— बाबा मायाराम
जन स्वास्थ्य सहयोग के डॉक्टरों का मानना है कि बीमारी का संबंध कुपोषण से है। खाने की कमी से है। एक व्यक्ति के स्वास्थ्य और विकास के लिए संतुलित भोजन बहुत जरूरी है। पोषण का संबंध खेती से है। इसलिए स्वास्थ्य की स्थिति सुधारने के लिए कृषि कार्यक्रम चला रहे हैं।
छत्तीसगढ़ के एक छोटे कस्बे गनियारी में कांग, कोसरा, कुटकी और मड़िया की फसलें हवा में लहलहा रही हैं। कांग के हरे पौधे में सुनहरी लम्बी बालियां मोह रही हैं। कोसरा में मोतियों की तरह दाने हैं। मड़िया की बालियां किसी गुड़िया की चोटियों की तरह खड़ी हैं। लेकिन यह बारिश की फसल नहीं, गर्मी की फसल है। आज इस कॉलम में पौष्टिक अनाजों की चर्चा करें, जो पूरी तरह जैविक हैं, और सेहत के लिए भी अच्छे हैं।
हाल ही मैं यहां अप्रैल के पहले हफ्ते में गया था। यह जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था का खेत था। खेत में लहलहाती फसल को बहुत देर तक देखते ही रहा। हरे-भरे खेत थे और बालियां दानों से भरी थीं। जन स्वास्थ्य सहयोग संस्था वैसे तो स्वास्थ्य पर काम करती है, लेकिन सिर्फ इलाज ही नहीं, रोगों की रोकथाम पर ध्यान देती है।
इस संस्था में प्राय: जाता रहता हूं। एक तो यहां कम कीमत में अच्छा इलाज होता है, दूसरा यहां स्वास्थ्य को समग्रता से देखा जाता है। संस्था ने कृषि कार्यक्रम, पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम संचालित किया है। आयुर्वेद चिकित्सा से भी इलाज की व्यवस्था की है। यह सब मुझे प्रभावित करते हैं।
आगे बढ़ने से पहले संस्था के बारे संक्षिप्त में जानना उचित होगा। जन स्वास्थ्य सहयोग (जेएसएस) स्वास्थ्य पर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था है,जो यहां वर्ष 1999 से कार्यरत है। स्वास्थ्य की मौजूदा हालत से चिंतित होकर दिल्ली के कुछ मेधावी डाक्टरों ने इसकी शुरूआत की थी। जन स्वास्थ्य सहयोग केन्द्र, बिलासपुर से 20 किलोमीटर दूर गनियारी में स्थित है।
संस्था के कार्यकर्ता बताते हैं कि ग्रीष्मकाल में पौष्टिक अनाज की खेती का प्रयोग साल 2014-15 से चल रहा है। यह पूरी तरह जैविक है, रासायनिक खादों का बिल्कुल भी इस्तेमाल नहीं किया जाता है। पहले इन अनाजों का थरहा डाला जाता है, उसके बाद रोपाई के बाद निंदाई-गुड़ाई की जाती है। और फसल पक जाती हैं।
बिलासपुर जिले का यह इलाका अचानकमार के जंगल से लगा है। अन्य जातियों के अलावा गोंड और बैगा आदिवासी यहां के बाशिन्दे हैं। बैगाओं की पहचान उनकी बेंवर खेती (झूम खेती और अंग्रेजी में इसे शिफ्टिंग कल्टीवेशन कहते हैं) से होती है, जिसमें वे कई तरह के अनाज एक साथ होते थे। इसमें अनाज के साथ दालें भी होती थीं। यह खेती संतुलित व पर्याप्त भोजन देने में सक्षम थी।
जन स्वास्थ्य सहयोग के डॉक्टरों का मानना है कि बीमारी का संबंध कुपोषण से है। खाने की कमी से है। एक व्यक्ति के स्वास्थ्य और विकास के लिए संतुलित भोजन बहुत जरूरी है। पोषण का संबंध खेती से है। इसलिए स्वास्थ्य की स्थिति सुधारने के लिए कृषि कार्यक्रम चला रहे हैं।
इस कृषि कार्यक्रम के दो हिस्से हैं। एक तो जन स्वास्थ्य सहयोग की जमीन पर विविध देसी बीजों की फसलें उगाना, उनकी जानकारी एकत्र करना, उन्हें संरक्षित करना, देसी बीज और उनकी जानकारी किसानों तक पहुंचाना। और दूसरा, किसानों के साथ मिलकर उनको जैविक खेती से जोड़ना, खेती के वैकल्पिक प्रयोग करना, कार्यशालाओं, बैठकों और कृषि प्रदर्शनी के माध्यम से किसानों तक यह जानकारी पहुंचाना और उन्हें जैविक खेती के लिए प्रोत्साहित करना। खास बात यह है कि यहां जो भी फसलें उगाई जाती हैं, पूरी तरह बिना रासायनिक खाद के और जैविक तरीके से उगाई जाती हैं। मिट्टी-पानी के संरक्षण के साथ बोई जाती हैं।
