• नई पेंशन या नहीं पेंशन-हंगामा है यूं बरपा!

    हिमाचल प्रदेश के हाल के चुनाव में जनता के सत्ताधारी भाजपा के खिलाफ स्पष्टï जनादेश देने के बाद से, पुरानी पेंशन बनाम नई पेंशन व्यवस्था के विवाद ने, सभी प्रमुख राजनीतिक ताकतों को अपना नोटिस लेने के लिए बाध्य कर दिया है

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    - राजेंद्र शर्मा

    नवउदारवाद से पहले के भारत और भारत जैसे दूसरे अनेक देशों में भी, न श्रम कानूनों को कृपा या बोझ की तरह देखा जाता था, न समुचित वेतन या समुचित पेंशन की व्यवस्था को। यह सब श्रम का स्वाभाविक मूल्य माना जाता था। पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम का मूल्य, श्रम शक्ति के पुनरोत्पादन या मेहतनकश के आगे भी श्रम के लिए बने रहने के लिए आवश्यक, भरण-पोषण के खर्च से तय होता है।

    हिमाचल प्रदेश के हाल के चुनाव में जनता के सत्ताधारी भाजपा के खिलाफ स्पष्टï जनादेश देने के बाद से, पुरानी पेंशन बनाम नई पेंशन व्यवस्था के विवाद ने, सभी प्रमुख राजनीतिक ताकतों को अपना नोटिस लेने के लिए बाध्य कर दिया है। इस अपेक्षाकृत छोटे हिमालयी राज्य में, भाजपा के सत्ता से बाहर किए जाने के लिए, राज्य सरकार कर्मचारियों के पुरानी पेंशन की बहाली की मांग के आंदोलन को, विशेष रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है। भाजपा की केंद्र तथा राज्य सरकारों के नई पेंशन व्यवस्था का खुलकर बचाव करने के विपरीत, सिर्फ वामपंथी पार्टियों ने ही नहीं, मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी, पुरानी पेंशन योजना की बहाली के राज्य सरकार कर्मचारियों के व्यापक आंदोलन को अपना समर्थन देकर, वर्तमान तथा भूतपूर्व कर्मचारियों के बड़े हिस्से को, अपने पक्ष में कर लिया। इस मुद्दे के प्रभाव का ही सबूत है कि इस चुनाव के बाद राज्य में आई कांग्रेस की नई सरकार ने पहला बड़ा निर्णय, कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाल करने का ही लिया है।

    छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान की कांग्रेस सरकारें भी पहले ही पुरानी पेंशन की बहाली का ऐलान कर चुकी थीं। उसके बाद पंजाब तथा तमिलनाडु की विपक्षी सरकारों ने भी, पुरानी पेंशन की बहाली का ऐलान कर दिया है। पुरानी पेंशन की बहाली का मुद्दा भले ही, हिमाचल जैसे छोटे पर्वतीय राज्य की तरह, जहां आबादी के अनुपात के रूप में कर्मचारियों के परिवारों का हिस्सा अपेक्षाकृत ज्यादा है, चुनावी लिहाज से निर्णायक नहीं हो, फिर भी इतना तय है कि राजनीतिक पार्टियों के लिए और खासतौर पर विपक्षी राजनीतिक पार्टियों के लिए अब पुरानी पेंशन की बहाली की मांग को अनदेखा करना मुश्किल होगा। जाहिर है कि यह कोई संयोग ही नहीं है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पार्टियों, समाजवादी पार्टी और बसपा, दोनों ने ही अपनी सरकार आने पर पुरानी पेंशन की बहाली का वचन दे दिया है।

    उधर भाजपा-शासित हरियाणा में भी सरकारी कर्मचारी, पुरानी पेंशन की बहाली की मांग को लेकर बाकायदा मैदान में उतर पड़े हैं। इसी मांग को लेकर चंडीगढ़ में राज्य सचिवालय पर प्रदर्शन करने जा रहे हजारों सरकारी कर्मचारियों को रोकने के लिए चंडीगढ़ में पुलिस को आंसू गैस के गोलों का सहारा लेना पड़ा है और अंतत: मुख्यमंत्री को प्रदर्शन के अगले ही दिन कर्मचारियों के प्रतिनिधियों से बात करने का भरोसा दिलाना पड़ा है। इसी बीच, मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने, पुरानी पेंशन की बहाली के लिए अपने समर्थन का ऐलान कर, खट्टïर सरकार पर दबाव और बढ़ा दिया है। बेशक, पुरानी पेंशन के मुद्दे पर मोदी सरकार जिस तरह अड़ी हुई है और पुरानी पेंशन की बहाली को देश के लिए खतरनाक बताने पर लगी हुई है, उसे देखते हुए खट्टïर सरकार के लिए इस मामले में कर्मचारियों को उनकी मांग मानने का आश्वासन देकर शांत करना आसान नहीं होगा।

    लेकिन, पुरानी पेंशन में ऐसा क्या है, जो कमोबेश एक राय से देश भर के सरकारी कर्मचारी उसकी बहाली के लिए जोर लगा रहे हैं? दूसरी ओर, नई पेंशन में ऐसा क्या है, जो अपने चुनावी हितों के लिए चिर-सन्नद्घ भाजपा की मोदी सरकार, इस एक पूरे वर्ग की नाराजगी के बावजूद, नई पेंशन व्यवस्था को जारी रखने पर ही नहीं अड़ी हुई है, इस पर भी बजिद है कि पुरानी पेंशन को बहाल करने का फैसला ले चुकीं करीब आधा दर्जन राज्य सरकारें भी पुरानी पेंशन व्यवस्था को बहाल नहीं कर पाएं। इसके लिए केंद्र सरकार ने अपना सबसे बड़ा हथियार इसकी जिद को बनाया है कि नई पेंशन व्यवस्था के अंतर्गत अब तक पुरानी पेंशन में संक्रमण चाहने वाले राज्यों के कर्मचारियों के पेंशन खातों में जो धन जमा हो गया है, उसे पुरानी पेंशन चालू करने के लिए, राज्यों को नहीं दिया जा सकता है। इसमें केंद्र सरकार ने कितना कुछ दांव पर लगा दिया है, इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने राष्टï्रपति के ताजा अभिभाषण पर बहस के अपने जवाब में भी इशारतन पुरानी पेंशन योजना का समर्थर्न करने वाली सरकारों की यह कहकर आलोचना की थी कि उन्हें सोचना चाहिए कि कहीं वे आने वाली पीढ़ियों पर असह्यï बोझ तो नहीं डालने जा रही हैं!

    तो क्या पुरानी पेंशन पर लौटना वाकई आज की पीढ़ी को खुश करने के लिए, आगे आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को अंधकारपूर्ण बनाने का मामला है? इस सवाल से स्वाभाविक रूप से एक सवाल निकलता है—जब पुरानी पेंशन अपनाई गई थी, तब किसी को यह एहसास नहीं हुआ कि ऐसी पेंशन, आने वाली पीढ़ियों के भविष्य को अंधेरा करने जा रही है? पुरानी पेंशन व्यवस्था कहकर जिस तरह की व्यवस्था को अब, नई व्यवस्था के करीब दो दशक के अनुभव के बाद, लगभग सभी कर्मचारी वापस देखना चाहते हैं, वह मूल रूप में तो स्वतंत्रता से भी पहले से चली आ रही थी। हां! स्वतंत्रता के बाद इसका काफी विस्तार जरूर हुआ था। लेकिन, तब इसमें किसी को वैसे आर्थिक तबाही के बीज क्यों नहीं दिखाई दिये थे, जैसे आज सरकार और अंतरराष्टï्रीय मुद्रा कोष-विश्व बैंक जैसी वैश्विक वित्तीय एजेंसियां दिखाना चाहती हैं?

    इस सवाल का जवाब वास्तव में मुश्किल नहीं है। जवाब विकास की उस नवउदारवादी संकल्पना में मिलेगा, जो हमारे देश में पिछली सदी के आखिरी दशक के आरंभ में विधिवत अपनाईगई थी और जिसे निजीकरण, वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के त्रिशूल के बल पर, उसके बाद से ही लगातार आगे बढ़ाया जाता रहा है। पश्चिमी पूंजीवादी दुनिया में इसकी शुरूआत और डेढ़-दो दशक पहले ही हो चुकी थी। इस नवउदारवादी संकल्पना का केंद्रीय सूत्र एक ही है। उत्पादन की लागत में मजदूरी का हिस्सा उत्तरोत्तर घटाते रहा जाए, ताकि उत्पाद में अतिरिक्त मूल्य या पूंजीपति के मुनाफे का, हिस्सा ज्यादा से ज्यादा हो सके। ऊंची वृद्घि दर और अभूतपूर्व तेजी से विकास की सारी लफ्फाजी अपनी जगह, नवउदारवादी रास्ते का सार यही है।

