• स्वामी विवेकानंद के क्रांतिकारी विचार

    मानवी समाज पर चारों वर्ण-पुरोहित, सैनिक, व्यापारी और मजदूर-बारी-बारी से राज्य करते हैं। हर अवस्था का अपना गौरव और अपना दोष होता है।

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    एल. एस. हरदेनिया
    जब ब्राह्मण का राज्य होता है तब जन्म के आधार पर पृथकता रहती है - पुरोहित स्वयं और उनके वंशज नाना प्रकार के अधिकारों से सुरक्षित रहते हैं- उनके अतिरिक्त किसी को कोई ज्ञान नहीं होता-और उनके अतिरिक्त किसी को शिक्षा देने का अधिकार नहीं। इस विशिष्ट काल में सब विद्याओं की नींव पड़ती है, यह इसका गौरव है।


    पिछले दिनों से देश के विभिन्न भागों में मुस्लिम एवं ईसाई नागरिकों पर अत्प्रयाशित हमले होते रहे हैं। इस तरह की बातों से देश की एकता को चोट पहुंचती है। हमारे सबसे महान आध्यात्मिक गुरू स्वामी विवेकानंद ने सभी धर्मावलंबियों की एकता पर जोर दिया था। उनका कहना था कि वेदांत और इस्लाम के समन्वय के बना अति दरिद्र भारत का विकास संभव नहीं है। इस संदर्भ में उनका एक दस्तावेज प्रकाशित किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण समस्याओं के हल के बारे में उनके गहन विचार इस लेख में प्रकाशित किए जा रहे हैं।


    प्रिय मोहम्मद सरफराज हुसैन,
    अलमोड़ा, 10 जून 1898
    आपका पत्र पढ़कर मैं मुग्ध हो गया और मैं यह जानकर अति आनन्द हुआ कि भगवान चुपचाप हमारी मातृभूमि के लिए अभूतपूर्व चीजों की तैयारी कर रहे हैं।
    चाहे हम उसे वेदान्त कहें या और किसी नाम से पुकारें परन्तु सत्य तो यह है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अन्तिम शब्द है और केवल उसी के दृष्टिकोण से सब धर्मों और सम्प्रदायों को प्रेम से देखा जा सकता है। हमें विश्वास है कि भविष्य के सभ्य मानवीय समाज का यही धर्म है। अन्य जातियों की अपेक्षा हिन्दुओं को यह श्रेय प्राप्त होगा कि उन्होंने इसकी सर्वप्रथम खोज की। इसका कारण यह है कि वे अरबी और हिब्रू दोनों जातियों से अधिक प्राचीन हैं।

    परन्तु साथ ही व्यावहारिक अद्वैतवाद का-जो समस्त मनुष्य-जाति को अपनी ही आत्मा का स्वरूप समझता है, तथा उसी के अनुकूल आचरण करता है-विकास हिन्दुओं में सार्वभौमिक भाव से होना अभी शेष है।
    इसके विपरीत हमारा अनुभव यह है कि यदि किसी धर्म के अनुयायी व्यावहारिक जगत् के दैनिक कार्यों के क्षेत्र में, इस समानता को योग्य अंश में ला सके हैं तो वे इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं - यद्यपि सामान्यत: जिस सिद्धान्त के अनुसार ऐसे आचरण का अवलम्बन है उसके गम्भीर अर्थ से वे अनभिज्ञ है जिसे कि हिन्दू साधारणत: स्पष्ट रूप से समझते हैं।


    इसलिए हमें दृढ़ विश्वास है कि वेदांत के सिद्धान्त कितने ही उदार और विलक्षण क्यों न हों, परन्तु व्यावहारिक इस्लाम की सहायता के बिना, मनुष्य-जाति के महान जनसमूह के लिए वे मूल्यहीन हैं। हम मनुष्य-जाति को उस स्थान पर ले जाना चाहते हैं जहां न वेद हैं, न बाइबिल है, न कुरान; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्य-जाति को यह शिक्षा देनी चाहिए कि सब धर्म उस धर्म के, उस एकमेव द्वितीय के भिन्न-भिन्न रूप हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति इन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।


    हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य- हिन्दुत्व और इस्लाम- वेदान्ती बुद्धि और इस्लामी शरीर- यही एक आशा है।
    मैं अपने मानस-चक्षु से भावी भारत की उस पूर्णावस्था को देखता हूं जिसका इस विप्लव और संघर्ष से तेजस्वी और अजेय रूप में वैदान्तिक बुद्धि और इस्लामी शरीर के साथ उत्थान होगा।
    प्रभु से सर्वदा मेरी यही प्रार्थना है कि वह आपको मनुष्य-जाति की सहायता के लिए, विशेषत: हमारी अत्यन्त दरिद्र मातृभूमि के लिए, एक शक्ति-सम्पन्न यन्त्र बनावें।
    इति।
    भवदीय
    स्नेहबद्ध
    विवेकानन्द

    ईसाई बन रहे हैं अछूत

    प्रिय पंडितजी महाराज,
    हम लोगों को विदेशों की यात्रा करनी चाहिए। यदि हम अपने को एक सुसंगठित राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं तो हमें यह जानना चाहिए कि दूसरे देशों में किस प्रकार की सामाजिक व्यवस्था चल रही है और साथ ही हमें मुक्त हृदय से दूसरे राष्ट्रों से विचार विनिमय करते रहना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमें गरीबों पर अत्याचार करना एकदम बन्द कर देना चाहिए। किस हास्यापद दशा को हम पहुंच गये हैं! यदि कोई भंगी हमारे पास भंगी के रूप में आता है तो छुतही बीमारी की तरह हम उसके स्पर्श से दूर भागते हैं।

    परन्तु जब उसके सिर पर एक कटोरा पानी डालकर कोई पादरी प्रार्थना के रूप में कुछ गुनगुना देता है और जब उसे पहनने को एक कोट मिल जाता है-वह कितना ही फटा-पुराना क्यों न हो-तब चाहे वह किसी कट्टर से कट्टर हिन्दू के कमरे के भीतर पहुंच जाय, उसके लिए कहीं रोक-टोक नहीं, ऐसा कोई नहीं जो उससे सप्रेम हाथ मिलाकर बैठने के लिए उसे कुर्सी न दे! इससे अधिक विडम्बना की बात क्या हो सकती है? आइये, देखिये तो सही, दक्षिण भारत में पादरी लोग क्या गजब कर रहे हैं। ये लोग नीच जाति के लोगों को लाखों की संख्या में ईसाई बना रहे हैं। ट्रावंनकोर में जहां पुरोहितों के अत्याचार भारतवर्ष भर में सबसे अधिक हैं, जहां जमीन के प्रत्येक टुकड़े के मालिक ब्राह्मण हैं और जहां राजघरानों की महिलाएं तक ब्राह्मणों की उपपत्नी बनकर रहने में गौरव मानती हैं, वहां लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गई हैं! मैं उन बेचारों को क्यों दोष दूं? हे भगवन्, मनुष्य कब दूसरे मनुष्यों से भाईचारे का बर्ताव करना सीखेंगे? (खेतड़ी निवासी पंडित शंकरलाल को 20 सितम्बर 1892 को बंबई से लिखित)


    क्या मांस खाने वालों को प्रभु कृपा नहीं मिलेगी?
    तुमने मांस खाने वाले क्षत्रियों की बात उठाई है। क्षत्रिय लोग चाहे मांस खायें, या न खायें वे ही हिन्दूधर्म की उन सब वस्तुओं के जन्मदाता हैं जिनको तुम महान और सुन्दर देखते हो। उपनिषद् किसने लिखे थे? राम कौन थे? कृष्ण कौन थे? बुद्ध कौन थे? जैनों के तीर्थंकर कौन थे? जब कभी क्षत्रियों ने धर्म का उपदेश दिया, उन्होंने सभी को धर्म पर अधिकार दिया। और जब कभी ब्राह्मणों ने कुछ लिखा उन्होंने औरों को सब प्रकार के अधिकारों से वंचित करने की चेष्टा की। गीता और व्याससूत्र पढ़ो, या किसी से सुन लो। गीता में मुक्ति की राह पर सभी नरनारियों, सभी जातियों और सभी वर्णों को अधिकार दिया गया है, परन्तु व्यास गरीब शूद्रों को वंचित करने के लिए वेद की मनमानी व्याख्या कर रहे हैं। क्या ईश्वर तुम जैसा मूर्ख है कि एक टुकड़े मांस से उसकी दयारूपी नदी में बाधा खड़ी हो जायगी? अगर वह ऐसा ही है तो उसका मोल एक फूटी कौड़ी भी नहीं! (शिकागो से 3 मार्च 1894 को लिखे गए पत्र से)


