रियां उचित मात्रा में मिलाकर सत्ता का व्यंजन पकाया जा रहा है। मुफ्तखोरी की छौंक भी लगाई जा चुकी है, बस स्वादानुसार नमक की कमी थी, सो वो भी पूरी कर दी गई। प्रधानसेवक अब चौकीदार की भूमिका छोड़कर रामगढ़ के सरदार रसोइए बनते दिख रहे हैं। उन्होंने जनता को याद दिलाया कि कैसे एक वृद्धा ने कहा कि मोदी का नमक खाया है, तो धोखा नहीं देंगे। वैसे फिल्म में तो सरदार नमक के बाद गोली भी बड़ी प्यार भरी धमक के साथ खिलाता है।

    नमकहलाली का वो अंजाम देखकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन हकीकत उससे कहीं अधिक डरावनी लग रही है। अब सत्ता की थाली हथियाने के लिए जो नमक चुनावी व्यंजन में मिलाया जा रहा है, वो जनता की सेहत के लिए ठीक नहीं है। जनता चाहे तो पूछ सकती है कि एक चुटकी नमक की कीमत तुम क्या जानो, चौकीदार बाबू। लेकिन अभी चौकीदार बाबू नमक का दारोगा बनने में लगे हुए हैं। उन्हें उनकी पितृ संस्था ने समझाया है कि सत्ता में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर यानी चुनाव औऱ उसमें उठाए जा सकने वाले मुद्दों पर रखनी चाहिए। चुनाव में ऐसे मुद्दे ढूंढना जिससे हिंदू राष्ट्र बनाने की संभावनाएं बनती रहें, और उद्योगपतियों की दौलत बढ़ती रहे। सत्ता वैसे तो पूर्णमासी का चांद है, जो एक बार हाथ लग जाएगी, और पांच सालों में घटते-घटते लुप्त हो जाएगी। चुनाव बहता हुआ स्रोत है जिससे हुकूमत की सदैव प्यास बुझती है। लोकतंत्र में सत्ता पांच साल के लिए होती है, उससे तुम्हारा मकसद पूरा नहीं होगा। मगर चुनाव तुम्हारे लिए सुनहरा मौका है, इसी से तुम्हारी पार्टी की और मित्रों की बरकत होती है। तो देश के चौकीदार अब नमक के दारोगा बनकर अपनी बिगड़ी बनाने और जनता की बनी-बनाई बातों को बिगाड़ने में लग गए हैं।


    आप सिर धुनते रहिए कि दारोगाजी को चुनावी संबंधी जो ज्ञान उनकी पितृसंस्था ने दिया है, वो कितना देशहित में है, इससे लोकतंत्र का क्या नुकसान हो सकता है। लेकिन ऐसा ज्ञान तो सरस्वती की लुप्त धारा की तरह पिछले 50 बरसों से शस्य-श्यामला धरती के नीचे बहाया जा रहा था। यह धारा कई बार अपने कुटिलता के साथ सतह के ऊपर भी आई, लेकिन सब यही सोच कर उसे अनदेखा करते रहे कि हमें क्या, हमारे हाथ-पैर इस तेजाबी पानी में तो जल नहीं रहे, जो लोग इसमें झुलस रहे हैं, वो अपना बचाव खुद कर लेंगे। नतीजा ये हुआ कि अब तेजाबी पानी सिर के ऊपर से बहने लगा है। कर्नाटक में इस पानी का आचमन करने वाले एक शख्स की जान चली गई, अब उसकी बहन रोकर सबसे अपील कर रही है कि आप इस तेजाब से खुद को बचा लें। उसके आंसुओं का नमक इस समाज का स्वाद बनाए रखने के लिए जरूरी है। यही नमक सत्ता के जहरीले नमक को काट सकता है। बापू ने भी एक मु_ी नमक उठाकर सत्ता को चुनौती दी थी। ब्रिटिश साम्राज्य उन दुबले-पतले हाथों की मु में बंद नमक को देखकर कांप उठा था। और अपने डर को छिपाने के लिए पूरी ताकत से आत्मनिर्भरता का पाठ सीख रही जनता का दमन उसने किया था। सत्ता की चाल अब भी वही है। फर्क इतना ही है कि दमन के तौर-तरीके बदल गए। अब लोगों को जादूगर की तरह सम्मोहित करके डराया जा रहा है, आपस में उलझाया जा रहा है। दर्शक सोचते हैं जादूगर उनका मनोरंजन कर रहा है, लेकिन असल में वो सम्मोहन से आपको आपके ही साधनों से डरा रहा है।


    जो साइकिल आत्मनिर्भर बनने का पहला साधन होती थी, जिस साइकिल पर अपने दोस्तों के साथ डबल सवारी के मजे लिए जाते थे। उसे ही आतंक की निशानी की तरह बता कर डराया गया। लोगों से साइकिल छूटेगी, दोस्त छूटेंगे, तो उन्हें प्रताड़ित करने में आसानी होगी। जिस साइकिल से जीवन में संतुलन बनाने की सीख लड़कपन में ही मिल जाती है, उस संतुलन को बिगाड़ने की चाल सफल हो गई, तो फिर समाज को तोड़ना आसान होगा। ब्रिटिश साम्राज्य तो खुलकर फूट डालो और राज करो का खेल करता था। लेकिन अब सबका साथ का नारा लगवा कर सबको अलग करने का खेल खेला जा रहा है। लोग नाहक सौ साल पहले वाले जर्मनी से आज की तुलना कर रहे हैं। सौ सालों में राजनीति के, कारोबार के, व्यापार के, युद्ध के और शांति के तौर-तरीके बदल गए तो क्या सत्ता की सनक नहीं बदलेगी। अब तो सत्ता की सनक भी नई रूपसज्जा के साथ दिखाई देती है। पिछली सदी में जर्मनी में जो हुआ, खुलेआम हुआ। साम्यवाद, समाजवाद के खिलाफ पूंजीवाद ने खुलकर अपना दबदबा दिखाया। तानाशाही के ऊपर फकीरी चोगा नहीं पहना गया। नस्ल की नफरत को झूठे आंसुओं के नीचे नहीं दबाया।

    घृणा, क्रूरता, हिंसक प्रवृत्ति, वहशीपन सब खुलेआम प्रदर्शित किया गया। नाखूनों को छिपाकर विश्वशांति और मानवता के कल्याण की बातें नहीं गईं। बल्कि अपनी सत्ता की भूख शांत करने के लिए दुनिया को युद्ध में झोंक दिया गया। आपदा को अवसर बनाने की सीख नहीं दी गई। सीधे आपदा का नर्क दिखा दिया। लेकिन अब स्वर्ग का रास्ता दिखा कर नर्क की भट्टी सुलगा दी गई है।


    लोगों को साइकिल से डराने के दांव के बाद, अब उन्हें आवारा पशुओं के नुकसान और फायदे का अर्थशास्त्र समझाया जा रहा है। पांच बरसों में लोगों ने सत्ता और पशुओं दोनों की आवारगी के नुकसान सहे हैं। सत्ता तो जरूरत पड़ने पर पूंजीपतियों की पालतू बन जाती है। सत्ता के गोबर, खाद, सींग, नाखून और खाल, सारे उत्पाद अमीरों की दौलत में इजाफा करते हैं। लेकिन जनता के खाते में अब भी आवारा पशु ही लिखे जा रहे हैं। गोबर तुम्हारा चुनावसिद्ध अधिकार है और 10 मार्च के बाद गोबर तुम्हें मिलकर रहेगा, इसका ऐलान हो रहा है। गोबर का अर्थशास्त्र हार्डवर्क वाले समझा रहे हैं। गोबर के अर्थशास्त्र और विज्ञान की नयी शाखाएं अब देश में खुलेंगी, जहां क्रिप्टो बाबा, गोबर करेंसी के फायदे समझाएंगे। देश के बैंकों को ताला लगाने की तैयारी तो पहले ही हो चुकी है, रिजर्व बैंक के सोने को भी देशहित में गोबर से बदल दिया जाएगा। सोना तो फकीरों को वैसे भी रास नहीं आता, उसे दारोगाजी के वजन बराबर तुलवाकर अमीरों की तिजोरियों में रख दिया जाएगा।

    गोबर राष्ट्र की संपत्ति बन जाएगा और गोबर के उपले थापने के लिए लाइसेंस लेना पड़ेगा। इससे गोबर का महत्व और कीमत लोगों को समझ आएगी। कमल अब कीचड़ की जगह गोबर में भी खिल सकता है, यह कमाल देश को दिखाया जाएगा। गुड़ गोबर करना मुहावरा अब सत्ताविरोधी और देश के साथ द्रोह माना जाएगा। बल्कि गोबर को गुड़ साबित करने वाले को देशरत्न दिया जा सकता है। देश विकास कर रहा है। हम गोपालकों से गो मूत्र विशेषज्ञ बनते हुए गोबरज्ञानी बनने जा रहे हैं। नमक के दारोगा काम पर लगे हुए हैं, वो नमकहलाली पर नया अध्याय राष्ट्र की सेवा में लिख रहे हैं।

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