- वर्षां भम्भाणी मिर्जा
हमारे उद्यमी इस दिशा में न बढ़ते हुए बिना जोख़िम के धंधों में लग गए हैं। देखा यही गया है कि भारतीय विदेश में नए इनोवेशन और नई कंपनियों के मालिक और साझेदार हैं लेकिन यही भारतीय उद्योगपति भारत में इंतज़ार में रहते हैं कि कब कोई नई तकनीक ईजाद हो और वे यहां उसे रेपलिकेट कर तुरंत मुनाफा बना सकें। आज जिस सर्विस को वे दे रहे हैं वह चीन पंद्रह साल पहले कर चुका है।
वाणिज्य और उद्योमंत्री पीयूष गोयल के भाषण के बाद उपजे बवाल को समझने के लिए शहरों में डिलीवरी सर्विसेस पर एक निगाह डालना ज़रूरी है। कुछ समय से जयपुर के कुछ हिस्सों में रहने वाले खुद को ऐसे नागरिक के रूप में देख रहे हैं जिनके क़दमों में हर चीज़ बस आठ से बीस मिनटों में हाज़िर रहने के लिए आतुर है।
'हुकुम करो आका' की तज़र् पर ये डिलीवरी बॉयज़ दौड़ते रहते हैं और हर ज़रूरत का सामान पहुंचा देते हैं। 43 डिग्री की तपती दोपहरी में सड़कों पर कोई नहीं हैं पर ये हैं। भारत के कई शहर यूं ही दौड़ रहे हैं। इस चाल में महामारी कोविड ने जान फूंकी थी लेकिन अब जो हो रहा है इसमें कीमतें बहुत कम हैं और कई बड़े प्लेयर मैदान में उतर आए हैं। केवल आठ मिनट में ज़रूरी सामान पहुंचाने की होड़ तो दो सालों से है लेकिन अब तो पूरा का पूरा राशन, उसे पकाने के लिए स्टोव, कुकर और इलेक्ट्रॉनिक सामान भी जल्दी पहुंचाने की ज़िद में है। जिनके पास धन है, वे फ़ोन में बंद जिन्न को आदेश देते हैं और वह चुटकी बजाते सब हाज़िर कर देता है।
सैकड़ों स्टार्टअप्स इन अमीरों की ज़रूरतों को पूरा करने में लगे हुए हैं। ऐसा लगता है जैसे चंद शहरी अमीरों की चाकरी में बड़ी तादाद में ग़रीब लग गए हैं क्योंकि भारत की आबादी में चंद अमीर भी ऑस्ट्रेलिया-न्यूज़ीलैंड की कुल आबादी के बराबर हैं। ऐसा पहले भी था, पर अब तो पढ़ा-लिखा युवा बेरोज़गार पूरी तरह इस कार्यबल के दलदल में खींचा जा चुका है। उसके पास कोई और काम नहीं, पूंजी नहीं। पहले-पहल तो थोड़े बढ़े दाम में किराना, फल-सब्जियां आदि घरों तक पहुंच रही थीं जिससे छोटे पंसारी, सब्जियों के ठेले वालों पर कुछ ख़ास असर नहीं डाला था, लेकिन अब तो ऐसे बड़े खिलाड़ी धंधे में कूद पड़े हैं जो अधिकांश सब्ज़ियां 36 रुपए किलो में दे रहे हैं और उस पर 399 रुपए के सामान पर एक किलो चीनी भी मुफ्त। जो पहले से मौजूद थे वे अब पचास से सौ रुपए कैश का लालच ग्राहकों को दे रहे हैं फिर चाहे कुल ख़रीद केवल दो सौ रुपए हो। इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के केंद्र में वह डिलीवरी बॉय है जो कभी युवा बेरोज़गार था और अब सस्ता मजदूर है। वही सड़कों पर दिन-रात दौड़ कर मुनाफ़े और ज़रूरत के बीच कीे ज़रूरी कड़ी बना हुआ है और वही सबसे कमज़ोर भी है।
एक डिलीवरी बॉय के साथ संवाद शायद उसकी तकलीफ़ को बयान कर सके-
- आपको आपका काम कैसा लगता है ?
