• राष्ट्रवाद के स्वांग से खोखला होता गणतंत्र

    यह दूसरी बात है कि चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने मोदी सरकार के पुलवामा तथा बालाकोट के चुनावी इस्तेमाल की ओर से आंखें मूंद लेना ही बेहतर समझा

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    - राजेंद्र शर्मा

    यह दूसरी बात है कि चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने मोदी सरकार के पुलवामा तथा बालाकोट के चुनावी इस्तेमाल की ओर से आंखें मूंद लेना ही बेहतर समझा। अर्णव गोस्वामी का  'सबसे बड़े आतंकी हमले' में अपनी 'पगलाने वाली जीत' देखना और नरेंद्र मोदी का पुलवामा और बालाकोट 'जबर्दस्त जीत' में तब्दील करना, दोनों एक दूसरे के पूरक या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और पुलवामा में जीत देखने से साफ है कि राष्टï्रवाद का स्वांग, इस जीत का सबसे, मारक हथियार है। राष्टï्रवाद का यही स्वांग, राष्टï्रविरोधी स्वार्थों को ज्यादा से ज्यादा ताकतवर बनाने के जरिए, जनतंत्र को खोखला कर रहा है। 72वें वर्ष में भारतीय गणतंत्र की यही सबसे बड़ी चुनौती है।

    रिपब्लिक टीवी के मुख्य कर्ताधर्ता और मोदी सरकार का विशेष संरक्षणप्राप्त समाचार टीवी संपादक/ एंकर, अर्णव गोस्वामी और टीवी रेटिंग एजेंसी, ब्राडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल (बीएआरसी या बार्क) के मुखिया, पार्थो दासगुप्त की व्हाट्सएप के जरिए बातचीत का, भारत के बहत्तरवें गणतंत्र दिवस के ठीक पहले उजागर होना, बेशक एक संयोग ही होगा। फिर भी यह ऐसा संयोग है जो इस संबंध में अनेकानेक प्रश्नों के जवाब दे देता है कि अपने इकहत्तरवें साल के आखिर में बल्कि कहना ज्यादा सही होगा कि मोदी राज के करीब सात साल में, भारतीय गणतंत्र कहां पहुंच गया है या उसकी क्या हालत हो गई है? जाहिर है कि क्या हालत हो गई है, इसके जितना ही महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मोदी राज के सात साल में भारतीय गणतंत्र को किस रास्ते पर धकेल दिया गया है? कहने की जरूरत नहीं है कि अगर जोरदार रोकें लगाकर उसका रास्ता रोका नहीं गया तो निकट भविष्य में भी भारतीय गणतंत्र का, इसी ढलान पर खिसकते जाना तय है।

    अर्णव गोस्वामी और पार्थो दासगुप्त की वाट्सएप बातचीत, जिसकी प्रामाणिकता को इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी ने भी चुनौती नहीं दी थी, सिवा अर्णव गोस्वामी के अपने चैनल पर पेश किए हमले के जरिए बचाव में इन्हें 'तथाकथित' बातचीत कहने के, जिस प्रकरण में सामने आई है, वह अपने आप में गणतंत्र की वर्तमान दुर्दशा के बारे में काफी कुछ बताता है। यह प्रकरण बल्कि ज्यादा उपयुक्त शब्द का सहारा लें तो केस है, समाचार चैनलों की टीआरपी रेटिंग के घोटाले का। इस घोटाले के सिलसिले में मुंबई में पिछले साल नवंबर में एक केस दर्ज कराया गया था। इस केस में शुरूआत तो अर्णव गोस्वामी के अंग्र्रेजी तथा हिंदी के चैनलों, रिपब्लिक टीवी तथा रिपब्लिक भारत समेत कुछ समाचार चैनलों की रेटिंग पर बढ़ते संदेहों की पृष्ठïभूमि में टीवी रेटिंग एजेंसी बार्क द्वारा अपने लिए घरों में व्यूअरशिप मीटर लगाने के लिए जिम्मेदार एजेंसी, हंसा के कुछ कर्मचारियों द्वारा पैसा ले-देकर, रेटिंग में धांधली कराए जाने की शिकायत किए जाने से ही हुई थी। लेकिन, पुलिस की जांच में जल्द ही इस पूरे खेल की तहें खुलती चली गईं और रेटिंग में धांधली का बहुत बड़ा घोटाला सामने आया। 