    इसी का नतीजा है कि सेवानिवृत्ति के बाद समुचित पेंशन की समुचित व्यवस्था को, जिसे आजादी के बाद कई दशक तक एक स्वाभाविक व्यवस्था समझा जाता था, पहले असह्यï बोझ बनाया गया और अब तो उसकी मांग को, एक प्रकार सेे अपराध ही बना दिया गया है। बेशक, ऐसा भी नहीं है कि पेंशन की समुचित व्यवस्था पूंजीवादी व्यवस्था में खुद ब खुद विकसित हो गई हो। आठ घंटे के काम के दिन और हफ्ते में एक दिन की छुट्टी जैसी, श्रम का अंधाधुंध दोहन करने पर अंकुश लगाने वाली अन्य व्यवस्थाओं की तरह ही, सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन की व्यवस्था भी, मेहनतकशों के लंबे और कठिन संघर्षों के फलस्वरूप व्यापक रूप से अपनाई गई थी। इन संघर्षों में, पहले विश्व युद्घ के बाद के दौर में सोवियत संघ में मजदूरों के नेतृत्व में क्रांतिकारी बदलाव और दूसरे विश्व युद्घ के बाद, एक प्रभावशाली समाजवादी शिविर का उदय भी शामिल था, जिसके दबाव में व्यापक पैमाने पर निरुपनिवेशीकरण ही नहीं हुआ था, खुद विकसित पूंजीवादी दुनिया में कल्याणकारी राज्य का मॉडल स्वीकार किया गया था, जो मेहनतकशों के अधिकारों को बढ़ाता था। स्वाभाविक रूप से भारत समेत, नवस्वाधीन देशों में विकास का जो रास्ता अपनाया गया, उसमें मोटे तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था को अपनाते हुए भी, राज्य या शासन को मेहनतकशों के और आम तौर पर अवाम की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए हस्तक्षेप करने और पूंजीवादी की स्वाभाविक असमानताकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने की भी जिम्मेदारी सौंपी गई थी।

    इसीलिए, नवउदारवाद से पहले के भारत और भारत जैसे दूसरे अनेक देशों में भी, न श्रम कानूनों को कृपा या बोझ की तरह देखा जाता था, न समुचित वेतन या समुचित पेंशन की व्यवस्था को। यह सब श्रम का स्वाभाविक मूल्य माना जाता था। पूंजीवादी व्यवस्था में श्रम का मूल्य, श्रम शक्ति के पुनरोत्पादन या मेहतनकश के आगे भी श्रम के लिए बने रहने के लिए आवश्यक, भरण-पोषण के खर्च से तय होता है। इसमें जैसे कि सिर्फ काम के ही नहीं, आराम के घंटों पर खर्च भी शामिल है, उसी प्रकार काम करने की उम्र के बाद, सेवानिवृत्ति होने पर भरण-पोषण का अधिकार भी शामिल है। वास्तव में इसमें अनेक सामाजिक मालों पर होने वाला खर्च भी शामिल है, जो मेहनतकशों की वास्तविक आय को सहारा देते हैं।

    बहरहाल, अब नवउदारवादी व्यवस्था में, मेहनतकशों के हिस्से को ज्यादा से ज्यादा निचोड़ने की कोशिश की जा रही है। पुरानी पेंशन योजना की जगह, नई पेंशन व्यवस्था से लेकर, अग्निवीर जैसी व्यवस्था के जरिए स्थायी रोजगार खत्म करने और सारे काम अस्थायी व सामाजिक सुरक्षाहीन, ठेका रोजगारों में तब्दील करना इसी का हिस्सा है। 'अग्निवीर' व्यवस्था इस मामले में खासतौर पर आंखें खोलने वाली है। सारे दावों और वादों के बावजूद, फौज के लिए ''एक रेंक एक पेंशन'' व्यवस्था खर्च बढ़ने के चलते नहीं ही कर सकी, मोदी सरकार अब फौज के रोजगार को ही एकदम अस्थायी करने और पेंशन का झंझट ही जड़ से खत्म करने वाली व्यवस्था लाई है, जो सुरक्षा बलों के काम को बहुत सस्ती मजदूरी का काम बनाने की ही खुली कोशिश है। और उठते-बैठते देशभक्ति तथा सुरक्षा माला जाप करने वाली जो सरकार सुरक्षा के श्रम को सस्ता करने के लिए ऐसी नंगी कोशिश कर सकती है, वह बाकी श्रम को सस्ता करने के जरिए अपने पूंजीपति यारों के मुनाफे बढ़ाने के लिए तो किसी भी हद तक जा ही सकती है। अचरज नहीं कि नई पेंशन व्यवस्था सिर्फ नाम की ही पेंशन व्यवस्था है वरना इसमें सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली पेंशन, खुद संबंधित कर्मचारी के योगदान से संचालित होती है और उस पर से बहुत ही अनिश्चित होती है क्योंकि उसे शेयर बाजार के रहमो-करम पर छोड़कर, मालिकान अपना पीछा छुड़ा लेते हैं। यानी यह सेवानिवृत्ति के बाद पहले हासिल रही न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा के भी छीने जाने का मामला है।

    अचरज नहीं कि इस सदी के पहले दशक के पूर्वार्द्घ में शुरू हुई नई पेंशन योजना के करीब दो दशक के अनुभव से कर्मचारियों ने अच्छी तरह समझ लिया है कि यह नई पेंशन योजना की जगह, एक तरह से पेंशन नहीं योजना ही है। फिर हंगामा क्यों न बरपा हो।
    (लेखक साप्ताहिक पत्रिका लोक लहर के संपादक हैं।)

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