• शक्तिशाली जर्मन अर्थव्यवस्था में गिरावट के संकेत

    अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार जर्मनी 2024 में 4.7 खरब डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद के साथ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है

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    - डॉ.अजीत रानाडे

    यह भी कहा जा सकता है कि यह 'पेबैक टाइम' था। जर्मनी ने 1999 से यूरो मुद्रा एकीकरण के लाभ उठाए थे। चूंकि पूर्ववर्ती जर्मन मुद्रा, यूरो शासन में बहुत मजबूत थी, जर्मनी के पास वास्तव में कम मूल्य वाली मुद्रा थी। इससे निर्यात में बेहद मदद मिली और कोई आश्चर्य नहीं कि यह एक बड़े व्यापार अधिशेष के साथ एक पॉवर हाऊस बन गया।

    अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार जर्मनी 2024 में 4.7 खरब डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद के साथ दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इसकी आबादी करीब 8 करोड़ 40 लाख है। चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जापान है जो 4.07 लाख करोड़ डॉलर की है और जिसकी आबादी 12.4 करोड़ है। भारत 3.9 लाख करोड़ डॉलर और 1.4 अरब लोगों के साथ पांचवें स्थान पर है। जापान की जनसंख्या हर साल आधा प्रतिशत घट रही है जबकि जर्मनी की जनसंख्या पिछले कुछ वर्षों से लगभग 0.8 से 1 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है। यह मुख्य रूप से अप्रवासियों की आमद के कारण है। यूक्रेन, अफ्रीका या सीरिया में चल रहे संघर्ष के कारण वहां से नागरिक पलायन कर रहे हैं पर दुनिया की शीर्ष पांच अर्थव्यवस्थाओं (डॉलर के संदर्भ में) में पांच साल पहले के स्तर की तुलना में केवल जर्मनी स्थिर दिखाई देता है। संयुक्त राज्य अमेरिका की अर्थव्यवस्था पूर्व-महामारी के स्तर से केवल 10 फीसदी बढ़ी है। यहां तक कि जापान की 3,चीन 25 और भारत की 30 फीसदी बढ़ी है। जर्मनी की वृद्धि शून्य के करीब है और 2024 और 2025 में इसकी अर्थव्यवस्था और सिकुड़ जाएगी। यह दो साल की मंदी है।

    यह तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और दुनिया के लिए एक बड़ी भू-राजनीतिक शक्ति की कहानी है। जर्मनी पर इसका पहले से ही राजनीतिक प्रभाव पड़ा है। चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़ के नेतृत्व वाली सरकार गिर गई है। यह सरकार पिछले महीने संसद से विश्वास मत प्राप्त करने में विफल रही। इसका मतलब है कि वहां सितंबर में निर्धारित चुनाव के बजाय फरवरी में समय से पहले चुनाव होंगे। एक महीने पहले तीन दलों के सत्तारूढ़ गठबंधन के ध्वस्त होने के बाद विश्वास मत न मिलना अपरिहार्य था। यह गोलमाल इसलिए था क्योंकि गठबंधन के तीसरे सदस्य, व्यापार समर्थक दक्षिणपंथी एफडीपी ने अन्य दो, एसडीपी और ग्रीन पार्टी से अलग होने का फैसला किया। वैसे भी इनमें मतभेद था लेकिन आखिरी तिनका अल्ट्रा-राइट विंग और एंटी-इमिग्रेंट पार्टी एएफडी की बढ़ती लोकप्रियता थी। एएफडी को सैक्सोनी और थुरिंगिया प्रांतों में चुनावों में भारी बढ़त मिली। एएफडी दक्षिणपंथी, लोक-लुभावन, यूरोस्केप्टिक (ब्रिटेन और यूरोपीय देशों की नजदीकियों विरोधी), जलवायु परिवर्तन विरोधी कार्रवाई है और आव्रजन का विरोध करती है। यह 2013 में गठित एक युवा पार्टी है परन्तु इसका उदय बहुत तेजी से हुआ है। यह लोक-लुभावन राजनीति के उदय की वैश्विक प्रवृत्ति का हिस्सा है जो एक स्पष्ट ज़ेनोफोबिक मानसिकता (विदेशी लोगों को नापसंद करना) वाली पार्टी है।

    जर्मनी आर्थिक गिरावट की इस स्थिति में कैसे आया और क्या उसके पास दूसरों के लिए सबक है? सबसे पहले, चीन का प्रभाव है। वैसे इक्कीसवीं सदी में जर्मनी सबसे बड़ी निर्यात अर्थव्यवस्था थी जो चीन से भी आगे थी। दोनों देशों के बीच एक सहजीवी व्यापार संबंध था जिसके तहत जर्मनी उच्च मूल्य की पूंजीगत वस्तुओं, मशीनरी, ऑटोमोबाइल और रसायनों का निर्यात करता था और चीन बदले में उपभोक्ता वस्तुओं को वापस भेजता था, लेकिन चीन बाद में जर्मनी का प्रतियोगी बन गया और यहां तक कि जर्मन लक्जरी ब्रांड कारों का उत्पादन अब चीन में किया जाता है। दूसरे, यूरोप में 2011 के संप्रभु ऋ ण संकट का प्रभाव था। यह 2008 के लेहमैन संकट के बाद था। इस दूसरी लहर में एक मेगा बचाव के जरिए पुर्तगाल, आयरलैंड, इटली, स्पेन और विशेष रूप से ग्रीस की सरकारों को मुख्य रूप से जर्मनी की राजकोषीय और बैंकिंग शक्ति के नेतृत्व में बचाया गया था। बैंकिंग व्यवस्था के व्यापक पतन को रोकने के लिए यह बचाव आवश्यक था और यह इसलिए भी अधिक महत्वपूर्ण था क्योंकि जर्मन बैंक, दक्षिणी यूरोपीय देशों के संप्रभु ऋ ण से बहुत अधिक प्रभावित थे।

    यह भी कहा जा सकता है कि यह 'पेबैक टाइम' था। जर्मनी ने 1999 से यूरो मुद्रा एकीकरण के लाभ उठाए थे। चूंकि पूर्ववर्ती जर्मन मुद्रा, यूरो शासन में बहुत मजबूत थी, जर्मनी के पास वास्तव में कम मूल्य वाली मुद्रा थी। इससे निर्यात में बेहद मदद मिली और कोई आश्चर्य नहीं कि यह एक बड़े व्यापार अधिशेष के साथ एक पॉवर हाऊस बन गया। बदले में यह अधिशेष यूरोप में बैंकिंग परिसंपत्तियों में पूंजी का बाहर जाना था जो 2011 के ऋण संकट के दौरान कटु अनुभव देने वाला हो गया था। इसलिए जर्मनी को अन्य यूरोपीय सरकारों को इस हालत से बचाने के लिए अपने स्वयं के राजकोषीय संसाधनों को खर्च करना पड़ा। जर्मनी की दुर्दशा के पीछे तीसरा बड़ा कारण यूक्रेन युद्ध और उसका नतीजा था। नॉर्ड स्ट्रीम गैस पाइपलाइन के नष्ट होने के बाद सस्ती गैस के लिए रूस के साथ मधुर संबंध समाप्त हो गए हैं। इसके कारण ऊर्जा की लागत बढ़ रही है व जर्मनी में गैस की कमी भी हो रही है। चीन अपनी वस्तुओं की वैश्विक डंपिंग के लिए अग्रणी है जिसके कारण जर्मन निर्यात संभावनाएं कम हो रही हैं।

    यह संभव है कि विनिर्माण, निर्यात मात्रा के लिहाज से नहीं तो कम से कम मूल्य के लिहाज से पुनर्जीवित होगा लेकिन जर्मनी को दीर्घकालिक गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है जो उत्पादकता वृद्धि को नीचे की ओर गिराते हैं। आईएमएफ की एक शोध रिपोर्ट के अनुसार जर्मनी के लिए वास्तविक मुसीबतें इसकी उम्रदराज हो रही आबादी, इसके बहुत कम सार्वजनिक निवेश, लालफीताशाही और बिगड़ी नौकरशाही के कारण हैं। जर्मनी की कामकाजी उम्र की आबादी अगले पांच वर्षों में लगभग 1 प्रतिशत तक घट जाएगी जब तक कि इसे आप्रवासियों द्वारा बराबर नहीं किया जाता है हांलाकि एएफडी आप्रवासियों का कड़ा विरोध करता है। पिछले कुछ वर्षों में जीडीपी अनुपात में सार्वजनिक निवेश ओईसीडी और यूरोपीय देशों में सबसे कम है। यह आंशिक रूप से इस कारण से है क्योंकि संघीय सरकार एक सख्त राजकोषीय अनुशासन कानून से बंधी है तथा प्रांतीय तथा नगरपालिका सरकारें पर्याप्त निवेश नहीं कर रही हैं। फिर भी इससे उत्पादकता एवं विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

    अभी तक संयुक्त राज्य अमेरिका में जर्मन निर्यात मजबूत है लेकिन उस पर अब अमेरिका की निर्वाचित डोनाल्ड ट्रम्प सरकार से उच्च टैरिफ का जोखिम मंडरा रहा है। चीन की वैश्विक प्रतिस्पर्धा के कारण जर्मन सामानों के बाजार सिकुड़ रहे हैं। यहां तक कि वोक्सवैगन जर्मनी के भीतर तीन कारखानों को बंद कर रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब डिजिटल तकनीक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और सॉफ्टवेयर सेवाओं की बात आती है तो वहां जर्मनी पिछड़ जाता है। प्रसिद्ध जर्मन अर्थशास्त्री और स्तंभकार वोल्फगैंग मुंचू ने 'कपूट' नामक एक पुस्तक लिखी है जो कहती है कि विकास मॉडल मौलिक रूप से टूट गया है और यह जर्मन चमत्कार का अंत है। वे कहते हैं कि इसका कारण औद्योगिक व राजनीतिक अभिजात वर्ग द्वारा अपनाई गई व्यापारिक नीतियों में गिरावट, रूस तथा चीन पर अत्यधिक निर्भरता एवं नए क्षेत्रों और डिजिटल प्रौद्योगिकियों में नेतृत्व करने में विफलता है।

    यह वर्ष बढ़ी हुई अनिश्चितताओं वाला है। भावी राष्ट्रपति ट्रम्प की आर्थिक और व्यापारिक नीतियां अमेरिकी हितों के प्रति अधिक संरक्षणवादी होने के कारण देशों और व्यापारियों-सभी को चोट पहुंचा रही है? रूस युद्ध की लागत के भारी बोझ से कैसे बाहर आएगा? रूस में ब्याज दरें 21 प्रतिशत पर हैं और मुद्रास्फीति बढ़ रही है। क्या चीन अपनी मंदी को रोक पाएगा? यह भू-राजनीतिक व भू-आर्थिक परिदृश्य है जिसके खिलाफ जर्मन अर्थव्यवस्था को अपना लचीलापन दिखाना चाहिए। क्या गिरावट के बारे में निराशाजनक बातें अतिवादी हैं? केवल समय ही इस बारे में बताएगा।

    (लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। सिंडिकेट: द बिलियन प्रेस)

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