• तबाही का रक्स

    एक टीवी एंकर ने युद्ध का कवरेज करते हुए रैपर स्टाइल में नाचते हुए खबर क्या पेश कर दी, देश के बुद्धिजीवियों के पेट में दर्द होने लगा, माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं कि ये देश कहां पहुंच गया है।

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    अगर वोट और टीआरपी की गारंटी न हो तो भूखी जनता तक न नेता पहुंचना चाहते हैं, न रिपोर्टर। इस भूखी, लाचार जनता की दो-चार क्लिपिंग और बाइट लेकर मानवीय रिपोर्ट तैयार हो सकती है। लेकिन ये तो गुजरे जमाने की पत्रकारिता हो गई। आज के दौर में पत्रकारिता को तड़के की जरूरत है, जो इसी तरह नाच-गाने से लगता है। और देश में नाचने-गाने के लिए न मौकों की कमी है, न जगह की।

    एक टीवी एंकर ने युद्ध का कवरेज करते हुए रैपर स्टाइल में नाचते हुए खबर क्या पेश कर दी, देश के बुद्धिजीवियों के पेट में दर्द होने लगा, माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं कि ये देश कहां पहुंच गया है। अब ये तय करना मुश्किल है कि इन लोगों को तकलीफ किस बात से थी। क्या एक पत्रकार को युद्धक्षेत्र में पहुंचकर तबाही का लाइव शो देखने मिला और वो सब यहीं दूर बैठे टैंक और बंदूकें देखते रहे, इस बात की उन्हें तकलीफ थी, या फिर ये कि जैसा कवरेज दूसरे देश की तबाही पर जाकर किया जा रहा है, वही काम अपने देश में क्यों नहीं किया जा सकता। माना कि यूक्रेन और रूस के बीच जंग को दो महीने हो रहे हैं। लाशों के ढेर, बारूद के धमाके और बसे-बसाए शहरों को उजाड़ने की कहानी 21वीं सदी के पन्नों पर लिखी जा चुकी है। यूक्रेन पर दुनिया की निगाहें हैं, रूस पर वैश्विक नेता लानतें भेज रहे हैं, मगर पुतिन फिर भी झुक नहीं रहे हैं। लेकिन अपने देश में क्या तबाही कम है। यहां कोई घोषित युद्ध नहीं चल रहा है, लेकिन चाणक्य ने ये कब कहा है कि सारे काम घोषणा करके ही होने चाहिए।

    राजसत्ता में तो बहुत से काम चुपके-चुपके ही होते हैं। जैसे चाणक्य ने अर्थशास्त्र में राज करने के जो नुस्खे बताए थे, उसमें से एक था कि राजा किसी प्रधान देवता को बकरे के खून से नहला दे, फिर राज्य के विनाश का भय दिखाए। अब हिंदुस्तान में तो 33 करोड़ देवी-देवता हैं, फिर भी हिंदुत्व के विनाश का भय लोगों को दिखाया जा चुका है। प्रधान देवता कौन है, इसके झगड़े में पड़े बिना हम तो ये देखें कि धर्म को निर्दोष के खून से नहलाया जा चुका है और अब धर्म के नाश का डर दिखा-दिखाकर तबाही मचाई जा रही है।
    घोषणा किए बिना ही देश का नाम हिंदू राष्ट्र के तौर पर दर्ज करने की तैयारी हो चुकी है। और तबाही के इतने माकूल न•ाारे को छोड़कर कमबख्त रिपोर्टर यूक्रेन की गलियों में नाचते हुए खबरें परोस रही है। नाचने की जगह हिंदुस्तान में भी बहुत सारी है और यहां जितने रियलटी शो होते हैं, उनसे पता चलता है कि देश में टैलेंट की कितनी कद्र है। मान लिया कि यहां प्रतियोगिता बहुत है, कोई टीवी एंकर फैंसी ड्रेस वाला स्पेस सूट पहनकर, फिटिंग के लिए सेफ्टीपिन लगाकर अंतरिक्ष प्रोग्राम की रिपोर्टिंग करता है, किसी को उछलते-कूदते योग गुरु का इंटरव्यू लेने का चस्का रहता है, चुनावों के वक्त तो चाय की गुमटियों, इडली-दोसे की दुकानों और चाट-पकौड़ियों के चटखारे लेकर एंकर इस तरह ग्राउंड रिपोर्टिंग करते हैं, मानो चुनाव खाए-पिए-अघाए लोगों का ही खेल है। वैसे ये बात काफी हद तक सही भी है। अगर वोट और टीआरपी की गारंटी न हो तो भूखी जनता तक न नेता पहुंचना चाहते हैं, न रिपोर्टर। इस भूखी, लाचार जनता की दो-चार क्लिपिंग और बाइट लेकर मानवीय रिपोर्ट तैयार हो सकती है। लेकिन ये तो गुजरे जमाने की पत्रकारिता हो गई। आज के दौर में पत्रकारिता को तड़के की जरूरत है, जो इसी तरह नाच-गाने से लगता है। और देश में नाचने-गाने के लिए न मौकों की कमी है, न जगह की।