    इस घोटाले के सबसे बड़े लाभार्थी के रूप में अर्णव गोस्वामी के चैनलों का नाम सामने आया और इस घोटाले के शीर्षस्थ संचालक के रूप में, गोस्वामी के मित्र पार्थो दासगुप्त का। इस केस की जांच शुरू होने के बाद गुजरे करीब दो महीने में दासगुप्त समेत, करीब दर्जन भर लोगों की इस घोटाले के सिलसिले में गिरफ्तारी हो चुकी है और अर्णव गोस्वामी के चैनलों समेत कई चैनलों के उच्चाधिकारियों से पूछताछ शुरू हो चुकी है। फिर भी यहां तक यह घोटाला, एक व्यापारिक घोटाला ही लगता है। बेशक, दूसरे व्यापारिक घोटालों से इस घोटाले का तरीका ही भिन्न नहीं था, इसका असर भी बहुत व्यापक था। रेटिंग के फर्जीवाड़े के जरिए दर्शकों के अनुमोदन का एक झूठा साक्ष्य गढ़ा जा रहा था। इस झूठे साक्ष्य के जरिए टीवी चैनलों के विज्ञापन राजस्व के वितरण को, जो कि इस कारोबार की कमाई का सबसे बड़ा स्रोत है, यह फर्जीवाड़ा कराने वाले चैनलों के पक्ष में झुकाया जा रहा था। फिर भी, यहां तक इसे किसी भी अन्य कारोबारी घोटाले जैसा ही माना जा सकता है।

    लेकिन, राजस्व का इस तरह धांधली से झुकाया जाना सिर्फ संबंधित चैनलों की ज्यादा कमाई कराने का ही काम नहीं करता है इससे बढ़कर यह टीवी समाचार उद्योग को उस चैनल के खबर के मॉडल की ओर धकेलने का भी काम करता है। और अगर, इस धांधली का लाभार्थी चैनल या ग्रुप, अर्णव गोस्वामी के गु्रप जैसा, आक्रामक तरीके से मोदी सरकार का ही नहीं बल्कि उसकी सांप्रदायिक-तानाशाही की राजनीति का भी हथियार बनने के लिए तैयार हो, तो सत्ताधारी जमात के लिए इस चैनल ही नहीं इस धांधली की भी उपयोगिता, कई गुनी बढ़ जाती है।

    करीब 500 पन्नों में और तीन साल के अरसे में फैले अर्णव और दासगुप्त के ये व्हाट्सएप संदेश, जो मुंबई पुलिस ने टीआरपी रेटिंग घोटाले की अपनी चार्जशीट के साथ साक्ष्य के तौर पर संलग्न किए हैं, इस सच्चाई को सामने लाते हैं कि मोदी सरकार और वास्तव में सिर्फ सरकार ही नहीं बल्कि मोदी मंडली किस तरह से भीतर तक इस धांधली तथा कृपा बांटने के खेल में लगी रही है, ताकि समाचार के 'अर्णव मॉडल' को आगे बढ़ाने के सहारे समाचार मीडिया तथा उसके जरिए सार्वजनिक  धारणाओं को मैनिपुलेट करने के जरिए, अपनी जनविरोधी राजनीति को चलाती रह सके। जाहिर है कि यह सरकारी विज्ञापनों के वितरण को भी मीडिया को अपने पक्ष में झुकाने के लिए इस्तेमाल करने से लेकर, अपने विरोधी आलोचना के स्वरों को, चौबीसों-घंटे मॉनीटरिंग व मालिकान पर राजनीतिक तथा सरकारी दबाव डालने के जरिए बंद कराने समेत, मीडिया को साधने के उन तमाम तरीकों के ऊपर से है, जिन्हें मोदी राज ने मारक रूप से व्यवस्थित रूप से स्थापित कर दिया है।    

    खैर! मौजूदा सरकार और उसके उपकृत समाचार चैनलों के, एक-दूसरे के काम आने की सच्चाई तो खैर पहले भी सब को पता थी, फिर भी समाचार मीडिया के दो बहुत ही महत्वपूर्ण खिलाड़ियों की यह बातचीत शायद पहली बार इसमें झांकने का मौका देती है कि यह मिलीभगत कितनी गहरी है। संंबंधित घोटालेबाजी तो इसका एक साधारण सा पक्ष भर है। इस बातचीत में अर्णव गोस्वामी जो बार-बार, प्रधानमंत्री कार्यालय तक ही नहीं खुद प्रधानमंत्री तक अपनी पहुंच का जिक्र करता है, उसमें तो फिर भी अतिरंजना या डींग हांकने का एक बड़ा तत्व माना जा सकता है।

    लेकिन, जब अर्णव गोस्वामी, उपराष्टï्रपति पद के लिए एनडीए द्वारा वेंकैया नायडू के खड़े किए जाने तथा उनके बाद सूचना व प्रसारण मंत्री के पद पर स्मृति ईरानी के लाए जाने की, एकदम सटीक जानकारी घोषणा से काफी पहले अपने मित्रों से बांटता है, तो सत्ता के शीर्ष हलकों तक उसकी पहुंच को हलके में नहीं लिया जा सकता है। और जब रिपब्लिक चैनल सेे, दूरदर्शन की फ्री टुअर डिश पर प्रसारण के लिए लगभग 20 करोड़ रुपये की वसूली की फाइल तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री राठौर द्वारा दबा दिए जाने या ट्राई को रिपब्लिक टीवी तथा बार्क के खिलाफ कार्रवाई करने से ए एस प्रथमाक्षरों के नाम वाले बड़े नेता द्वारा रोक दिए जाने का सवाल आता है, तब तो किसी अगर-मगर की कोई गुंजाइश ही नहीं रह जाती है। और तब तो और भी नहीं जब मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में, अमित शाह के केंद्रीय मंत्रिमंडल में आने पर खुशी का इजहार करते हुए अर्णव गोस्वामी अपने मित्रों से कहते हैं कि अब सूचना-प्रसारण मंत्री कोई भी बने, अमित शाह की ही चलेगी!

