- वर्षा भम्भाणी मिर्जा़
वैकल्पिक मीडिया इतना शक्तिशाली हो गया है कि सरकार को लगता है कि मतदाता इससे प्रभावित हो रहा है? खुद प्रधानमंत्री ने भी पिछले दिनों यू ट्यूब पर खुद को सब्सक्राइब करने की अपील की है। क्या इस माध्यम को भी टीवी न्यूज़ चैनलों की तरह एकतरफ़ा मोड में लाने की कोशिश है क्योंकि मंगलवार को न्यूज़ क्लिक पोर्टल के संस्थापकों के साथ ही उसके लिए कंटेंट देने वाले यू ट्यूबर्स से भी गहरी पूछताछ की गई।
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ग्रहण तो पहले से ही था, अब पूर्णग्रहण ही लग गया है। पत्रकारों की आवाज़ें दबाई नहीं जा रहीं, सीधे गले ही घोंटे जा रहे हैं। उन्हें 'देशद्रोही' कहा जा रहा है क्योंकि वे वैसा लिख-बोल नहीं रहे हैं, जैसा सरकार चाहती है। सरकार से अलग सोचना अब देशद्रोही हो जाना है। पत्रकार या नागरिक अलग सोच सकते हैं-यह समझ किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार को उसी दिन से होती है जिस दिन वह चुनकर आई होती है। उसे पता होता है कि जो जनसमर्थन आज उसके लिए जुटा है वह कल किसी और के लिए था, तो कल किसी और के लिए जुटेगा। आखिर क्यों इस सरकार का भरोसा उन मतदाताओं पर से ही डिग रहा है जिन्होंने इसे चुना था। लोकतंत्र में डम-डम डिगा-डिगा का राग कब हमेशा किसी एक के लिए बजता रहा है? नौ साल पहले ये ही पत्रकार आज़ादी के पैरोकार और 1975 के आपातकाल में तो पूजनीय थे। अब वे देशद्रोही हो गए हैं। इस अविश्वास की वजह क्या है? प्रधान सेवक बनते-बनते यह तानाशाह का राजदंड भला क्यों हाथ में ले लिया गया है? क्या महान पूर्ववर्तियों को इस बात का आभास पहले ही था जो उन्होंने कह दिया था कि राजधर्म का पालन नहीं हुआ है। आज पत्रकार गिरफ्तार हो रहा है और विपक्ष जेल में ठूंसा जा रहा है।
लगभग 46 पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं न्यूज़ क्लिक पोर्टल के कर्मचारियों के घरों पर मंगलवार को पुलिस ने छापे मारे। ये पत्रकार मुख्य धारा में नहीं बल्कि वैकल्पिक मीडिया के ज़रिये अपनी पत्रकारिता कर रहे थे। बुधवार को न्यूज़ क्लिक न्यूज़ पोर्टल के संस्थापकों को सात दिन की पुलिस रिमांड पर ले लिया गया था।
क्या वाकई वैकल्पिक मीडिया इतना शक्तिशाली हो गया है कि सरकार को लगता है कि मतदाता इससे प्रभावित हो रहा है? खुद प्रधानमंत्री ने भी पिछले दिनों यू ट्यूब पर खुद को सब्सक्राइब करने की अपील की है। क्या इस माध्यम को भी टीवी न्यूज़ चैनलों की तरह एकतरफ़ा मोड में लाने की कोशिश है क्योंकि मंगलवार को न्यूज़ क्लिक पोर्टल के संस्थापकों के साथ ही उसके लिए कंटेंट देने वाले यू ट्यूबर्स से भी गहरी पूछताछ की गई। उनसे पूछा गया कि क्या आप शाहीन बाग़ गए थे, क्या आपने दिल्ली दंगों और किसान आंदोलन को कवर किया है? क्या आप जेएनयू संघर्ष के समय वहां थे?
