- डॉ. दीपक पाचपोर
देश के युवाओं की प्राथमिकता अब बदल गयी है। अब उसे न अच्छी शिक्षा चाहिये और न ही काम-धंधे की उसे दरकार रह गयी है। 5 किलो प्रति माह का राशन उसके लिये राष्ट्रीय गर्व का विषय है जो हजार वर्ष के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले किसी हिन्दू राजा की महान अर्थव्यवस्था का प्रतिफल है। बन्द होते स्कूल और महंगी होती शिक्षा उसे विचलित नहीं करती।
इन दिनों पीली शर्ट वाले एक युवा का वीडियो जमकर वायरल हो रहा है। रोते हुए उस युवक ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी दिवंगत माता हीराबेन का बड़ा सा स्केच उठा रखा है। यह शुक्रवार की बात है जब मोदी अपने गृह राज्य गुजरात के एक प्रमुख शहर सूरत में रोड शो कर रहे थे। उनका काफिला आगे बढ़ रहा था तभी उनकी नज़र में वह 20-22 वर्षीय युवक आया। अपनी मां के प्रति बेहद संवेदनशील माने जाने वाले और मासे-चौमासे वडनगर जाकर विभिन्न अवसरों पर अपनी माताजी के जीवित रहने के दौरान उनके साथ फोटो खिंचवाने वाले मोदी ने तत्काल अपनी कारकेड को रुकवाया। उस मोदी आसक्त युवक ने उनके चित्र को और ऊपर उठाया। चित्र के साथ उस युवक की आंखों में मोटे-मोटे आंसू दिख रहे थे जिन्हें वह अपनी आस्तीन से बार-बार पोंछ रहा था। रुक नहीं रहे थे। भीड़ के बीच से सुरक्षा कर्मचारियों के जरिये उस स्केच को मंगवाया जाता है। उस चित्र को देखकर मोदी भी भाव-विभोर होते दिख रहे हैं। उन्होंने उस पर अपने हस्ताक्षर किये तथा वह स्केच वापस युवक तक पहुंचाया गया। मोदी की इस दरियादिली से वह युवक और भी द्रवित हो गया। उसके आंसुओं की धाराएं और भी अधिक तेज़ हो गयीं क्योंकि अब उसके हाथों में वह तस्वीर थी जिसे एक महामानव द्वारा न केवल स्पर्श किया गया था वरन उस पर हस्ताक्षर भी किये थे। आखिरकार मोदी के हस्ताक्षर हैं भी तो बेहद नायाब जो बहुत कम लोगों को नसीब होते हैं। पिछले साल जब मई में मोदी ने अमेरिका का दौरा किया था, अलबत्ता तब उनसे तत्कालीन राष्ट्रपति जो बाईडेन ने उनका आटोग्राफ लेकर साबित किया था कि मोदी के दस्तखत की क्या कीमत है और वे केवल नसीबवानों को ही मिलते हैं। वैसे भी 30 दिसम्बर, 2022 को उनके निधन के बाद मोदीजी की मां से सम्बन्धित ऐसा भावुक प्रसंग अब कहीं जाकर देखने को मिला है क्योंकि उसके बाद मोदी उस घर में गये या नहीं, यह नहीं जान पड़ता।
इस पूरे वाकये को गोदी मीडिया कहे जाने वाले न्यूज़ चैनल द्वारा जिस प्रकार से अतिरिक्त प्रमुखता से प्रसारित किया जा रहा है वह उन सभी लोगों की भी आंखों में आंसू लाने के लिये पर्याप्त है जो देश में युवाओं के साथ-साथ मुख्यधारा की मीडिया की दुर्दशा पर थोड़ा सा भी सोचते हैं। बहरहाल, यदि कोई ऐसा सोचता है कि बेरोजगारी, शिक्षा के गिरते स्तर, रद्द होती परीक्षाओं, प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं के होते पेपर लीक, खराब स्वास्थ्य सेवाओं, बढ़ते भ्रष्टाचार, प्रदूषण जैसे कारणों से वह युवा जार-जार आंसू बहा रहा है, तो वह अपनी राजनीतिक समझ को दुरुस्त कर ले। ऐसा सोचना मोदी की लोकप्रियता को काफी कम करके आंकना ही कहलायेगा। यदि कोई यह भी समझता हो कि युवा हाल ही में प्रयागराज के महाकुम्भ में हुई भगदड़ के कारण लोगों की मौतों पर रो रहा है तो वह भी गलत है; या वह अमेरिका में अवैध प्रवासियों के रूप में रहने वाले भारतीयों को हथकड़ियों-जंजीरों से बांधकर लाये जाने के कारण दुख व अपमान महसूस करके क्रंदन कर रहा है- तो ऐसा भी नहीं है। दरअसल युवा अपने उस आदर्श पुरुष को देखकर भावुक हो गया था जिसके बारे में वह मानता है कि मोदी रोजगार, विकास, कानून-व्यवस्था जैसे सड़े-गले विषयों पर काम करने के लिये नहीं बने हैं। ऐसा निरर्थक काम तो वर्षों पहले जवाहरलाल नेहरू, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, पीवी नरसिम्हा राव, राजीव गांधी और यहां तक कि डॉ. मनमोहन सिंह जैसे लोग कर चुके हैं। मोदी इन सब कामों में भला समय क्यों जाया करें? उन्हें ईश्वर ने खास मकसद से बेजा है- अब्दुल को टाइट करने; और ऐसा वे बखूबी कर रहे हैं।