    दिल्ली के जहांगीरपुरी को ही देख लें। वहां बुलडोजरों के बीच नाचते-कूदते रिपोर्टर कितने अच्छे से सारा वाकया बयां करेंगे। किसी गरीब महिला के आंख से गिरते आंसू पर कोई शायरी जड़ दी जाए, किसी टूटे मकान के मलबे को अपने जूतों से रौंदकर कानून का वास्ता दिया जाए, तो क्या बढ़िया रिपोर्ट तैयार होगी। एक पत्रकार महोदया तो वहां इसी अंदाज में पहुंच भी गई थीं। बुलडोजर के सामने बुलडोजर जैसी बुलंद आवाज में वो जनता को बता रही थीं कि अवैध निर्माण टूट कर रहेगा। इतने में पीड़ित जनता के बीच से किसी ने कह दिया कि हम हिंदू हैं। अब ये तो स्क्रिप्ट में था नहीं कि कोई हिंदू भी बुलडोजर की जद में आ जाएगा, लिहाजा एंकर महोदया को कोई जवाब सूझा नहीं और वो, यहां से जाना पड़ेगा, कहती हुई निकल गईं। हिंदू-मुस्लिम और बुलडोजर का रक़्स, हिंदू हैं वाली लाइन से बिगड़ गया। जहां धर्मोन्माद के सुर सजाए जा रहे हों, वहां पीड़ा के इन सुरों में एक सुर मेरा भी मिला लो, वाली ताल नहीं देनी चाहिए। खैर एक एंकर ने शुरुआत कर दी है, तो अब बहुत से नट-नटनियों का जमावड़ा जहांगीरपुरी में देखने मिलेगा।


    तबाही में नाचने के लिए इस तरह के बहुत से आंगन बचे हुए हैं। हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव हैं, उसके पहले विनाश और भय के मंच वहां भी सजेंगे। इधर कानपुर में साध्वी ऋतंभरा ने देश की सभी हिंदू महिलाओं से चार-चार बच्चे पैदा करने का आह्वान करते हुए कहा है कि इनमें से दो बच्चे राष्ट्र को समर्पित कर दिए जाएं। उन्होंने ऐलान भी कर दिया है कि भारत जल्द ही 'हिंदू राष्ट्र' बन जाएगा। जब चार बच्चों में से दो राष्ट्र के नाम समर्पित हो जाएंगे, तो क्यों न दो को तबाही में नृत्य के लिए प्रशिक्षित किया जाए। दो बच्चे तबाही का मंच सजाएंगे, दो उस पर चढ़कर नृत्य करते हुए दुनिया को रिपोर्टिंग का नमूना दिखाएंगे। लोकतंत्र के तीन स्तंभों और उनके साथ मीडिया के बाद अब देश को संभालने वाले नए चार स्तंभ बन जाएंगे। एक नए किस्म के चौकीदार दुनिया को देखने मिलेंगे। हमारे साहब को चौकीदार कहलाने का बड़ा चाव है। वैसे उन्हें ये तो पता होगा कि चौकीदार शब्द भी गंगा-जमुनी संस्कृति की ही देन है। संस्कृत का शब्द है 'चतुष्क' जिसका अर्थ है जिस के चार अंग हों।

    प्राकृत में चतुष्क बदल कर 'चौक ' बन गया। गांव या नगर का केंद्र जहां चार रास्ते मिलते हैं, चौक कहलाने लगा। चौक पर निगरानी करने के लिए सिपाहियों का स्थान निर्धारित होने लगा, इस स्थान को 'चौकी' कहने लगे। और 'दार' फारसी भाषा का प्रत्यय है, जो कि कर्ता का सूचक है। तो चौकीदार का अर्थ हुआ चौकी पर पहरा देने वाला, चौकसी करने वाला। अब हिंदुत्व की चारों दिशाओं से रक्षा के लिए नए किस्म के चौकीदार खड़े करने का आह्वान साधु-साध्वी कर रहे हैं। उनकी आवा•ा को सत्ता का लाउडस्पीकर मिल गया है। दो बच्चे हिंदुत्व के लिए और दो तबाही के नृत्य के लिए तैयार होंगे। इस तरह तांडव की नयी परिभाषा लिखवाने का श्रेय भी आज के हिंदू हृदय सम्राट को चला जाएगा। वैसे भी वे इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने के लिए सारे प्रयत्न कर ही चुके हैं, एक और सही।


    झूम-झूम के नाचो आज, गाओ तबाही के गीत रे, अब इस पैरोडी पर देश को डिस्को कराना होगा। तमाम राष्ट्रवादी कलाकारों को इस महती कार्य में अपना योगदान देने के लिए आगे आना चाहिए। पुराने भारत में मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा, गाते थे। उस वक्त के बहुत से चेहरे सत्ता की आभा में अब भी चमक रहे हैं। अब वे सब अपने आभामंडल से देश की बर्बादी की चमक दुनिया के सामने दिखाएं। बसंती को अब नाचने से कोई मना नहीं करेगा।

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