सब जानते हैं कि ये तमाम मसले सरकार के गृह मंत्रालय की नाक में दम कर देने वाले रहे थे। शाहीन बाग़ में आंदोलन कर रही महिलाओं को उठाने के लिए सरकार के मंत्रियों ने अपशब्दों और फिर बल के प्रयोग का समर्थन किया जो अंत में दिल्ली के दंगों की आग में बदल गया। किसान आंदोलन के समय बरसों बाद फिर से खालिस्तानी लफ्ज़ का इस्तेमाल हुआ जो अब वास्तव में बार-बार दोहराए जाने से विदेशी धरती पर खाद-पानी पा गया लगता है। पत्रकारों की इस गिरफ़्तारी और पूछताछ का आधार चीन से मिले पैसों को बनाया गया है जिसे नकारते हुए पत्रकार अभिसार शर्मा ने कहा कि मैंने ऐसा एक भी कार्यक्रम नहीं बनाया है जिसमें चीन का प्रोपेगेंडा हो। उलटे, मैंने सरकार से ये सवाल ज़रूर किये थे कि सीमा पर हमारे 20 सैनिक क्यों शहीद हुए। पत्रकार ने यह भी साफ़ किया कि मेरी जो भी कमाई है वह मेरे बैंक ट्रांज़िशन का हिस्सा है। छूटने के बाद पत्रकार के कार्यक्रम को साढ़े 12 लाख लोग देख चुके हैं जिसमें उन्होंने कहा कि मेरे बच्चे पुलिस की इस स्पेशल सेल के छापे के समय स्कूल जा रहे थे फिर भी मैं हर सवाल का जवाब दूंगा लेकिन सरकार से सवाल पूछना बंद नहीं करने वाला हूं।
चीन से कनेक्शन अगर पत्रकारों की अभिव्यक्ति को दबाने का आधार है तो फिर अपने पहले कार्यकाल में चीनी राष्ट्रपति के बेहद नज़दीक जाते हुए देश ने अपने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी देखा है। गुजरात में झूला झूलते (2016) हुए और महाबलीपुरम (2019) में उनके टूरिस्ट गाइड हमारे प्रधानमंत्री ही थे। प्रधानमंत्री ने दक्षिण भारतीय वेशभूषा वेष्टि धारण की थी और चैन्नई से महाबलीपुरम तक बड़े-बड़े पोस्टर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव शी जिनपिंग के थे। देश को उम्मीद थी कि हमारे लोकप्रिय और काबिल प्रधानमंत्री 1962 के युद्ध की तकलीफ़ और विभीषिका को धो देंगे लेकिन चीन धोखेबाज़ निकला। भारत की बेहतरीन मेज़बानी के बावजूद उसने गालवान घाटी में हमारे सैनिकों पर हमला किया। कूटनीतिक रिश्तों में ऐसे मंज़र आते हैं लेकिन देश ने कभी कटघरे में खड़ा करते हुए यह नहीं कहा कि चीन को समझने में आप से भूल क्यों हुई? जबकि देश पहले भी धोखा खा चुका है। अब चीन के नाम पर पत्रकारों को डराया जा रहा है।
ये सभी वे पत्रकार हैं जो सरकार से सवाल करते हैं। न्यूज़ पोर्टल और पत्रकारों पर दिल्ली पुलिस ने यूएपीए के तहत मुकदमा दज़र् किया है जिसमें ज़मानत लगभग नामुमकिन है। न्यूज़ क्लिक पर एफआईआर जो एक पुलिस इंस्पेक्टर की ही है, उसमें आरोप है कि यह कश्मीर को भारत के नक़्शे से मिटाना चाहते हैं, चीन से पैसे लेते हैं, भारत की एकता और अखंडता को ख़त्म करना चाहते हैं और अरुणाचल प्रदेश को विवादित क्षेत्र बताना चाहते हैं। न्यूज़ क्लिक ने इन आरोपों से इंकार करते हुए कहा है कि सारी फंडिंग बैंकों के ज़रिये हुई है लेकिन जिस आधार पर हमसे पूछताछ हुई है उसका आधार दिल्ली दंगे और किसान आंदोलन है जिससे मंतव्य समझा जा सकता है। हमें कोर्ट और न्यायिक प्रक्रिया पर पूरा भरोसा है।