00 मजबूरी है, इसलिए कर रहे हैं।
- पढ़ाई कहां तक की है?
00 इसी साल ग्रेजुएशन किया है।
- कितनी पगार है?
00 पगार कहां? नौ घंटे के छह सौ रुपए मिलते हैं। उसमें भी 200 रुपए का तो तेल जल जाता है, बाइक भी खुद की है। उसकी सर्विसिंग भी हमें ही करवानी पड़ती है। फ़ोन ख़ुद का हो तो ही काम मिलता है। बहुत कम समय में ज़्यादा डिलीवरी देने का दबाव होता है।'
लड़के का स्वर निराशा में डूबने लगता है। तब क्या भारत के स्टार्टअप प्रोजेक्ट्स की दुनिया इसी में सिमट गई है कि अमीर को चिप्स और ठंडी-ठंडी आइसक्रीम खिलाने के लिए ग़रीब युवा भरी गर्मी में सड़कों पर दौड़ता रहे। शायद इसी तस्वीर को समझते हुए और भारत के तमाम स्टार्टअप्स को इसी तरफ़ मुड़ते देख भारत के वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कह दिया है कि 'भारत में सिर्फ फूड डिलीवरी, इंस्टेंट ग्रॉसरी डिलीवरी या बेटिंग-गेमिंग के स्टार्टअप्स बन रहे हैं, जबकि चीन में एआई और ईवी के स्टार्टअप्स बन रहे हैं।' मंत्री ने उद्योगपतियों का नाम लेकर उन्हें आड़े हाथों लेते हुए कहा-'वे ऐसे अरबपतियों को जानते हैं, जिनके बच्चों ने बहुत फैंसी आइसक्रीम और कुकीज के ब्रांड बनाए और वे सफल कारोबार चला रहे हैं। उन्हें इससे दिक्कत नहीं है लेकिन क्या यही भारत का भविष्य है और क्या देश इससे संतुष्ट है?' तब क्या उद्योगपतियों के बहाने उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावों और नीतियों पर भी सवाल खड़ा कर दिया है?आखिर बीते दस सालों से स्टार्टअप्स की लगातार चर्चा करते हुए विकसित भारत का ज़िक्र कौन कर रहा था? प्रधानमंत्री ने कहा था- 'हमें नौकरी मांगने वालों को नौकरी देने वाला बनाना है। यही हमारे युवाओं की बड़ी ताकत है और हमारे स्टार्टअप्स की बड़ी शक्ति है।' क्या ऐसा हुआ? प्रधानमंत्री मोदी बार बार कहते रहे हैं कि भारत स्टार्टअप्स का कैपिटल है और दावा करते हैं कि भारत के कितने स्टार्टअप्स यूनिकॉर्न यानी सौ करोड़ डॉलर से ज्यादा का कारोबार करने वाले बन गए। लेकिन उनके इस दावे की रौशनी को मंद कर पीयूष गोयल ने भारत के स्टार्टअप्स की हकीकत बता कर क्या कोई बड़ा जोखिम ले लिया है?
