• अमानवीयता का कीचड़

    देश की पहली महिला दलित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जब इस सर्वोच्च पद की शपथ ली थी

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    - सर्वमित्रा सुरजन

    जिस देश में 5 करोड़ से अधिक घरेलू कामगार हों, वहां सुनीता खाखा जैसी कितनी महिलाओं की जिंदगी होगी, ये कल्पना करना कठिन नहीं है। इन महिलाओं को सम्मान के साथ काम करने का मौका तभी मिल सकता है, जब में श्रम की गरिमा स्थापित हो और काम को छोटा या बड़ा समझने का नजरिया बदला जाए।

    देश की पहली महिला दलित राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने जब इस सर्वोच्च पद की शपथ ली थी, तो इसे देश में एक नए युग का आगाज़ बताया गया था। भारत के लोकतांत्रिक मिज़ाज की शान में कसीदे पढ़े गए थे कि यहां एक छोटे से गांव की आदिवासी महिला भी प्रथम नागरिक के ओहदे तक पहुंच सकती है। महिला सशक्तिकरण की बड़ी-बड़ी बातें तो हुई ही थीं, इसके साथ ही उम्मीदें जतलाई गई थीं कि इस ऐतिहासिक घटना से देश में महिलाओं की स्थिति, खासकर दलित, आदिवासी, मजदूर तबके की महिलाओं के दिन फिरेंगे। जिस वक्त मीडिया, सोशल मीडिया पर साक्षर, संपन्न और सुखी तबके के लोग इस वंचित वर्ग के बारे में अपनी-अपनी राय प्रकट कर रहे होंगे, उस वक्त सुनीता खाखा या तो लोहे की सलाखों से मार खा रही होंगी या फिर शाब्दिक हिंसा का शिकार हो रही होंगी। उन्हें पता भी नहीं होगा कि उनके सुखद भविष्य को लेकर कैसे-कैसे दावे इस तथाकथित उदार और प्रगतिशील समाज में किए जा रहे हैं।

    संभव है सुनीता खाखा ने कभी द्रौपदी मुर्मू का नाम भी न सुना हो। उन्हें इस बात से भी क्या फर्क पड़ता है कि देश की प्रथम नागरिक उनके जैसी एक आदिवासी महिला हैं या कोई सवर्ण महिला हैं। सुनीता खाखा की छोड़िए, क्या माननीया राष्ट्रपति महोदया इस बात से अवगत हैं कि झारखंड से लेकर दिल्ली और देश के दूर-दराज के शहरों में सुनीता खाखा की तरह की कितनी महिलाएं हैं, जो अघोषित तौर पर बंधुआ मजदूर बना दी गई हैं और शोषित होने के लिए अभिशप्त हैं। अगर श्रीमती मुर्मू इस तरह के शोषण की घटनाओं से परिचित हैं, तो फिर यह देखने की उत्सुकता बनी रहेगी कि वे इसे रोकने के लिए और देश की करोड़ों सुनीता खाखा को गुलामी से आज़ाद कराने के लिए कोई पहल करती हैं या नहीं।

    गौरतलब है कि सुनीता खाखा एक घरेलू सहायिका का नाम है, जिसे झारखंड की एक भाजपा महिला नेता के चंगुल से छुड़वाया गया है। आरोप है कि सीमा पात्रा नाम की भाजपा नेता ने आदिवासी महिला को सुनीता खाखा को 6 साल तक अपने घर पर बंद रखा। और इस दौरान उन पर ऐसे अत्याचार किए, जिन्हें देखकर हैवान भी घबरा जाए। सीमा पात्रा सुनीता खाखा को न केवल मारती-पीटती थी, बल्कि उन्हें जीभ से फर्श साफ़ करने और पेशाब चाटने को मजबूर किया गया। गुमला जिले की रहने वाली सुनीता ने एक वीडियो में लड़खड़ाती आवाज में आपबीती व्यक्त करते हुए बताया कि कैसे उनके दांत लोहे की छड़ से तोड़ दिए और गर्म तवे से उनके शरीर को जला दिया। जिन अत्याचारों को लिखते-पढ़ते भी हाथ कांप जाएं, उन्हें सुनीता ने बार-बार सहन किया है। सीमा पात्रा अक्सर इस तरह की मारपीट करती थी और कई बार उनका बेटा उन्हें ऐसा करने से रोकता था। उनके बेटे के दोस्त की पहल पर ही रांची पुलिस ने सुनीता खाखा को सीमा पात्रा के घर से छुड़ाया। शारीरिक तौर पर बुरी तरह घायल सुनीता खाखा को रिम्स में भर्ती कराया गया है।