ये सभी अनुभवी पत्रकार हैं जो कभी प्रभावी मीडिया चैनलों का हिस्सा रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश ने आपातकाल में भी अपनी आवाज़ बुलंद की थी। भाषा सिंह, परंजॉय गुहा ठाकुरता, अनिंद्यो चक्रवर्ती भी मुखर पत्रकारिता करते आए हैं। अब पत्रकार यह मानने लगे हैं कि उन पर दबाव का सिलसिला और बढ़ने वाला है। सत्ता आधी रात को जगा कर उनके फ़ोन, लैपटॉप जब्त कर सकती है। एक डरी हुई सरकार ने भी आपातकाल लगाकर पत्रकारों को जेल में डाला था। तानाशाह को आज़ाद आवाज़ें पसंद नहीं आतीं। पता नहीं कैसे संत कबीर लिख पाए और महात्मा गांधी ने स्वराज ला दिया। महात्मा गांधी 'यंग इंडिया', 'नवजीवन' में गोरी सत्ता के ख़िलाफ़ लगातार लिखते रहे। आज प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में हम 180 देशों के बीच 161 वें स्थान पर हैं। केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन उत्तर प्रदेश में 27 महीनों की जेल काटकर ज़मानत पर इसी साल छूटे हैं। उन्हें भी यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था, मानों वे कोई आतंकवादी हों। वे दलित लड़की के साथ हुए बलात्कार केस की रिपोर्टिंग के सिलसिले में हाथरस गए थे। जेल में उन्हें दो बार कोविड हुआ और जब अस्पताल में दाख़िल कराया गया तब स्टाफ के एक अधिकारी ने कहा कि 'यह आतंकवादी है'। पांच दिनों तक उन्हें टॉयलेट जाने से रोका गया और हाथों को हथकड़ियों से बांधकर इलाज किया गया।
मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगकेम को देशद्रोह के आरोप में सलाखों के पीछे डाल दिया गया था। अपराध था मणिपुर सरकार की आलोचना। तब भी मुख्यमंत्री बिरेन सिंह मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री थे। पत्रकार का गुनाह यह था कि राज्य में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जन्मोत्सव को मनाए जाने के खिलाफ पोस्ट लिखी थी। दो छोटे बच्चों की मां और पत्रकार किशोर की पत्नी रंजीता ने यह लड़ाई लड़ी और बमुश्किल पति के लिए ज़मानत हासिल की।
साल 2019 में ही उत्तर प्रदेश में मिड डे मील में नमक-रोटी परोसे जाने को लेकर पत्रकार पवन जायसवाल के ख़िलाफ़ मुकदमा दर्ज किया गया। यह मिज़ार्पुर की घटना थी। प्रेस कॉउंसिल के दखल के बाद पुलिस ने पत्रकार का नाम हटा दिया लेकिन बाद में इस युवा पत्रकार की कैंसर से मौत हो गई। बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री 'इंडिया : द मोदी क्वेश्चन' से भी सरकार खासी ख़फ़ा रही। आयकर विभाग की कार्रवाई दंडित करने की मंशा से हुई। इसे 'भ्रष्ट और बकवास कॉरपोरेशन' भी कहा गया।
अमेरिकी चिंतक और आलोचक नॉम चोम्स्की ने कहा है कि जिनसे हम नफ़रत भी करते हैं और उनकी अभिव्यक्ति की आज़ादी में यकीन नहीं करते तो यकीनन हम अभिव्यक्ति की आज़ादी में भी यकीन नहीं करते। मशहूर दार्शनिक वाल्तेयर भी कह गए हैं कि हो सकता है मैं आपके विचारों से सहमत ना हो पाऊं लेकिन विचार प्रकट करने के आपके अधिकारों की रक्षा करुंगा। बेशक यह हमारा बुनियादी संवैधानिक हक़ है जिसे इन दिनों छीना जा रहा है। एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने इन गिरफ़्तारियों का विरोध किया है।
देश में पत्रकारों के 16 संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ से गुहार लगाई है कि आप ही हमारी अंतिम उम्मीद हैं और एक एसओएस संदेश दिया है 'सेव अवर सोल', यानी हमारी आत्मा की रक्षा कीजिये! अच्छी बात यह है कि पत्रकारों का हौसला अब भी बना हुआ है। वे गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता की इन पंक्तियों से भी प्रेरणा लेते हैं-
अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे।
तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)