लगता तो यही है। उद्योगपति तीखे तेवर दिखा रहे हैं। उनका तर्क है कि यह आसान नहीं है और हम लाखों बेरोज़गारों को काम दे रहे हैं। दरअसल यह केवल मंत्री का भाषण नहीं बल्कि बड़े सच से पर्दा उठाता अध्ययन है। ऐसे ही स्टार्टअप्स की उपलब्धियों को बड़ा बना कर भारत को विकसित बताए जाने के प्रयास किए जाते रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि हम अपने पड़ोसी चीन से कहीं ज़्यादा पिछड़ गए हैं। आज अमेरिका की नीतियों की वजह से दुनिया में जो निर्वात बना है उसे भारत भर सकता था, परन्तु भारत के उद्योगपति और संस्थान अंतररराष्ट्रीय स्तर के नतीजे नहीं दे पाते हैं और इसी ओर मंत्री पीयूष गोयल ने बीते सप्ताह स्टार्टअप महाकुंभ में इशारा किया और कहा- 'भारत में स्टार्टअप्स फूड डिलीवरी, फैंसी आइसक्रीम व कुकीज़, इंस्टेंट ग्रॉसरी डिलीवरी, बेटिंग व गेमिंग ऐप्स और रील्स व इन्फ्लूएंसर्स इकानॉमी बनाने में बिजी हैं।' उन्होंने भारत के स्टार्टअप की तुलना चीन से करते हुए कहा कि दूसरी ओर चीन में 'ईवी व बैटरी टेक्नोलॉजी, सेमीकंडक्टर, एआई रोबोटिक्स व ऑटोमेशन, ग्लोबल लॉजिस्टिक्स, ट्रेड व डीप टेक और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े स्टार्टअप्स शुरू हो गए हैं।'
हमारे उद्यमी इस दिशा में न बढ़ते हुए बिना जोख़िम के धंधों में लग गए हैं। देखा यही गया है कि भारतीय विदेश में नए इनोवेशन और नई कंपनियों के मालिक और साझेदार हैं लेकिन यही भारतीय उद्योगपति भारत में इंतज़ार में रहते हैं कि कब कोई नई तकनीक ईजाद हो और वे यहां उसे रेपलिकेट कर तुरंत मुनाफा बना सकें। आज जिस सर्विस को वे दे रहे हैं वह चीन पंद्रह साल पहले कर चुका है। ज़ाहिर है कि वे लीक पर चलना पसंद करते हैं। इस सोच और नीति ने बेरोज़गार युवाओं को सस्ते मजदूर में बदल दिया है । हम सोचते हैं कि भारत के आईटी सेक्टर में युवाओं के पास मोटी तनख्वाह वाला काम है लेकिन यह भी सर्विस सेक्टर की तरह ही है। थोड़े बेहतर मजदूर कह सकते हैं। नई सोच और रिसर्च का अभाव है।
भारत आईटी शोध में जीडीपी का केवल 0.64प्रतिशत खर्च करता है जबकि चीन 2.41 प्रतिशत और अमेरिका 3.47 प्रतिशत। चिंता की बात तो यह भी है कि चीन का निजी सेक्टर जहां 77 फ़ीसदी योगदान इसमें देता है भारत का केवल 36 फ़ीसदी। चीन ने शोध के लिए 496 बिलियन डॉलर खर्च किए जबकि भारत ने 24 मिलियन डॉलर का फण्ड बनाया। आश्चर्य किया जा सकता है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजन्स से जुड़े 70 फ़ीसदी पेटेंट चीन के होते हैं।
लगता तो यही है कि मंत्री पीयूष गोयल ने जैसे अलार्म बजा दिया है और उठकर काम करना है या सोते रहना है- यह निर्णय देश के नीति निर्धारकों को लेना है। स्टार्टअप्स को लेकर यही बात स्टैंडअप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने भी कही थी। इस तरह कामरा और मंत्री जी दोनों एक ही पाले में खड़े हैं। दोनों देश की आंख खोलना चाहते हैं लेकिन कामरा ने जहां से बात कही उस जगह को तोड़ दिया गया। उसके ख़िलाफ़ हर रोज़ नए पुलिस केस दज़र् हो रहे हैं। उसका शो देखने वालों को पुलिस द्वारा बुलाया जा रहा है। 'बुक माय शो' से उनके कार्यक्रमों की बुकिंग हटा दी गई है। क्या मंत्री जी की बात का कुछ असर होगा या आत्ममुग्धता और अहंकार का यह सिलसिला अब चुप रहने के लिए मजबूर करेगा? वे दस साल में भारत सरकार के नौ मंत्रालय संभाल चुके हैं और पहली बार मुंबई, उत्तर से लोकसभा चुनाव जीत कर आए हैं जो देश की व्यावसायिक राजधानी भी है।
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)