    इस पूरे मामले में एक विडंबना ये है कि सीमा पात्रा खुद भाजपा की महिला विंग की राष्ट्रीय कार्यसमिति की सदस्य थीं और एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी महेश्वर पात्रा की पत्नी हैं। इस घटना की खबर बाहर आते ही भाजपा ने सीमा पात्रा को पार्टी से निष्कासित कर दिया है। उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया है। लेकिन जब देश की न्याय व्यवस्था ऐसी हो चली है कि बलात्कार के सजायाफ्ता लोग रिहा हो रहे हैं, देश की रगों में सांप्रदायिकता का जहर घोलने वाली घटनाओं से जुड़े मालमों को अब सुनवाई के योग्य न मानते हुए बंद किया जा रहा है, और इंसाफ को सत्ता के गलियारों में कैद कर दिया गया है, उसके बाद क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि सुनीता खाखा को इंसाफ मिलेगा या उनके दोषियों को सजा मिलेगी। जिन लोगों के पास सत्ता और प्रशासन दोनों का रसूख हो और उसके साथ दौलत की ताकत, क्या वो इतनी आसानी से कानून के शिकंजे में आ पाएंगे। सुनीता खाखा के लिए फिलहाल राष्ट्रीय महिला आयोग ने निष्पक्ष और समयबद्ध जांच की मांग की है।

    मुमकिन है राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इस मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए जांच की बात कहें। मगर क्या इससे भविष्य के लिए निश्चिंत हुआ जा सकता है कि इसके बाद देश में कोई दूसरी आदिवासी महिला या घरेलू सहायिका सुनीता खाखा की तरह प्रताड़ित नहीं होगी। अगर तथाकथित सभ्य समाज अपने गिरेबां में ईमानदारी से झांकने की कोशिश करेगा, तो उसे इसका जवाब मिल जाएगा कि इस घटना के बाद भी ऐसी घटनाओं पर रोक नहीं लगेगी। क्योंकि सवर्ण और संपन्न तबके ने अब भी अपने से कमजोर लोगों को इंसान समझने और उनसे गरिमा के साथ व्यवहार करने की तमीज़ नहीं सीखी है।

    जिस तरह की घटनाएं जमींदारी और सामंती व्यवस्था के दौर में होती थीं, वो आज भी वैसे ही घट रही हैं, तो इसका मतलब यही है कि एक समाज के तौर पर हमने केवल भौतिक तौर पर प्रगति की है, नैतिकता के मामले में हमारे पैर अब भी वर्गीय व्यवस्था के कीचड़ में धंसे हुए हैं। इस कीचड़ में जाति और धर्म के कीड़ों को पनपने का मौका मिलता है। हैरानी की बात ये है कि इस कीचड़ से हमें घिन नहीं होती, बल्कि अब तो गर्व के साथ उसे और फैलाया जा रहा है। सुनीता खाखा के रूप में इस कीचड़ का एक शिकार अभी समाज के सामने आया है, तो उसे साफ करने का दिखावा हो रहा है। लेकिन इस तरह के शिकार इससे पहले भी कई बार, लगातार मिलते रहे हैं और हर बार ऐसे ही दिखावे होते हैं। कुछ साल पहले दिल्ली के संभ्रांत इलाके में झारखंड से आई एक लड़की को केवल इसलिए मार दिया गया था, क्योंकि उसने अपनी मेहनत के पैसे मांग लिए थे। गुड़गांव में एक नाबालिग को घर पर बंद कर उस घर के मालिक छुट्टियां मनाने चले गए थे, उनके पड़ोसी की पहल पर उस नाबालिग को पुलिस ने घर से बाहर निकाला और उसे बेहद बुरी दशा में पाया था। इस साल फरवरी में झारखंड से ईडी ने मानव तस्करी में लगे कुछ लोगों को गिरफ्तार किया था, जो मजबूर लड़कियों को प्लेसमेंट एजेंसियों के जरिए दिल्ली जैसे महानगरों में नौकरी दिलवाकर करोड़ों कमाते हैं। देश में बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी सब गैरकानूनी हैं, लेकिन फिर भी इन कामों से करोड़ों की कमाई की जा रही है, तो जाहिर है इसके तार सत्ता और प्रशासन में बैठे लोगों तक भी जुड़े होंगे।