    फिर भी यह बातचीत बताती है कि यह गठजोड़ सिर्फ एक-दूसरे के हित साधने तक सीमित नहीं रह गया है। 26 फरवरी, 2919 को पुलवामा की आतंकी घटना के जवाब में, भारतीय वायु सेना पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में एकदम भीतर जाकर, बालाकोट में आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर माने जाने वाले एक परिसर पर हमला करती है। लेकिन, अर्णव गोस्वामी अपने मित्र दासगुप्त से इसके पूरे तीन दिन पहले, 23 फरवरी को यह जानकारी साझा करते हैं। उनके शब्द थे -
    'अर्णव- कुछ बड़ा होने वाला है।'
    'पार्थो- दाऊद?'

    'अर्णव- नहीं सर, पाकिस्तान... सरकार को पक्का है ऐसी चोट करेगी कि 'जनता झूम उठेगी'। ठीक इन्हीं शब्दों का उपयोग किया गया है।' मोदी सरकार के पैरोकार भले ही इस दावे के पीछे अर्णव गोस्वामी को गोपनीय सैन्य जानकारी हासिल होने से इंंकार करें, यह मानने के लिए शायद ही कोई तैयार होगा कि इतनी सटीक जानकारी, सिर्फ पत्रकारीय अनुमान का मामला रही हो सकती है। इसके अलावा, 'ठीक इन्हीं शब्दों का उपयोग किया गया है' से इशारा स्पष्टï रूप से शीर्ष हलकों में मौजूद किसी स्रोत की ओर है। इसके अलावा, ऐसे संयोग क्या बार-बार हो सकते हैं? इससे ठीक पहले, 14 फरवरी को पुलवामा के आतंकी हमले के सिलसिले में अर्णव गोस्वामी का संदेश था: 'सर सबसे बड़े आतंकवादी हमले के मामले में 20 मिनट आगे... अकेला चैनल जो मैदान में मौजूद था... हमारी पगलाने वाली जीत हुई है।'

    इसका अर्थ अगर चैनलों की होड़ में सबसे आगे रहना भी माना जाए तब भी, यह आगे रहना उतने सवालों के जवाब नहीं देता है, जितने सवाल 'पगलाने वाली जीत' से उठते हैं। लेकिन, चैनल की जीत के इस जुनून पर आने से पहले, इसी क्रम में एक और ऐसे ही 'संयोग' का जिक्र करते चलें। जम्मू-कश्मीर में धारा-370 के निरस्त किए जाने 5 अगस्त 2019 के केंद्र सरकार के निर्णय से भी तीन दिन पहले ही, 2 अगस्त को हुई दासगुप्त और गोस्वामी की बातचीत भी बालाकोट प्रकरण संबंधी बातचीत की तरह ही संदेह पैदा करती है: 
    'पार्थो : क्या धारा 370 को खत्म किया जा रहा है?

    'अर्णव- सर (खबर) ब्रेक करने में मैंने प्लैटीनम स्टैंडर्ड कायम किए हैं...यह स्टोरी तो हमारी है।'
        'सबसे बड़े आतंकी हमले' और 'पगलाने वाली जीत' का क्या रिश्ता है? क्या वही नहीं, जिसेे पार्थो दासगुप्त ने बालाकोट की स्ट्राइक की खबर पर अपनी प्रतिक्रिया में स्वर दिया था : 'तब तो इस मौसम में बड़े साहब जीत जाएंगे। जबर्दस्त जीत होगी।' पुलवामा हमले के राज भले ही अब भी राज ही बने हुए हों, बालाकोट का 2019 के आम चुनाव में ठीक उसी तरह से दोहन किया गया, जैसा कि दासगुप्त ने अनुमान लगाया था, इसमें रत्तीभर शक की गुंजाइश नहीं है। यह दूसरी बात है कि चुनाव आयोग से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने मोदी सरकार के पुलवामा तथा बालाकोट के चुनावी इस्तेमाल की ओर से आंखें मूंद लेना ही बेहतर समझा।

    अर्णव गोस्वामी का  'सबसे बड़े आतंकी हमले' में अपनी 'पगलाने वाली जीत' देखना और नरेंद्र मोदी का पुलवामा और बालाकोट 'जबर्दस्त जीत' में तब्दील करना, दोनों एक दूसरे के पूरक या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और पुलवामा में जीत देखने से साफ है कि राष्टï्रवाद का स्वांग, इस जीत का सबसे, मारक हथियार है। राष्टï्रवाद का यही स्वांग, राष्टï्रविरोधी स्वार्थों को ज्यादा से ज्यादा ताकतवर बनाने के जरिए, जनतंत्र को खोखला कर रहा है। 72वें वर्ष में भारतीय गणतंत्र की यही सबसे बड़ी चुनौती है।

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