- सर्वमित्रा सुरजन
पुराने जमाने में राजाओं को भेस बदलकर प्रजा का हालचाल लेने की कहानियां तो सुनी हैं। लेकिन लोकतंत्र में भेस बदलने की जरूरत नहीं, जनता के बीच जाएं तो उसके हाल वैसे ही मालूम पड़ जाएंगे। जैसे केन्द्र सरकार के मंत्री को पता चला होगा कि अब एक भुट्टे की कीमत 15 रुपए तक जा पहुंची है, जो उन्हें महंगा लगा। कभी उन्हें हजार रुपए वाला सिलेंडर भी खुद ही खरीदना चाहिए, शायद महंगाई का अहसास हो जाए।
हिंदू राष्ट्र और विश्व गुरु बनने की दिशा में चल रहे देश के लिए अब तक सबसे बड़ा रोड़ा पाश्चात्य संस्कृति को बताया जाता था। आप याद कीजिए कैसे वैलेंटाइन्स डे को महापाप मानते हुए इसे माता-पिता की पूजा के दिन के रूप में बनाने की कोशिश की गई। उससे पहले 14 फरवरी को भगत सिंह का शहादत दिवस बताने का झूठ भी फैलाया गया था। लेकिन सोशल मीडिया के कमबख्त जागरुक लोगों ने इस झूठ की पोल खोल कर रख दी और जनता का परिचय इतिहास की सही तारीख से करा दिया गया। उसके बाद से ही शायद इस बात पर जोर दिया जाने लगा है कि अब इतिहास भी हम खुद ही लिखेंगे, ताकि कहीं कोई गफलत हो भी तो उसे मैनेज किया जा सके।
खैर, वैलेंटाइन्स डे पर बाजारवाद का जोर संस्कृति के आग्रहियों पर भारी पड़ गया। इसके अलावा पश्चिमी देशों से सौदेबाजी के संबंधों पर भी असर पड़ सकता था, इसलिए फिलहाल पाश्चात्य मोर्चे पर थोड़ी शांति है। अगर कहीं ऋ षि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन जाएं, फिर तो भारत-ब्रिटेन के बीच मायका-ससुराल का रिश्ता बनाने में भी क्या देर लगेगी। जहां जाओ, वहां के सगे बन जाओ, ऐसा रिश्ता बनाने में तो यहां पहले से महारत हासिल है। दिक्कत यही है कि ऋषि सुनक को अगर ब्रिटेन अपनी सरकार का मुखिया बना सकता है, तो यहां विदेशी मूल के मुद्दे का क्या होगा। खैर, विरोधियों को घेरने के लिए मुद्दों की कमी कभी नहीं होगी। और अभी पाश्चात्य से अधिक विधर्मी संस्कृति से निपटने की चिंता देश में खड़ी कर दी गई है। विधर्मी संस्कृति पर हंगामा कहीं न कहीं देश भर में, साल भर चलता ही रहता है। इस बीच रेवड़ी संस्कृति का शब्द राजनैतिक पटल पर छा गया।
बचपन से अब तक यही पढ़ा था कि अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपने को दे। अंधा शब्द तो अब दिव्यांग में बदल गया, और रेवड़ी ने कल्चर के साथ अपना रिश्ता जोड़ लिया। कहावत कहें न कहें, उसका अर्थ तो अब भी वही है कि जिसके पास अधिकार होता है, उसके करीबियों के हिस्से में अधिक चीजें आती हैं। देश में यही तो हो भी रहा है। संसार के सबसे अमीर लोगों में शुमार हमारे देश के कुछ उद्योगपति हर क्षेत्र में अपना कारोबार फैला चुके हैं। अनाज के गोदाम, कोयले के भंडार, तेल के कुएं और दूरसंचार के तार, सब उनके कब्जे में आ गए हैं। रेल भी वहीं चलाएंगे, हवाई अड्डों का किराया भी उनकी जेब में जाएगा, जंगल भी उनके होंगे और खेतों के मालिक भी वही होंगे। इतना सब अपनी मुठ्ठी में तभी किया जा सकता है, जब शेरों को खूंखार दिखाकर पालतू बना लिया जाए। फिर कोई अंधा रहे या लाखों का चश्मा पहने, उसे पता है कि रेवड़ी कहां और कैसे बांटनी है।
जब अमीरों में सत्ता का प्रसाद बंटे तो उसे रेवड़ी कहते हैं, लेकिन गरीब जनता को उसका हक दिया जाए, तो उसे प्रसाद जैसा सम्मानजनक शब्द भी नहीं नसीब होता। तब कहा जाता है कि फलाने जी ने ढिकाने क्षेत्र के लोगों को इतने करोड़ की सौगात दी। हालांकि यहां सौगात का मतलब खैरात ही समझना चाहिए। क्योंकि यह उसी अंदाज में दी जाती है, मानो उपकार कर रहे हों। जबकि विधायकों, सांसदों, मंत्रियों का काम है कि अपने क्षेत्र में सर्वांगीण विकास के लिए काम करवाएं। अस्पताल, स्कूल खुलवाएं, पुल और सड़कें बनवाएं। जनता इन्हीं सब सुविधाओं के लिए तरह-तरह के टैक्स देती है। और अपने ही बीच से किसी को अपना प्रतिनिधि बनाकर संसद या विधानसभा भेजती है। ऐसे में सौगात जैसे शब्द की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। लेकिन ये शब्द हर उद्घाटन और शिलान्यास के मौके पर इस्तेमाल होता है, और कमाल देखिए इस पर आपत्ति नहीं हुई कि ये सौगात कल्चर क्या है। उसकी जगह सवाल उठ रहे हैं रेवड़ी कल्चर पर।