बेशक यह युवा उसी गुजरात से है जहां 1973-74 में जयप्रकाश नारायण ने छात्रों-युवाओं को साथ लेकर भ्रष्टाचार के खिलाफ 'नवनिर्माण आंदोलन' की शुरुआत की थी। इस असंतोष ने कांग्रेस की चिमनभाई पटेल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिये मजबूर कर दिया था साथ ही गुजरात विधानसभा भंग कर दी गयी थी। यह आंदोलन बिहार में भी फैला जिसके बाद के घटनाक्रम ने भारत की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने के लिये मजबूर कर दिया था। अंतत: वे भी सत्ता से बाहर हो गयीं। अब कोई यह भी न सोचे कि मोदी के काफिले के सामने बिलखता वह युवा देश की आजादी तथा भारतीय लोकतंत्र को बचाने के लिये गुजरात के उपरोक्त उल्लिखित आंदोलन से वाकिफ भी होगा। ये सारी बातें उक्त युवा के उस विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से बाहर के विषय हैं जिसे 'वाट्सएप यूनिवर्सिटी' कहा जाता है। जेपी के समय बेरोजगारी और भ्रष्टाचार चाहे मुद्दे रहे हों, लेकिन अब आज के इन युवाओं व छात्रों को कुछ लेना-देना नहीं है। बहुत सम्भव है कि वह भी उन्हीं बेरोजगारों में से एक हो जिनके लिये मोदी ने भरोसा दिलाया था कि उनके जैसे 2 करोड़ लोगों को हर वर्ष पक्की नौकरी दी जायेगी। पिछले बजट में इसी मोदी सरकार ने हर वर्ष देश की 100 अग्रणी कम्पनियों में लाखों युवाओं को अप्रेंटिसशिप के जरिये काम देने का वायदा किया था- यह सब भी उसे याद नहीं होगा। उसे याद है तो केवल मोदी और उनकी माता।
देश के युवाओं की प्राथमिकता अब बदल गयी है। अब उसे न अच्छी शिक्षा चाहिये और न ही काम-धंधे की उसे दरकार रह गयी है। 5 किलो प्रति माह का राशन उसके लिये राष्ट्रीय गर्व का विषय है जो हजार वर्ष के बाद दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले किसी हिन्दू राजा की महान अर्थव्यवस्था का प्रतिफल है। बन्द होते स्कूल और महंगी होती शिक्षा उसे विचलित नहीं करती। वह धर्म-राज्य को मजबूती देने के लिये सब कुछ छोड़-छाड़कर सड़कों पर है और किसी भी हद तक जा सकता है। उसके मन में सवाल ही नहीं उठता कि दो-चार साल बीत जाने के बाद वह जीवनयापन के लिये क्या करेगा; न ही उसे इस बात को लेकर जानने की उत्सुकता है कि उसके हाथों में झंडे-डंडे पकड़ाने वालों के बच्चे उसके साथ क्यों नहीं हैं? वे क्यों अच्छी शिक्षा पाने के लिये अच्छे स्कूलों में या सीधे विदेशों में जा रहे हैं? फिर लौटकर सीधे किसी बड़ी कम्पनी में काम करते हैं या फिर सांसद बनते हैं अथवा किसी खेल संगठन का बड़ा ओहदा सम्हालते हैं? आखिर उन्हें क्यों नहीं धर्म-राज्य चाहिये?
मोदी ने इन बच्चों की नब्ज़ पकड़ ली है। वे जानते हैं कि किस तरह से इन्हें बुनियादी मुद्दों से दूर रखा जा सकता है। इसलिये जो लोग शिक्षा, रोजगार सम्बन्धी सवाल उठा रहे हैं अथवा काम मांग रहे हैं उन्हें सुनियोजित प्रणाली एवं निर्धारित प्रक्रिया के जरिये जेलों में भेज दिया जाता है या सड़कों पर कूटा जाता हैं- फिर चाहे ये जनप्रतिनिधि हों या फिर छात्र व युवा। बार-बार रद्द होती परीक्षाओं और टलती हुई नौकरियों के बारे में भी कोई सवाल नहीं किया जा सकता। वैसे सही बात तो यह है कि युवाओं की भी इन मुद्दों में कोई रुचि नहीं रह गयी है। इसे अज्ञान कहें या बुनियादी मसलों के प्रति निर्विकार होना- दोनों आत्मघाती है।
दरअसल यही युवाओं द्वारा अपने आंसुओं से मोदी का जलाभिषेक है। फिलहाल ये पानीदार आंसू हैं लेकिन बेरोजगारी और शिक्षा पर सवाल न किये तो इन्हें खून के आंसू बनने में देर नहीं लगेगी।
(लेखक देशबन्धु के राजनीतिक सम्पादक हैं)