    हां मैं समाजवादी हूं
    मानवी समाज पर चारों वर्ण-पुरोहित, सैनिक, व्यापारी और मजदूर-बारी-बारी से राज्य करते हैं। हर अवस्था का अपना गौरव और अपना दोष होता है। जब ब्राह्मण का राज्य होता है तब जन्म के आधार पर पृथकता रहती है - पुरोहित स्वयं और उनके वंशज नाना प्रकार के अधिकारों से सुरक्षित रहते हैं- उनके अतिरिक्त किसी को कोई ज्ञान नहीं होता-और उनके अतिरिक्त किसी को शिक्षा देने का अधिकार नहीं। इस विशिष्ट काल में सब विद्याओं की नींव पड़ती है, यह इसका गौरव है। ब्राह्मण मन को उन्नत करता है, क्योंकि मन द्वारा ही वह राज्य करता है।


    क्षत्रिय-राज्य क्रूर और अन्यायी होता है, परन्तु उनमें पृथकता नहीं रहती और उनके काल में कला और सामाजिक शिष्टता उन्नति के शिखर पर पहुंच जाती है।
    उसके बाद वैश्य-राज्य आता है। उनमें कुचलने की, और खून चूसने की मौन शक्ति अत्यन्त भीषण होती है, उसका लाभ यह है कि व्यापारी सब जगह जाता है इसलिए वह अपनी दोनों अवस्थाओं में एकत्रित किये हुए विचारों को फैलाने में सफल होता है। उनमें क्षत्रियों से भी पृथकता होती है परन्तु सभ्यता की अवनति आरम्भ हो जाती है।
    अन्त में आयेगा मजदूरों का राज्य। उसका लाभ होगा भौतिक सुखों का समान वितरण-और उससे हानि होगी (कदाचित) सभ्यता का निम्न स्तर पर गिर जाना। साधारण शिक्षा का बहुत प्रचार होगा, परन्तु असामान्य प्रतिभाशाली व्यक्ति कम होते जायेंगे।


    यदि ऐसा राज्य स्थापित करना सम्भव हो जिसमें ब्राह्मण-काल का ज्ञान, क्षत्रिय-काल की सभ्यता, वैश्य-काल का प्रचार-भाव और शूद्र-काल की समानता रखी जा सके-उनके दोषों को त्याग कर तो वह आदर्श राज्य होगा। परन्तु क्या यह सम्भव है?
    परन्तु पहले तीनों का राज्य हो चुका है। अब शूद्र-राज्य का काल आ गया है-वे अवश्य राज्य करेंगे, और उन्हें कोई रोक नहीं सकता। ''सोने और चांदी के प्रमाप; रखने में क्या क्या कठिनाइयां हैं, मैं यह सब नहीं जानता, (और मैंने देखा है कि कोई भी इस विषय में अधिक नहीं जानता) परन्तु मैं यह देखता हूं कि स्वर्ण प्रमाप ने धनवानों को अधिक धनी तथा दरिद्रों को और भी अधिक दरिद्र बना दिया है। ब्रायन ने यह ठीक ही कहा था कि ''सोने के भी क्रास पर हम लटकाये जाना पसन्द न करेंगे।'' यदि चांदी का प्रमाप हो जायेगा तो इस असमान युद्ध में गरीबों के पक्ष में कुछ बल आ जायेगा। मैं समाजवादी हूं, इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था समझता हूं, परन्तु इसलिए कि रोटी न मिलने से आधी रोटी ही अच्छी है।


    और सब मतवाद काम में लाये जा चुके हैं और दोषयुक्त सिद्ध हुए हैं। इसकी भी अब परीक्षा होने दो-यदि और किसी कारण से नहीं तो उसकी नवीनता के लिए ही। सर्वदा उन्हीं व्यक्तियों को सुख और दु:ख मिलने की अपेक्षा सुख-दु:ख का बंटवारा करना अच्छा है। शुभ और अशुभ की समष्टि संसार में समान ही रहती है। नये मतवादों से वह भार कन्धे से कन्धा बदल लेगा, और कुछ नहीं। इस दु:खी संसार में सब को सुख-भोग का अवसर दो जिससे इस तथाकथित सुख के अनुभव के पश्चात वे संसार, शासन-विधि और अन्य झंझटों को छोड़कर परमात्मा के पास आ सकें। (वेस्टमिनिस्टर इंग्लैड से 1 नवंबर 1896 को कुमारी मेरी हेल को लिखे गए एक पत्र का अंश)

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