    अपनी सुविधा के लिए घर के कामों में किसी को सहायक के तौर पर रखना एक आम चलन है। और एकल परिवारों में जहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हों, वहां 24 घंटे के लिए काम पर सहायिकाएं रखी जाती हैं। चंद हजार रुपयों के बदले इनसे भरपूर काम लिया जाता है और उस पर बेरहमी ये कि इन्हें इंसान की तरह नहीं माना जाता। बड़ी-बड़ी रिहायशी इमारतों में इन सहायिकाओं के लिए पुलिस की जांच के बाद प्रवेश पत्र जारी किया जाता है, कई इमारतों में इन लोगों के लिए अलग लिफ्ट होती है, और इतना अपमान काफी नहीं होता तो फिर मनमाफिक सेवा न मिलने पर इन्हें प्रताड़ित करने में संकोच नहीं किया जाता। गरीब तबके के लोग इस तरह की मानसिक और शारीरिक यंत्रणा सहने को मजबूर होते हैं, क्योंकि उनके पास आमदनी का और कोई जरिया नहीं होता। उदारीकरण के बाद के एक दशक में देश में घरेलू सहायकों की संख्या में करीब 120 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। 1991 के 7,40,000 के मुकाबले 2001 में यह आंकड़ा 16.6 लाख हो गया था और अब तो 20 साल और गुजर चुके हैं, निश्चित ही यह आंकड़ा भी और बढ़ गया होगा।

    जिस देश में 5 करोड़ से अधिक घरेलू कामगार हों, वहां सुनीता खाखा जैसी कितनी महिलाओं की जिंदगी होगी, ये कल्पना करना कठिन नहीं है। इन महिलाओं को सम्मान के साथ काम करने का मौका तभी मिल सकता है, जब में श्रम की गरिमा स्थापित हो और काम को छोटा या बड़ा समझने का नजरिया बदला जाए। प्रसंगवश याद आता है कि आलो आंधारी की लेखिका बेबी हालदार ने भी अपनी आजीविका के लिए दिल्ली और गुड़गांव में घरेलू सहायिका के तौर पर काम किया था। लेकिन उनकी योग्यता की ओर लेखक प्रबोध कुमार जी का ध्यान गया, तो उन्होंने न केवल बेबी हालदार को पढ़ने और अपनी आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरित किया, बल्कि उनकी आत्मकथा का बांग्ला से हिंदी अनुवाद किया। बाद में यह किताब अंग्रेजी और दूसरी वैश्विक भाषाओं में अनूदित हुई और विश्व स्तर पर चर्चित हुई। प्रबोध जी बेबी हालदार के लिए तातुश बने और एक अभिभावक की तरह उसे आगे बढ़ाया। उनके जितनी उदारता और सदाशयता समाज से न भी दिखाई जाए, लेकिन मानवता की अपेक्षा तो समाज से की ही जानी चाहिए।

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