पिछले दिनों बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे के उद्घाटन पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ''ये 'रेवड़ी कल्चर' वाले कभी आपके लिए नए एक्सप्रेस वे नहीं बनाएंगे, नए एअरपोर्ट या डिफेंस कॉरिडोर नहीं बनाएंगे।'' हमें जल्द ही देश की राजनीति से इस रेवड़ी कल्चर को हटाना होगा। जाहिर है प्रधानमंत्री उन राजनैतिक दलों और राज्य सरकारों पर निशाना साध रहे थे जो जनता के लिए कई सुविधाएं मुफ्त में देने का ऐलान करते हैं। हालांकि जिस तरह बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे एक ही बारिश में धंस गया, उसमें तो यही लगता है कि यहां रेवड़ी का प्रसाद कुछ ज्यादा ही बंटा है। और रहा सवाल जनता को मुफ्त सुविधाएं देने का, तो शिक्षा, अस्पताल, जरूरी दवाएं, ऐसी सुविधाएं तो जनता को मुफ्त में ही मिलनी चाहिए, क्योंकि अच्छा और सम्मानजनक जीवन उसका मौलिक अधिकार है। महामारी का टीका भी मुफ्त की इसी श्रेणी में आता है। हां, अरबों की कमाई करने वाले उद्योगपतियों का करोड़ों का कर्ज माफ करना, कार्पोरेट टैक्स में कटौती करना, ये सब रेवड़ी कल्चर में आते हैं या नहीं, इस पर विचार होना चाहिए।
संयोग देखिए इधर प्रधानमंत्री ने रेवड़ी कल्चर को देश के लिए सही नहीं बताया। उधर माननीय न्यायपालिका ने इस बात पर चिंता जतलाई कि चुनावों में राजनैतिक दल मुफ्त चीजों का ऐलान कर मतदाताओं को प्रभावित करते हैं। अदालत ने इसे गंभीर मुद्दा मानते हुए केंद्र सरकार से कहा है कि इस स्थिति पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठाने पर विचार करे। अगर केंद्र सरकार ऐसा कोई नियम बनाती है कि चुनावों में मुफ्त चीजों का ऐलान नहीं होगा, तो फिर हमारे चुनावों का रंग कितना बदल जाएगा। घोषणापत्रों की तो सारी रौनक ही चली जाएगी। अभी तो आधे से अधिक बिंदु इसी बात के रहते हैं कि सत्ता में आने पर क्या-क्या मुफ्त में बांटा जाएगा, किन चीजों पर छूट मिलेगी। जनता को भी थोड़ी मोलभाव की आदत हो जाती है, लेकिन अगर मुफ्त शब्द घोषणापत्र से हट जाएगा, तो फिर मोलभाव का ये मौका जनता के हाथ से चला जाएगा। वैसे भी मौजूदा आर्थिक परिदृश्य में उसके पास खाली जेब और महंगी चीजें खरीदने की मजबूरी ही है।
मोलभाव से याद आया कि केन्द्रीय इस्पात और पंचायत विकास राज्य मंत्री फग्गन सिंह कुलस्ते ने बारिश के मौसम में भुट्टे की कीमत पर मोलभाव की कोशिश की थी। हुआ यूं कि मंत्री महोदय मध्यप्रदेश में सिवनी से मंडला जा रहे थे। रास्ते में उन्हें भुट्टा खाने की इच्छा हुई तो कार सड़क किनारे एक भुट्टे वाले के पास रोक दी गई। मंत्रीजी ने भुट्टेवाले से भुट्टा सेंककर नमक-नींबू लगाने कहा। साथ ही तीन भुट्टों की कीमत पूछी। जवाब मिला 45 रुपए। तो मंत्रीजी चौंक गए। उन्होंने कहा इतना महंगा। यहां तो फ्री में मिल जाता है। खैर भुट्टेवाले ने न रेवड़ी की तरह भुट्टा मुफ्त में दिया, न एक रुपया कम किया। अपने इस मोलभाव और खरीद का वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर करते हुए श्री कुलस्ते ने लिखा है कि सभी को अपने स्थानीय किसानों और छोटे दुकानदारों से खाद्य वस्तुओं को खरीदना चाहिए। इससे उनको रोजगार और हमको मिलावट रहित वस्तुएं मिलेंगी।
पुराने जमाने में राजाओं को भेस बदलकर प्रजा का हालचाल लेने की कहानियां तो सुनी हैं। लेकिन लोकतंत्र में भेस बदलने की जरूरत नहीं, जनता के बीच जाएं तो उसके हाल वैसे ही मालूम पड़ जाएंगे। जैसे केन्द्र सरकार के मंत्री को पता चला होगा कि अब एक भुट्टे की कीमत 15 रुपए तक जा पहुंची है, जो उन्हें महंगा लगा। कभी उन्हें हजार रुपए वाला सिलेंडर भी खुद ही खरीदना चाहिए, शायद महंगाई का अहसास हो जाए। और वीडियो में उन्होंने स्थानीय लोगों से सामान खरीदने का जो संदेश दिया है, उस पर उन्हें गौर करना चाहिए, क्योंकि ये बात अगर लागू हो गई तो फिर उन धनपशुओं का क्या होगा, जिनका सब्जी से लेकर दूध और सुई से लेकर लड़ाई के टैंक तक हर चीज की सौदेबाजी में हिस्सा बंधा हुआ है। रेवड़ी कल्चर पर विचार से पहले भुट्टे के मोतियों पर स्थानीय लोगों के हक के बारे में सोचें, शायद महंगाई का कोई हल निकल आए।