कांग्रेस का आज जो भी हश्र है, लेकिन ये बात किसी के मिटाए से नहीं मिट सकती कि कांग्रेस महज एक राजनैतिक दल का नहीं विचारधारा का नाम है। गुलाम भारत में गठित कांग्रेस गुलामी और आजादी के विभिन्न पड़ावों को पार करते हुए बनी है, बढ़ी है, मजबूत हुई है, संगठित हुई है। कांग्रेस की असली ताकत इस देश की जनता रही है।
प्रशांत किशोर ने कांग्रेस में शामिल होने से इन्कार कर दिया है। बात बनते-बनते बिगड़ गई। कई बार चट मंगनी और पट ब्याह के उदाहरण देखने मिलते हैं, और ऐसे रिश्ते काफी फलते-फूलते भी हैं। लेकिन पीके और कांग्रेस के बीच तो देखने-दिखाने का दौर ही चलता रहा। बात पक्की होती, रिश्ता आगे बढ़ता, इससे पहले शर्तों और मांगों के कारण बात आगे नहीं बढ़ पाई। अच्छा है कि बाद में घर उजड़ता, उससे पहले गुण-दोष देख लिए गए। वैसे भी रिश्ते प्यार और भरोसे से चलते हैं, शर्तों से नहीं।
प्रशांत किशोर चतुर हैं, ये तो पिछले आठ सालों में कई बार जाहिर हो चुका है। उन्हें पता था कि जिस तरह बाकी दलों को उन्होंने अपनी तथाकथित रणनीतियों से चला लिया, उस तरह वो कांग्रेस को नहीं चला पाएंगे। इसलिए नेपोलियन बनने के मोह में पड़े बिना प्रशांत किशोर आए, उन्होंने देखा और अपने पैर पीछे खींच लिए। अब राजनैतिक विश्लेषक प्रशांत किशोर और कांग्रेस के पनपते रिश्तों के बिखरने के पीछे कारणों को खंगालने में लगे हैं।
किसी का तर्क है कि तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) और इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी (आईपैक) के बीच करार के कारण कांग्रेस से पीके की बात नहीं बन पाई। तेलंगाना विधानसभा चुनावों में टीआरएस प्रशांत किशोर की आईपैक की सेवाएं लेगी, जबकि कांग्रेस टीआरएस के मुकाबिल खड़ी होगी। हालांकि पिछले साल ही प्रशांत किशोर ने आधिकारिक तौर पर खुद को इस कंपनी से अलग कर लिया था। लेकिन पिछले साल तो उन्होंने ये भी कहा था कि अब वे चुनावी रणनीतिकार का काम नहीं करेंगे।
इसलिए इस बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि पीके आईपैक से सीधे तौर पर जुड़े हैं या नहीं। वैसे भी अब चुनाव कोई धर्मयुद्ध की तरह तो लड़े नहीं जाते हैं, जहां भीष्म पितामह पांडवों को जीत का आशीर्वाद दें और खुद कौरवों की सेना संभालें। पीके और कांग्रेस के बीच करार न होने का एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि वह काम करने की खुली छूट चाहते थे। यानी कांग्रेस के नेताओं का कोई हस्तक्षेप उनकी नीतियों और योजनाओं में न हो। क्योंकि इससे पहले 2017 के उत्तरप्रदेश चुनावों में जब कांग्रेस ने पीके की सेवाएं ली थीं, तब कांग्रेस को बुरी हार मिली थी और इसका कारण यही बताया गया कि पीके की कार्ययोजना को आधे-अधूरे ढंग से लागू किया गया।
ऐसे में पीके और उनकी कंपनी पर ही हार का बट्टा लग गया। जबकि इससे पहले और इसके बाद, के चुनावों में पीके ने जिस पार्टी का साथ दिया, उसे जीत ही हासिल हुई है। उप्र चुनावों के नतीजों से यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि कांग्रेस किसी बाहरी व्यक्ति के सहारे चुनाव लड़े, यह बात मतदाताओं को नागवार गुजरी और इसलिए उसे हार का जनादेश मिला। मगर न जाने क्यों कांग्रेस जलने के इस अनुभव के बाद भी फूंक-फूंक कर कदम नहीं रख रही है। पीके और कांग्रेस के बीच बात न बनने का एक अहम कारण और बताया जा रहा है और वो ये कि पीके राहुल गांधी को कांग्रेस में दरकिनार करना चाहते थे। वैसे भी उनकी मुलाकात सीधे सोनिया गांधी से हो रही थी और राहुल गांधी के बारे में अतीत में उन्होंने जो विचार व्यक्तकिए हैं, वो उत्साहजनक नहीं हैं। अब राहुल गांधी कांग्रेस में महज एक सदस्य के तौर पर रहें, या चुनावी रणनीतियों का हिस्सा न बनें या हाशिए पर रहकर मूकदर्शक बने रहें, यह तो हो नहीं सकता।
पिछले कुछ सालों में राहुल गांधी ने ही कांग्रेस का मोर्चा संभाला हुआ है, फिर चाहे वह पद पर रहें हो या न रहे हों। उनके नेतृत्व में जीत भी मिली, हार भी मिली। लेकिन राहुल गांधी के हार वाले पक्ष की ही चर्चा अधिक हुई। और अब अगर पीके वाकई ये चाह रहे थे कि राहुल गांधी की जगह उन्हें तवज्जो मिले, तो फिर ये विचार का विषय है कि ये सब किसके इशारे पर और क्यों हो रहा है।