जन स्वास्थ्य सहयोग का समृद्ध देसी बीज बैंक है। उसमें धान के 425, गेहूं 16, मड़िया ( रागी) की 6 और सेमी की 9 किस्में हैं। इसके अलावा, बैंगन, भिंडी, दलहन, तिलहन, अलसी, तिली, सेमी की देसी किस्में हैं। विविध धान किस्मों में महीन, सुगंधित, भूरी, हरी, काली और लाल चावल शामिल हैं। इनमें जल्दी पकने वाली और देर से पकने वाली किस्में शामिल हैं।
होमप्रकाश साहू कहते हैं इस साल खेत में प्रयोग किया और श्री पद्धति से बुआई की गई। इसमें बीज की मात्रा कम लगती है और खेत में पानी भरकर भी नहीं रखा जाता, जिससे पौधे को अच्छी हवा, प्रकाश और भरपूर ऊर्जा मिलती है और पैदावार अच्छी होती है। इस पद्धति को मेडागास्कर पद्धति के नाम से भी जाना जाता है। यह प्रयोग गर्मी में इसलिए किया गया क्योंकि बारिश में ज्यादा पानी में ये फसलें सड़ जाती हैं, इन्हें कम पानी की जरूरत है।
विशेषकर, यह पौष्टिक फसलें इसलिए भी उपयोगी है, क्योंकि छत्तीसगढ़ में अब गर्मी में धान की फसल लेने का प्रचलन शुरू हुआ है,जो ज्यादा पानी मांगती है। भूजल का अत्यधिक दोहन होता है। पानी की बर्बादी होती है। इससे भूजल लगातार नीचे जा रहा है। यह फसलें कम पानी वाली हैं और गर्मी के धान का बेहतर विकल्प हैं।
होमप्रकाश साहू आगे कहते हैं कि हमारे ये पौष्टिक अनाज लोगों को पोषणयुक्त भोजन देंगे, जो गर्मी में कम पानी में पक जाते हैं। इनमें सब्जी की तरह ही पानी चाहिए। धान की तरह खेतों में पानी भरकर रखने की जरूरत नहीं हैं। जंगल और ग्रामीण इलाकों में पोषण की बहुत कमी है। यह बहुत ही पौष्टिक फसलें हैं, इनमें लौह तत्व, कैल्शियम,रेशे सभी पोषक तत्व होते हैं। कई बीमारियों से बचाव करते हैं। अब तो डॉक्टर भी पौष्टिक अनाजों को खाने की सिफारिश करते हैं, खान-पान में विविधता सेहत के लिए अच्छी मानी जाती है।
कोटा विकासखंड के सरईपाली गांव के धामसिंह मरावी ने मड़िया की खेती की है। यहां मुझे संस्था के पशु स्वास्थ्य कार्यक्रम के महेश शर्मा लेकर गए थे। धामसिंह ने खेती के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने कहा कि हालांकि मड़िया रोपाई में थोड़ी देर हुई, पर फसल अच्छी है। अगले वर्ष इसका ख्याल रखा जाएगा। धामसिंह के खेत को मैंने भी देखा, इसकी रखवाली के लिए मचान बनाया गया है। मचान से पूरा खेत दिखता है, घर के बुजुर्ग खेतों की रखवाली करते हैं। इसी प्रकार, झींगटपुर के गिरधारीलाल पोरते ने भी मड़िया की खेती की है।
धामसिंह मरावी, संस्था के पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं, जो आसपास के गांवों के पशुओं का इलाज करते हैं। उन्होंने बताया कि पशुओं में कमी आ रही है, लेकिन संस्था के प्रयासों से पशुओं का इलाज किया जाता है। यह स्थायी आजीविका का अच्छा स्रोत है, और खेतों में गोबर की जैविक खाद से उर्वरता भी बढ़ती है। यह पारंपरिक खेती का जाना माना तरीका है।
छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा कहा जाता है। धान ही यहां की प्रमुख फसल है, जो बारिश की फसल है। लेकिन कम पानी में विविध पौष्टिक अनाज भी हो सकते हैं, यह जन स्वास्थ्य सहयोग के प्रयोग ने दिखाया है। जन स्वास्थ्य सहयोग की जैविक खेती का प्रयोग किसानों में आकर्षण का केन्द्र है। यहां किसान, सामाजिक कार्यकर्ता और ग्रामीण खेतों की फसलें देखने, देसी बीज लेने और कृषि विधियों की जानकारी लेने के लिए आते रहते हैं। कृषि प्रदर्शनी, अस्पताल के मुख्य द्वार पर प्राय: लगी रहती है, जहां बीज और उनकी जानकारी उपलब्ध होती है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि ऐसे ही प्रयोगों से मिट्टी पानी के संरक्षण वाली देसी खेती बचेगी, लुप्त हो रहे देसी बीज बचेंगे, छत्तीसगढ़ की कृषि संस्कृति बचेगी, खाद्य सुरक्षा होगी, जैव विविधता भी बचेगी और लोगों को भी पोषणयुक्त भोजन मिलेगा। लेकिन क्या हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे?