- डॉ. अरुण मित्रा
हिंदुओं की विचारधारा और प्रथाओं में बहुत विविधता है। उनमें प्रकृति पूजक, मूर्ति पूजक और बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो किसी भी दैवीय शक्ति में विश्वास नहीं करते हैं। लेकिन ये सभी कभी एक-दूसरे के विरोध में नहीं रहे, बल्कि सद्भाव से रहते थे। उन्होंने दूर-दूर से आने वाले लोगों के विचारों को भी आत्मसात किया और समय-समय पर खुद को समृद्ध किया।
हमारे देश में जहां विभिन्न मान्यताएं और परंपराएं एक साथ विद्यमान हैं, वहां तर्कसंगत सोच और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना बेहद जरूरी है। अंधविश्वास, अंध-प्रथाएं और रीति-रिवाज विकास के मार्ग में बाधा हैं।
वैज्ञानिक सोच केवल विज्ञान का ज्ञान नहीं है, बल्कि यह घटनाओं का विश्लेषण करने का एक तर्कसंगत तरीका है और यह गहरी समझ की खोज है। इसलिए किसी भी समाज को प्रगति के लिए विज्ञान के प्रति जिज्ञासु, समावेशी और आत्मसात करने वाला होना जरूरी है। हमारे देश के संविधान में 1976 में 42वें संशोधन में मौलिक कर्तव्यों के अंतर्गत वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जोड़ा गया था, जिसमें कहा गया था कि 'भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह अपने अंदर वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और जांच-पड़ताल तथा सुधार की भावना विकसित करे।
पिछले कुछ वर्षों में राज्य द्वारा एक ऐसा आख्यान गढ़ा जा रहा है, जिसमें सवाल करने या विश्लेषण करने की प्रवृत्ति नहीं, बल्कि अंधविश्वास में जीने की प्रवृत्ति विकसित की जा रही है। अगर आधिकारिक आंकड़ों पर विश्वास किया जाये, तो प्रयागराज में कुंभ मेले के दौरान 65 करोड़ से अधिक लोगों ने न केवल अत्यधिक प्रदूषित पानी में स्नान किया, बल्कि इसे पीया, बोतलों में भरा और दूसरों के लिए 'चरणामृत' के रूप में अपने साथ ले गये और अपने घरों और पड़ोस में लोगों को पिलाया। यह सब तब हुआ, जब सरकारी निकायों, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने चेतावनी दी थी कि यह पानी अत्यधिक प्रदूषित है और पीने की बात तो दूर, नहाने के लिए भी उपयुक्त नहीं है।
बिहार प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी इसी तरह की रिपोर्ट पेश की थी, जिसमें कहा गया था कि बिहार में गंगा नदी का पानी ज्यादातर जगहों पर नहाने के लिए अनुपयुकेत है। लेकिन इन चेतावनियों के बावजूद लोग आस्था और दिव्य लाभ के नाम पर मल-मूत्र से प्रदूषित जल को मजे से पीते रहे। इससे जहां गंगा की सफाई के सरकारी दावों की पोल खुल गयी, वहीं यह भी सामने आया कि सत्ता में बैठे लोगों द्वारा फैलाये गये मिथकीय और अवैज्ञानिक विचारों से हमारा समाज कितना प्रभावित है। यह चिंता का विषय है कि लोग इतने अविवेकी और मूर्ख कैसे हो सकते हैं।
यह जानना दिलचस्प है कि जब लोग कुंभ में डुबकी लगा रहे थे, तब महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के प्रमुख राज ठाकरे, जिनकी सामाजिक-राजनीतिक मान्यताएं जगजाहिर हैं, ने गंगा नदी की सफाई पर सवाल उठाये और नदी में डुबकी लगाने से इनकार कर दिया। ठाकरे ने लोगों से आग्रह किया, 'अंधविश्वास से बाहर निकलो और अपने दिमाग का सही इस्तेमाल करो।' उन्होंने प्रयागराज में हाल ही में संपन्न महाकुंभ से अपनी पार्टी के नेता बाला नंदगांवकर द्वारा लाये गये पवित्र जल को पीने से इनकार कर दिया।
मुझे कभी नहीं लगा कि हिंदू धर्म खतरे में है, क्योंकि यह सभी को शामिल करने वाला है और संवाद के जरिये आत्मसात करने के लिए तैयार है। लेकिन कुंभ मेले के बाद मुझे यह डर सताने लगा है कि हिंदू धर्म बहुत गहरे संकट में जा रहा है।
मानव सभ्यता जल निकायों के इर्द-गिर्द विकसित हुई है जो उनके लिए जीवन का स्रोत थे। इसलिए लोग कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के रूप में विभिन्न स्थानों पर जल निकायों को अलग-अलग रूपों में नमन करते थे। कुंभ मूल रूप से विभिन्न धर्मों के लोगों के लिए करुणा और त्याग का केंद्र था। भले ही समुद्र मंथन से संबंधित कुंभ का पौराणिक वर्णन है, लेकिन यह राजा हर्षवर्धन ही थे जिन्होंने नियमित रूप से त्रिवेणी में स्नान की प्रथा का आयोजन किया था। चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने इन आयोजनों का दस्तावेजीकरण किया और हर्षवर्धन की उदारता और भक्ति का वर्णन किया, जिन्होंने 606 से 647 ई. के बीच त्रिवेणी संगम पर हर पांच साल में एक बड़ी धार्मिक सभा का आयोजन किया जिसमें विभिन्न विचारों और धर्मों के लोग भाग लेते थे। उन्होंने गरीबों और धार्मिक संस्थानों को कपड़े और गहने सहित अपनी निजी संपत्ति दान कर दी। इस प्रकार यह आयोजन त्याग और करुणा का प्रतिबिंब था।