वैसे भी भारतीय राजनीति के आकाश में प्रशांत किशोर किसी धूमकेतू ही तरह ही प्रकट हुए हैं। इंजीनियरिंग और जनस्वास्थ्य में डिग्रियां लेने वाले प्रशांत किशोर ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ के तौर पर काम किया, उनकी नियुक्ति आंध्र प्रदेश में हुई, फिर बिहार में पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम के लिए वे नियुक्त किए गए। उसके बाद संरा मुख्यालय में कुछ वक्त तक काम किया। फिर उन्हें अफ्रीकी देश चाड में डिवीजन हेड के रूप में भेजा गया। वहां उन्होंने 4 साल तक काम किया। उसके बाद उन्होंने भारत के समृद्ध उच्च विकास वाले राज्यों में कुपोषण पर एक शोध पत्र लिखा। इसमें महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक राज्यों में कुपोषण की स्थिति पर लिखा। इन राज्यों में गुजरात सबसे नीचे था।
बताया जाता है कि इसे पढ़कर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रशांत किशोर को अपने साथ गुजरात के लिए काम करने को आमंत्रित किया। मई 2014 के आम चुनाव की तैयारी के लिए पीके ने एक मीडिया और प्रचार कंपनी, सिटीजन्स फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस का निर्माण किया। चाय पे चर्चा, 3 डी रैली, रन फॉर यूनिटी जैसे कार्यक्रम चुनाव प्रचार के लिए बनाए। और इस तरह मोदीजी को अच्छे दिनों का सूत्रधार बनाकर भाजपा को भारी बहुमत दिलाया। इसके बाद पंजाब में पीके कैप्टन अमरिंदर सिंह के सिपहसालार बने और दो बार तक लगातार सत्ता से बाहर रही कांग्रेस को जीत दिलाई।
फिर आंध्रप्रदेश में वायएसआर कांग्रेस, बिहार में जदयू, प.बंगाल में टीएमसी, हर जगह प्रशांत किशोर का मिडास टच दिखाई देने लगा। तो क्या हर चमकती चीज को सोना ही मान लेना चाहिए। कम से कम भारत की राजनीति में तो इस वक्त यही नजर आ रहा है। पीके जिसके साथ हो जाएं, उसे जीत की गारंटी मिल जाती है। फिर क्यों 2014 के बाद से देश में मोदी लहर की बात हो रही है, ऐसा क्यों नहीं कहते कि पीके की लहर चल रही है। अगर देश की सबसे बड़ी पार्टी यानी बीजेपी से लेकर सबसे पुरानी पार्टी यानी कांग्रेस तक को चुनाव जीतने के लिए विचारधारा, नीतियों, प्रशासन, प्रबंधन, कार्यकर्ताओं और सबसे बढ़कर समर्थकों के बावजूद चुनावी रणनीतिकार की जरूरत पड़ रही है, तो फिर पीके के हाथ में ही लोकतांत्रिक राजनीति का बटन देने की औपचारिक घोषणा क्यों नहीं कर दी जाती। सभी दल अपनी बागडोर खुलकर पीके को देने का ऐलान कर दें और जनता को बता दें कि उनमें से किसी में अपने बूते चुनाव लड़ने की ईमानदार नीयत बाकी नहीं रह गई है। पीके जिसे चाहेंगे, जिताएंगे, जिसे चाहेंगे हराएंगे। और पीके भी तो महज एक नाम है, चेहरा है, क्या इस नाम और चेहरे के पीछे किसी अन्य की रणनीतियां काम कर रही हैं।
भारतीय मतदाताओं को इस बारे में विचार करना चाहिए कि सवा सौ अरब की आबादी को अपने मुताबिक चला सके, इतनी ताकत किसी एक व्यक्ति में कैसे आ गई और वो भी उस व्यक्ति में जिसकी कोई राजनैतिक पृष्ठभूमि नहीं रही, कोई जनाधार नहीं रहा, जिसने खुद कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, वो आठ-दस सालों में इतना शक्तिशाली हो गया कि 70 साल के भारतीय लोकतंत्र को अपने हिसाब से चलाने लगा। एक व्यक्ति को इतनी शक्ति कहां से मिल रही है, इन सवालों पर समय रहते विचार होना चाहिए।
कांग्रेस का आज जो भी हश्र है, लेकिन ये बात किसी के मिटाए से नहीं मिट सकती कि कांग्रेस महज एक राजनैतिक दल का नहीं विचारधारा का नाम है। गुलाम भारत में गठित कांग्रेस गुलामी और आजादी के विभिन्न पड़ावों को पार करते हुए बनी है, बढ़ी है, मजबूत हुई है, संगठित हुई है। कांग्रेस की असली ताकत इस देश की जनता रही है। क्या इस देश की जनता को कोई चुनावी रणनीतिकार चलाएगा, ये सवाल कांग्रेस नेताओं को खुद से पूछना चाहिए।