लेकिन इस बार राज्य द्वारा 'महाकुंभ' का इस्तेमाल अन्य धार्मिक समूहों, खास तौर पर मुसलमानों के खिलाफ़ मिथक और नफ़रत फैलाने के लिए किया गया है। कई मुसलमानों को कुंभ के दौरान अपनी दुकानें बंद करने के लिए कहा गया, जबकि ऐसी रिपोर्टें हैं कि उनमें से कई ने हिंदू तीर्थयात्रियों को जगह देने के लिए मस्जिदें खोलीं। इस प्रकार हिंदू दर्शन का सार जो वसुधैव कुटुंबकम और वैश्विक शांति की बात करता है, झूठा साबित हुआ है।
'हिंदू' शब्द मूल रूप से प्राचीन काल में यूनानियों और फारसियों द्वारा सिंधु नदी (सिंधु नदी) के पार की भूमि और लोगों को संदर्भित करता था। ऐसा कहा जाता है कि फारसी लोग 'स' का उच्चारण करने में असमर्थ थे, इसलिए उन्होंने इसे 'ह' के रूप में बोला। इस प्रकार 'हिंदू' शब्द सिंधु नदी के नाम 'सिंधु' का फारसीकृत संस्करण है। 'हिंदू धर्म' शब्द 19वीं शताब्दी में ही आम इस्तेमाल में आया, जिसका इस्तेमाल शुरू में बाहरी लोगों द्वारा हिंदुओं के 'वाद' का वर्णन करने के लिए किया गया और अंतत: हिंदुओं द्वारा खुद को मुसलमानों और अन्य लोगों से अलग करने के लिए किया गया। 'हिंदू धर्म' का इस्तेमाल करने वाले पहले भारतीय राजा राम मोहन राय हो सकते हैं जिन्होंने 1816-17 में इस पद को ग्रहण किया था। 1830 के आसपास, कुछ भारतीयों ने खुद को 'हिंदू' और 'हिंदू धर्म' को अपना धर्म कहना शुरू कर दिया।
डॉ. रितु खोसला ने राजा राम मोहन राय पर अपने लेख में इस बात पर जोर दिया है कि राजा राम मोहन राय यह साबित करना चाहते थे कि अंधविश्वास और अंधविश्वासी मान्यताओं और प्रथाओं का मूल हिंदू धर्म में कोई आधार नहीं है। राय के अनुसार, बिगड़ते राजनीतिक और सामाजिक परिवेश के लिए जिम्मेदार एक और कारक भारतीय समाज का सामाजिक पतन था। वह एक नये भारतीय समाज का निर्माण करना चाहते थे, जहां सहिष्णुता, सहानुभूति, तर्क , स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों का सम्मान किया जायेगा। (https://ebooks.inflibnet.ac.in/psp®|/chapter/raja-ram-mohan-roy-the-first-modern/)
हिंदुओं की विचारधारा और प्रथाओं में बहुत विविधता है। उनमें प्रकृति पूजक, मूर्ति पूजक और बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो किसी भी दैवीय शक्ति में विश्वास नहीं करते हैं। लेकिन ये सभी कभी एक-दूसरे के विरोध में नहीं रहे, बल्कि सद्भाव से रहते थे। उन्होंने दूर-दूर से आने वाले लोगों के विचारों को भी आत्मसात किया और समय-समय पर खुद को समृद्ध किया। इस प्रकार हिंदू धर्म एक मजबूत धर्म के रूप में विकसित हुआ, जो प्रेम और करुणा का उपदेश देता है और समावेशी है। लेकिन इसकी एक कमजोरी यह भी है कि समाज को नीची और ऊंची जातियों में बांट दिया गया है। इस आधार पर लगभग एक चौथाई आबादी को दबाया गया और बुनियादी मानवाधिकारों से भी वंचित रखा गया। लेकिन इस सारे उत्पीड़न के बावजूद, यह 25प्रतिशत आबादी हिंदू धर्म को ही मानती है, हालांकि उनमें से कुछ ने इस्लाम, ईसाई या बौद्ध जैसे अन्य धर्मों को अपना लिया है। डॉ. अंबेडकर ने भी अपने अंतिम दिनों में बौद्ध धर्म अपनाया था। लेकिन उनके सभी अनुयायी उनके साथ नहीं जुड़े।
सत्ता में बैठी सरकार द्वारा बार-बार अवैज्ञानिक आख्यान गढ़कर और उसे फैलाकर लोगों को मिथकों में उलझाये रखने का एक सूक्ष्म प्रयास किया जा रहा है। यह हिंदुओं की मानसिकता को मध्ययुगीन काल में धकेल देगा।
इस प्रकार हिंदू धर्म किसी बाहरी ताकत से नहीं बल्कि अंदर से उन ताकतों से खतरे में है जो लगातार रूढ़िवादी विचारों को फैलाते रहते हैं। अब समय आ गया है कि हम उनके मंसूबों को समझें और वैचारिक संघर्ष की योजना बनायें। आरएसएस, भाजपा सरकार और उनके अन्य संगठन जल्दबाजी में ऐसे रूढ़िवादी विचारों को लोगों के दिमाग में बैठाने और उन्हें तार्किक रूप से सोचने और अपने दिमाग का इस्तेमाल न करने के लिए मजबूर करने का काम कर रहे हैं। आरएसएस जो प्रचार कर रहा है वह हिंदू धर्म नहीं बल्कि कट्टरवाद, सांप्रदायिकता, अंधविश्वास, रूढ़िवाद,हिंसा और नफरत है। यह हिंदू धर्म नहीं बल्कि उसके मूल्यों और लोकाचार का खंडन है। उनके प्रचार को चुनौती देनी होगी, अन्यथा सबसे बड़ा नुकसान हिंदुओं को होगा।